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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
होती है। अहिंसा से दस धर्मों की साधना और दस धर्मों की साधना से अहिंसा की साधना होती है । दश लक्षण पर्व की मान्यता का यही ध्येय है।
वैदिक दर्शन में दश धर्मो का समर्थन -
( मनुस्मृति: )
1. धृति, 2. क्षमा, 3. कामदमन, 4. अचौर्य, 5. शौच, 6. इन्द्रिय विजय, 7 सद्बुद्धि 8. विद्या, 9. सत्य, 10, अक्रोध ।
धृतिः क्षमादमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम् ॥
पौराणिक कथा वस्तु -
धातकी खण्ड द्वीप में विद्यमान पूर्व विदेह क्षेत्र के विशाल नगर में प्रियंकर राजा की पुत्री मृगांकलेखा, मतिशेखर मंत्री की पुत्री कमलसेना, गुणशेखर की पुत्री मदनवेगा और लक्षभट विप्र की कन्या रोहिणी इन चारों कन्याओं ने छात्र जीवन में एक गुरू के निकट एक साथ लौकिक विषयों की तथा धर्म विषय की शिक्षा प्राप्त की। उनका जीवन समाज में प्रशंसनीय हो गया। एक समय वसन्त ऋतु में वन क्रीड़ा के लिये उन्होंने वन में विहार किया। वहां पर एक दिगम्बर जैन ऋषि के दर्शन कर धार्मिक उपदेश श्रवण किया। उन कन्याओं ने श्री मुनिराज से प्रश्न किया कृपया स्त्री पर्याय के तथा जन्म मरण के विच्छेद का सत्य मार्ग बतलाइये, जिससे हमारा कल्याण हो । श्री मुनिराज ने कहा- हे पुत्रियों ! तुम सब मनसा वाचा कर्मणा प्रति वर्ष भाद्र, माघ, चैत्र मास के शुक्ल पंचमी दिवस से चतुदर्शी पर्यन्त दश दिनों में श्री दशलक्षण व्रत की साधना करो । उन्होंने उत्साह के साथ इस पर्व में अभिषेक अर्चन सामायिक, प्रतिक्रमण, स्तवन, स्वाध्याय अनशन आदि पवित्र कर्तव्यों का आचरण किया । दश वर्ष की साधना के पश्चात् उन कन्याओं ने समारोह से अपने व्रत का उद्यापन किया । उनका सुख शान्ति मय जीवन मानव समाज में गौरव पूर्ण हो गया । उन्होंने जीवन के अन्त में समाधिमरण कर दशम स्वर्ग में ऋद्धिशाली देवपद प्राप्त किया ।
वहाँ से चयकर भारत के मालवा प्रान्त के उज्जैन नगर में महाराज मूलभद्र के चार पुत्रों के जन्म को क्रमशः उन्होंने ग्रहण किया। छात्र जीवन में शिक्षा प्राप्त करने के बाद योग्य अवस्था में उनका विवाह हो गया। श्री मूलभद्र नृप राज्यभार उनको देकर मुनि पद में दीक्षित हुए ।
उन चारों पुत्रों ने भी राज्य किया और जीवन के अन्त में मुनि दीक्षा लेकर तप किया। धर्म का आदर्श मार्ग दर्शाते हुए उन्होंने परमात्मपद प्राप्त किया। इस प्रकार उक्त चारों कन्याओं ने श्री दश लक्षण धर्म का आदर्श इस विश्व में उपस्थित किया । शिक्षाप्रद है।
सामाजिक महत्व
कर्मयुग के आदिकाल में भ. ऋषभदेव के द्वारा जब मानव समाज की व्यवस्था की गई, तब समाज में सभ्यता और संस्कृति के विकास की आवश्यकता प्रतीत हुई। प्रथम तीर्थंकर ने क्षमा आदि दश गुणों के
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