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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पर्युषणपर्व की साधना का परिणाम:
एवे दहप्पयारा, णावकम्मस्स णासिया भणिया ।
पुण्णस्सयं संजणया, पर पुण्णत्थंण कायव्वा ॥ तात्पर्य - धर्म के दश प्रकार क्षमा आदि पाप कर्मों के नाशक और पुण्यकर्म के उपार्जक कहे गये हैं परन्तु मात्र पुण्यकर्म के संचयार्थ नहीं करना चाहिए इन धर्मों की साधना किन्तु सुमुक्ति हेतु । उपसंहार :
भारतीय संस्कृति एवं साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जैनपर्व परम्परा अपना विशेष महत्व व्यक्त करती है। आत्म शुद्धि तथा मुक्ति के लिए उसकी अति आवश्यकता है। पर्व की सार्थक परिभाषा एवं मूल उत्तरभेद ज्ञातव्य है । यह पर्युषणपर्व अनादिनिधन है कारण कि इसका संबंध अनादिकाल परम्परा के साथ है । पर्युषण के पर्याय शब्द और स्यावाद शैली से धर्म की परिभाषा का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् विभिन्न आचार्यो की दृष्टि से धर्म के दश अंगों का निर्देश किया गया है।पर्युषण पर्व से विश्वशांति, सामाजिक सर्वोदय और तत्वेदक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानवता का विकास नियमित होता है।
पर्युषण के पर्व-पर्व में भरा हुआ है अमृत रस । आत्म शुद्धि वृद्धिंगत होती, जीवन बनता है समरस ॥
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