________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जगत के अज्ञानी प्राणियों की जानने या किसी भी वस्तु का ज्ञान करने की सामान्य प्रक्रिया ही यह है कि सबसे प्रथम वस्तु की सामान्य सत्ता का प्रतिभास होता है जिसको दर्शन शब्द से कहा जाता है इसका समय बहुत सूक्ष्म होता है जो हम सबके जानने में नहीं आ पाता है, इस सामान्य प्रतिभास (झलक) के अनंतरकाल में ही वस्तु के आकार एवं वर्ण का ज्ञान रूप अवग्रहज्ञान, वस्तु के चिह्न लक्षण विचार रूप ईहा ज्ञान, इसके बाद चिह्नों के निर्णय से वस्तु का निश्चय रूप अवायज्ञान और इसके अनंतर ही बहुत समय तक निर्णीत वस्तु का ज्ञान स्थिर हो जाना रूप धारणाज्ञान होता है। यह सब सामग्री तथा ज्ञान की सूक्ष्म धाराएं मिलकर एक मतिज्ञान ही यथायोग्य होता है । इसके अनंतर प्रथम श्रुतज्ञान होता है तथा उत्तरोत्तरकाल में श्रुतज्ञान की द्वितीय आदि परम्परा यथायोग्य चलती जाती है, यह विशेष ज्ञान की परम्परा ही श्रुतज्ञान का रूप धारण करती है। अर्हतसर्वज्ञ केवलज्ञानी के क्षायिक ज्ञान होने से दर्शन तथा ज्ञान एक साथ व्यक्त होते है यह विशेषता ज्ञान की होती है जगत के प्राणियों के सदृश उस ज्ञान में क्रम नहीं होता है।
द्वितीय दृष्टि (वस्तुज्ञान की अपेक्षा) से प्रमाण ज्ञान के अन्य दो विभाग हैं - 1. स्वार्थप्रमाण, 2. परार्थप्रमाण । ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थप्रमाण कहते हैं और वचनात्मक (शब्दात्मक) प्रमाण को परार्थप्रमाण कहते है पाँच ज्ञानों के मध्य में मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान - इन चार ज्ञानों में, अपने को तथा अन्य पदार्थो को जानने की शक्ति तो है, परन्तु शब्दों द्वारा दूसरे व्यक्तियों को ज्ञान कराने (समझाने) की शक्ति नहीं है अत:ये चार ज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं। किन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों रूप है कारण कि वह स्वयं (निज) तथा अन्य को जानता भी है और शब्दों द्वारा दूसरे मानवों को ज्ञान भी कराता है इसी कारण से श्रुतज्ञान के शब्दश्रुत तथा अर्थश्रुत ये दो भेद कहे गये हैं, अन्य चार ज्ञान के शब्द ज्ञान भेद नहीं है । अर्थात् भाषाभिव्यक्ति का कारण नहीं है । यह वचनात्मक श्रुतज्ञान ही नय प्रयोग को जन्म देता है । नय का सामान्य लक्षण यह है कि प्रमाणसिद्ध वस्तु के एक अंश को किसी दृष्टिकोण से ग्रहण करना । इसी विषय को श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा है - "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च 2 तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवज्यं । श्रुतं पुन: स्वार्थ भवति परार्थच । ज्ञानात्मकं स्वार्थ, वचनात्मकं परार्थ। तद्विकल्पा:नया: । प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणंनयः इति ।" (सर्वार्थसिद्धि सूत्र पृ. 6)
___ भावार्थ - समीचीन वस्तु के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वह प्रमाण दो प्रकार का होता है - स्वार्थ और परार्थ । उनमें स्वार्थ प्रमाण श्रुतज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान कहे जाते हैं परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों रूप होता है । ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण और वचनस्वरूप परार्थप्रमाण कहा जाता है, उससे नयों का जन्म होता है। प्रमाण से वस्तु को जानकर विवक्षावश वस्तु के एक अंश को ग्रहण करना ही नय कहा जाता है । वस्तु या पदार्थ के सम्पूर्ण स्वरूप को स्पष्ट जानने की सामर्थ्य सर्वज्ञ (सर्वदर्शी) आत्मा में होती है पर अल्पज्ञानी, परोक्षज्ञानी संसारी आत्मा में वस्तु के सर्वाश को जानने की शक्ति नहीं है वह तो वस्तु के एक देश को किसी भी विवक्षा से जान सकता है और उससे अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकता है इसलिए नयज्ञान
-253
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org