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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य - जो नय एक वस्तु के धर्मो में किसी अपेक्षा से भेद , प्रभेद तथा उपचार को करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है और जो नय वस्तु के धर्मो में भेद रूप न कर अभेद दृष्टि से वस्तु को ग्रहण करता है वह निश्चय नय कहा जाता है।
____पंडित प्रवर श्री टोडरमल द्वारा प्रतिपादित निश्चय व्यवहार की व्याख्या - एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्चयनय है और उपचार से उक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप कहना व्यवहार नय है जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी (पुद्गल) का कहना निश्चयनय का कथन है और घी का संयोग देखकर घी का घड़ा कहना व्यवहारनय का कथन है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. 249, च.सं. 1978) कविवर पं. दौलतराम जी द्वारा उभयनय का संक्षिप्त कथन -
'जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो' (छहढाला तृ. ढाल छन्द प्रथम)
यद्यपि निश्चय और व्यवहार के उपरिकथित लक्षणों में भाषा तथा शैली की दृष्टि से भिन्न ज्ञात होती है तथापि समस्त लक्षणों का तात्पर्य (भाव) एक ही है कोई अंतर नहीं है। प्रश्न - भूतार्थ (सत्यार्थ) और अभूतार्थ (असत्यार्थ) का स्पष्ट अर्थ क्या है ? क्या भूतार्थ का सत्यधर्म तथा
अभूतार्थ का झूठपाप अर्थ ग्रहण करना उचित है ? उत्तर - जो वस्तु के शुद्ध स्वरूप को किसी दृष्टिकोण से कहे वह भूतार्थ (सत्यार्थ) निश्चयनय का विषय है और जो किसी दृष्टिकोण से वस्तु की पर्याय अथवा उसके एक अंश (गुण) को कहे वह अभूतार्थ (असत्यार्थ) व्यवहारनय का विषय हैं। यहाँ पर निश्चयनय सत्यरूप तो है ही, पर व्यवहारनय
भी सत्यरूप है उसका झूठपाप अर्थ नहीं है। प्रश्न - जब अभूतार्थ - व्यवहारनय भी सत्यरूप है तो उसको असत्यार्थ शब्द से क्यों कहा है ?
स्याद्वाद की शैली से इसका समाधान होता है अर्थात् निश्चयनय की अपेक्षा वस्तु के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण न करने के कारण व्यवहार को असत्यार्थ कहा गया है परन्तु अपनी दृष्टि से वस्तु के सत्यांश को ग्रहण करने वाला होने से तथा निश्चय (नय)की प्राप्ति का हेतु होने से वह भी सत्यांश है और निश्चय की अपेक्षा असत्यांश हैं. अन्यथा कोई भी व्यक्ति दैनिक व्यवहार में घी का घड़ा पानी का लोटा यह प्रयोग करता न देखा जाता और न उससे सफलता प्राप्त करता हुआ देखा जाता। स्पष्ट कथन यह है कि मानव, व्यवहार का प्रयोग करता हआ जीवन में सफलता भी प्राप्त करता है।
दूसरा समाधान यह है कि जब तक जन्ममरण की परम्परा में भ्रमण करने वाला विश्व का मानव, सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र की पूर्णता को प्राप्त कर, विशुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त नहीं हो जाता तब तक व्यवहारनय का विषय सत्यार्थ है, आदरणीय है। शुद्ध परमात्म दशा को प्राप्त होने पर व्यवहारमार्ग असत्यार्थ हो जाता है अर्थात् स्वयं ही छूट जाता है। दूसरे शब्दों में कहने योग्य है कि कार्य सिद्ध हो जाने पर निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं रहती। एकान्तपक्ष से व्यवहार को सत्यार्थ या असत्यार्थ नहीं कहा जा सकता।
समयसार ग्रन्थ की गाधा नं.।। में हिन्दी अर्थ में कहा गया है -
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