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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा प्राय: ये अर्थ नहीं है, कारण कि इन अर्थो से वस्तु का निश्चय नहीं होता और लोकव्यवहार भी नहीं चल सकता, सप्तभंगी तरंगिणी में कहा गया है कि - "द्योतकाश्च भवन्ति निपाता:","च शब्दात् वाचकाश्च अर्थात् स्यात् आदि अव्यय मुख्य अर्थ के वाचक होते है और अविवक्षित या गौण अर्थ के द्योतक होते हैं, किन्तु गौण अर्थ का निषेध नहीं करते हैं जैसे स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा पुस्तक है यह मुख्य अर्थ का वाचक है और घटद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा पुस्तक नहीं है इस गौण अर्थ का द्योतक है किन्तु निषेधक नहीं है, यह “स्यात्"पद की विशेषता है, यदि मुख्यार्थ को ही मान्य कर लिया जाय और गौण का सर्वथा निषेधकर दिया जाय तो एकान्तपक्ष सिद्ध हो जाएगा और अनेकान्त तत्त्व का लोप हो जायगा।
दूसरा उदाहरण - एक बालक विद्यालय में प्रवेशार्थ गया, प्राचार्य ने प्रवेश समय उसके पिता का नाम पूछा, उसने पिता नाम लिखाया । इस समय बालक के पितृत्व की उस व्यक्ति में मुख्यता है और पुत्रत्व की गौणता है परन्तु पुत्रत्व का उस व्यक्ति में निषेध नहीं है, वह भी अपने पिता का पुत्र है। यदि उस व्यक्ति में पुत्रत्व का सर्वथा निषेधमान लिया जाये तो हास्य का विषय हो जायेगा। कि बिना पिता के पुत्र कहाँ से आ गया । इसलिये वह व्यक्ति एक ही समय में पिता - पुत्र दोनों रूप में है किन्तु लोकव्यवहार में प्रधानता और अप्रधानता से कथन होगा, अन्यथा व्यवहार का लोप हो जायेगा । (सप्तभंगी तरंगणी - पृ. 23) विविधदर्शनों के समन्वय में अनेकान्तवाद :
लोक में दर्शनों का आविष्कार सिद्धांतों की प्रतिष्ठा के लिये होता है और अहिंसा सत्य आदि सिद्धांतों से लोक कल्याण होता है अत: दर्शनों का लक्ष्य भी लोक कल्याण सिद्ध होता है। राष्ट्रों में अथवा देशों में दर्शनों की, सिद्धांतों की, धर्मो की और विविधविचारों की पारस्परिक प्रतिक्रिया, विवाद, वैमनस्य प्राय: देखा जाता है । इस दूषित वातावरण से दर्शनों का लोककल्याण या विश्वमैत्री रूप लक्ष्य सिद्ध नहीं होता है । अत: दर्शनों , सिद्धांतों और विविध विचारों के समंवय की अतिआवश्कता है । वस्तु के यथार्थ तत्वज्ञान के बिना दर्शनों एवं विचारों का समंवय होना कठिन है। दर्शनों की सम्यक् मैत्री के लिये यथार्थ वस्तुत्व विज्ञान, अनेकान्तवाद के माध्यम से ही संभव है वही दर्शनों की मैत्री का प्रबल साधन है ।
___ एकान्तवाद,दुराग्रह या हठवाद से ही पारस्परिक द्वेष विवाद और प्रतिक्रिया की भावनाओं का जन्म होता है। जैसे भगवान महावीर के समय, पदार्थो को एकान्तनित्य कथन करने वाले सांख्यदर्शनकार, क्षणिकवादी बौद्ध दार्शनिकों का तिरस्कार करते थे और बौद्धदार्शनिक, सांख्यदार्शनिकों का तिरस्कार करते
थे। यह पारस्परिक विद्वेष देखकर भ. महावीर की वाणी ने घोषणा की, कि अरे दर्शन कारो! पारस्परिक दुर्भावना की आवश्यकता नहीं, अपितु सद्भावना की आवश्यकता है । यदि सांख्यदर्शनवादी वस्तु को नित्य कहते हैं, तो द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से वह सिद्धांत भी सत्य है, असत्य नहीं है और यदि बौद्धदर्शनवादी वस्तु को क्षणिक कहते हैं तो पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से क्षणिक सिद्धांत भी सत्य है असत्य नहीं है, कारण कि वस्तु का मूलत: नाश नहीं होता है किन्तु कारणवश उसकी पर्याय (हालतें) बदलती रहती है। अत: इस विषय में भ. महावीर का अनेकान्तवाद यही सामंजस्य व्यक्त करता है कि द्रव्यदृष्टिकोण से जगत के पदार्थ नित्य हैं और परिवर्तनशील दशाओं के दृष्टिकोण से पदार्थ क्षणिक हैं । इस प्रकार भ. महावीर की अनेकान्तवाणी ने दोनों दर्शनकारों के मध्य मैत्री भाव जागृत कर दिया।
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