________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
ज्ञेय
ज्ञायक
प्रमाणात्मक
नयात्मक
निश्चयात्मक
व्यवहारात्मक
विज्ञानरूप
वचन रूप निर्देश्य . निर्देशक
मानसिक शुद्धिकर्ता वचनशुद्धिकर्ता अनेकान्तवाद के सप्त भंग (प्रकार) :
यह अनेकान्त सिद्धांत अनेक धर्म विशिष्ट द्रव्य के स्वरूप को प्रमाणित ज्ञान से निरूपित करता है और वह स्यादवाद वस्तु के धर्म के आपेक्षिक कथन को, कथित वचन की सत्यता को, दर्शनों के समन्वय को और पारस्परिक विरोध को दूर कर शान्ति को स्थापित करता है । अत: स्यावाद की प्रक्रिया से अनेक धर्मो की सिद्धि सात प्रकार से होती है उसे सप्तभंगी कहते है। सप्त भंगी प्रक्रिया का स्वरूप आचार्यों ने दर्शाया है - "प्रश्नवशात् एकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि - प्रतिषेधेविकल्पना सप्त भंगी"।
(तत्वार्थराजवार्तिक: अकलंकदेव: अ.।. सू. 6) तात्पर्य - जिज्ञासु के प्रश्न के कारण एक वस्तु में विरोध रहित विधि एवं प्रतिषेध की कल्पना (रचना) को सप्तभंगी कहते हैं।
"एकत्र जीवादी वस्तुनि एकैक सत्त्वादि धर्म विषय प्रश्न वशात् अविरोधेन प्रत्यक्षा दिवाधापरिहारेण पृथक् भूतयो: समुदितयोश्च विधिनिषेधयो: पर्यालोचनांकृत्वा स्यात्शब्द लांछितो सप्तभिः प्रकार : वचन विन्यास : सप्त भंगी तिगीयते," (मल्लिषेणसूरि : स्याद्वादमंजरी : पृ.209)
जीव आदि पदार्थों में अस्तित्व आदि धर्मो के विषय में प्रश्न करने पर विरोध रहित, प्रत्यक्षादिप्रमाणों से अविरूद्ध पृथक् - पृथक् या सम्मिलित विधि और निषेध के विचार पूर्वक “स्यात्" शब्द से लांछित सात प्रकार की वचन रचना को सप्त भंगी कहते हैं।
एक द्रव्य के एक धर्म का अविरोध रूप से विधि तथा प्रतिषेधरूप वर्णन सात प्रकार से होता है। जैसे शर्वत के मधुर खट्टा, चर्परा, इन तीन रसों का वर्णन सात प्रकार (1-1-1-2-2-2-3) से आस्वाद्य होता है, उसी प्रकार द्रव्य के अस्तित्व धर्म की अपेक्षा अस्ति (है), नास्ति (नहीं है),अवक्तव्य (नहीं कहने योग्य) इन तीन मूलभंगों से सातभंग (1-1-1-2-2-2-3)होते हैं । इसी प्रकार वस्तु के प्रत्येक धर्म के अपेक्षाकृत सात-सात भंग होते है, अतएव द्रव्य अनेक धर्मो का आधार सिद्ध होता है। उदाहरण सहित भंग - (1) स्यात् अस्तिपुस्तकं - पुस्तक अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा है। (2) स्यात्नास्ति पुस्तकं - पुस्तक, अन्यघट के द्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा नहीं है। (3) स्यात् पुस्तकं अस्ति - नास्ति - पुस्तक एक साथ स्वद्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा है और अन्य
घट के द्रव्यादि की अपेक्षा नहीं है।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org