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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्यावाद :" (लघीयस्त्रयग्रन्थे अकलंक देव :)
"विधेयमीप्सितार्थागं, प्रतिषेध्याविरोधियत् ।। तथैवादेयहेयत्वमिति स्यादवादसंस्थिति: ॥"
(आचार्य समन्तभद्र : आप्तमीमांसा का . ।। 3) विशदार्थ :
अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु में सद्भाव - निषेध रूप परस्पर विरोधी दो धर्मो का अथवा हेय - उपादेय धर्मो का अथवा मुख्य - गौण धर्मो का कथन करना स्याद्वाद है । यथा एक ही पुरुष अपने पिता की अपेक्षा पुत्र और अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है अपने मामा की अपेक्षा भानजा है और अपने भानजे की अपेक्षा मामा है। निश्चयनय की अपेक्षा वस्त्र नित्य और व्यवहारनय की अपेक्षा वस्त्र अनित्य है, नित्य नहीं है। खांसी के रोगी की अपेक्षा घृत, मिष्टान्न आदि वस्तु नहीं खाने योग्य है और स्वस्थ पुरुष की अपेक्षा मिष्ठान्न आदि वस्तु खाने योग्य है।
स्यावाद सिद्धांत के द्वारा अनेकान्त की सिद्धि होती है । अनेक धर्म सहित किसी भी वस्तु के परस्पर विरूद्ध हो धर्मो का विवक्षावश परस्पर सापेक्ष कथन स्यावाद शैली के माध्यम से ही लोक व्यवहार में सफल हो सकता है। पदार्थ के तत्वज्ञान के बिना कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का ज्ञान नहीं होता है पदार्थ का तत्व ज्ञान अनेकान्त सिद्धांत के बिना नहीं होता है और अनेकान्त का विज्ञान स्यादवाद की रीति से होता है इसलिये स्यावाद शैली जीवन में उन्नति के लिये महत्वपूर्ण है। इन सब विशिष्ट कारणों से ही भ. महावीर ने स्यावाद पद्धति का आविष्कार किया है। इस शैली से ही पदार्थों में नित्यानित्य, एकत्वानेकत्व, विशेष सामान्य, सत् - असत् भिन्न - अभिन्न इत्यादि धर्म सिद्ध होते हैं ।
यहाँ पर कोई दर्शनकार प्रश्न करता है कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्म एक - अनेक, नित्यअनित्य आदि कैसे रह सकते है। इस प्रश्न का उत्तर आचार्य उमास्वामी (उमास्वाति) घोषित करते हैं -
"अर्पितानर्पितसिद्धे :" (तत्वार्थ सूत्र अ. 5, सूत्र 32) इसका तात्पर्य है कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्म वक्ता की अपेक्षा या दृष्टिकोण से सिद्ध होते हैं जैसे सन्तरा द्रव्यदृष्टि से एक पुद्गल (जड़द्रव्य) है और पर्यायों (विविध दशाओं) की दृष्टि से अनेक है। सन्तरे में स्पर्शन इन्द्रिय की अपेक्षा कोमल स्पर्श है, रसना की अपेक्षा मीठा रस है, नासिका की अपेक्षा अच्छी गंध है और नेत्र की अपेक्षा पीलावर्ण है, अन्यथा खाने वाले को इनरसादि के स्वाद से आनंद नहीं होना चाहिये।
स्यादवाद के विषय में अब तार्किक वाचक आचार्य समन्तभद्र की वाणी : -
अनवद्य: स्यादवादः , तव दृष्टेष्टा विरोधत: स्यादवाद: । इतरो न स्यादवाद : , सद्वितयविरोधान मुनीश्वरास्यादवादः ॥
(स्वयंभूरतोत्र: महावीरस्तवन: काव्य 3)
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