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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन पुराणों के कथन से स्पष्ट है कि तीर्थकरों और श्रमणों का विहार समस्त आर्यखण्ड में हुआ था। वर्तमान की ज्ञातदुनियाँ का समावेश आर्यखण्ड में हो जाता है। इसलिये यह मान्यता सत्य है कि अमरीका, यूरोप चीन, एशिया आदि देशों में किसी समय दिगम्बर धर्म प्रचलित था और वहाँ दिगम्बर श्रमणों का विहार होता था। आधुनिक विज्ञान भी इस वृत्त को सिद्ध करता है कि बौद्धसाधु और जैन भिक्षुगण, यूनान, रोम और नार्वे तक धर्मप्रचार करते हुए विहार करते थे।
लंका में जैनधर्म की गति प्राचीन काल से ही है। ईशापूर्व चतुर्थ शती में सिंहलनरेश पाण्डुकामय ने वहाँ के राजनगर अनुरुद्धपुर में एक जैन मंदिर और जैनमठ बनवाया था। निग्रंथ साधु वहाँ पर निर्बाध धर्मप्रचार करते थे। (दिगम्बर और दिगम्बरमुनिः सन् १९३२, २४२ पृ0) उपसंहार
समाज में धार्मिकता, नैतिकता, सदाचारत्व , विनयशीलता और अध्ययन-चिंतन की प्रेरणा के प्रदायक, साधना एवं भावना साधक, सर्वोदय सिद्धान्त के प्रणेता एवं अहिंसा के प्रतिपालक श्रमण होते हैं। श्रमण की संगति के बिना श्रावक समाज का उद्धार होना कठिन है। कर्मयुग के आदि में सर्वप्रथम श्रमणदीक्षा का आदर्श श्री बाहुबली स्वामी ने उपस्थित किया । भारतीय संस्कृत साहित्य में श्रमण का महत्व, इतिहास, पुरातत्व और मुगलकाल में श्रमणों का प्रभाव, वैदिक साहित्य में श्रमणों का प्रशंसनीय उल्लेख और विदेशों में श्रमणों के विहार से श्रमण परम्परा का महत्व और उसकी उपयोगिता प्रमाणित होती है।
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