________________
कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सार सौन्दर्य - जिन श्री जिनसेन श्रमण के देदीप्यमान नखों के किरण समूह से फैलती हुई धारा बहती थी और उसके अन्दर जो उनके चरण कमल की शोभा को धारण करते थे उनकी रजसे जब राजा अमोघवर्ष के मुकुट जड़ित रत्नों की कान्ति पीली पड़ जाती थी, तब वह राजा अमोघवर्ष आप को पवित्र एवं पूज्य मानता था और अपनी उसी अवस्था का सब स्मरण किया करता था। ऐसे श्रीमान् पूज्यपाद भगवान श्री जिनसेनाचार्य सदा संसार का मंगल करें। (दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि पृ. १७५)
मुगल साम्राज्य में श्रमण साधुओं का प्रभाव :
मुस्लिम साम्राज्य में प्राय: सम्पूर्ण देश त्रसित एवं दुखित हो रहा था आर्यधर्म संकटापन्न थे, किन्तु उस समय भी हम देखते हैं कि प्रसिद्ध यवनशासक हैदरअली ने श्रवणबेलगोल की दिगम्बर विशालमूर्ति श्रीगोम्मटदेव की सुरक्षा के लिये अनेक ग्रामों की जागीर भेंट की थी। उस समय श्रवणबेलगोल के जैनमठ में जैनसाधु विद्याध्ययन कराते थे । दिगम्बराचार्य विशाल कीर्ति ने सिकन्दर और वीरु पक्षराय के सामने वाद किया था । (तथैव - पृ. १८० )
भारतीय पुरातत्त्व में श्रमण परम्परा का प्रभाव :
सिन्धु देश के पुरातत्त्व के उपरान्त सम्राट अशोक द्वारा निर्मित पुरातत्त्व ही सर्वप्राचीन है, वह पुरातत्त्व भी दिगम्बर श्रमणों के अस्तित्व का द्योतक है। स. अशोक ने अपने एक शासनलेख में आजीवक साधुओं के साथ निर्ग्रन्थसाधुओं का भी उल्लेख किया है।
सम्राट अशोक के पश्चात् खण्ड गिरि-उदयगिरि का पुरातत्त्व दिगम्बर परम्परा का पोषक है। जैन सम्राट खारबेल के हाथीगुफा वाले शिलालेख में दिगम्बर श्रमणों का तापस (तपस्वी) शब्द से उल्लेख है । उन्होंने अखिल भारत के दिगम्बर मुनियों का सम्मेलन किया था । खारवेल की पटरानी ने भी कलिंग श्रमणों के लिये गुफा निर्मित करा कर उनका उल्लेख अपने शिलालेख में इस प्रकार उल्लेख किया -
"अरहन्तपसादायम् कलिंगानं समनानं लेनं कारितम् राझो लालकसह थी साहसपयोतस् धुतुना कलिंगचक्रवर्तिनो श्रीखारवेलस अगमहिसिना कारितम् "।
ताप्पर्य - अर्हन्त के प्रासाद या मन्दिर रूप यह गुफा कलिंगदेश के श्रमणों के लिये कलिंग चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल की मुख्य पटरानी ने निर्मित कराई, जो हथीसहस के पौत्र आलकस की पुत्री थी । वैदिक साहित्य में श्रमणों का उल्लेख:
-
भारतीय साहित्य में वैदिक साहित्य प्राचीन माना जाता है। उसमें भी श्रमणों का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है इससे सिद्ध होता है कि वैदिक साहित्य की रचना के पूर्व भी श्रमण परम्परा का अस्तित्व था । अत: वैदिक साहित्य के कतिपय उद्धरणों का उल्लेख यहाँ किया जाता है
तात्पर्य - हे विष्णुदत्त परीक्षित ! यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्री विष्णु दत्त
Jain Education International
234
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org