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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सुवर्ण, चांदी, धन धान्य, खजाना, फर्नीचर, वस्त्र, बर्तन आदि । (2) आभ्यन्तर (आत्मा में उत्पन्न दोष) परिग्रह- चौदह भेदों में विभक्त है (1) मिथ्या श्रद्धान, (2) क्रोध, (3) अभिमान (4) मायाचार, (5) लोभ या तृष्णा, (6) हास्य या मजाक, (7) रति-लोलुपता, (8) अरति-द्वेष भाव, (9) शोक या चिन्ता, (10) भयउद्वेग, (11) घृणा, (12) स्त्री वेद, (13) पुरुष वेद (14) नपुंसक वेद । धर्मशास्त्रों में बहिरंग परिग्रह-10 प्रकार और अन्तरंग परिग्रह-14 प्रकार, कुल 24 प्रकार परिग्रह कहे गये हैं। परिग्रह के पात्र :
जिस प्राणी के मोहकर्म का उदय होता है उसके अन्तरंग में वस्तुओं के प्रति अहंकार-ममकार भाव अवश्य उत्पन्न होता है और अन्तरंग में भाव होने पर बाह्य, धन, सुवर्ण, महल आदि पदार्थों को एकत्रित करने का प्रयत्न अवश्य करता है। जैसे नृपति, व्यापारी आदि। जिस व्यक्ति के हृदय में धन आदिएकत्रित करने की तीव्र इच्छा है, परन्तु बाह्य में उसके पास कुछ भी नहीं है मात्र लंगोटी है, तो वह बहुपरिग्रही है जैसे भिखारी, याचक आदि । जिस व्यक्ति के हृदय में बाह्य धन-मकान, राज्य, सेना, खजाना आदि सब कुछ है, परन्तु आत्मा में बाह्य पदार्थों के प्रति मोह - माया-अहंकार-ममकार आदि दोष कुछ भी नहीं हैं वे मोह माया रहित, परिग्रह से हीन पवित्र आत्मार्थी हैं, वे सन्त जल से भिन्न कमल की तरह निर्दोष रहते हैं। जैसे भरत चक्रवर्ती। जो सन्तशिरोमणी आत्मा में मोह माया तृष्णा से हीन हैं और बाह्य में भी कुछ वस्तु भी नहीं रखते हैं, आत्म साधना में ही लीन रहते हैं जैसे दिगम्बर साधु । वे दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित हैं।
इस वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि मूर्छा या तृष्णा यह अन्तरंग परिग्रह प्रबल है, इसके कारण ही मानव जगत की वस्तुओं को समेटता फिरता है, कभी भी सन्तोष को प्राप्त नहीं होता । जैसे एक भिखारी के पास कुछ भी पैसा नहीं था, वह सोचता है कि बाजार में मांगने से यदि एक रुपया मिल जावे, तो मैं सुखी हो जाऊँगा। यह विचार कर वह बाजार में मांगने जाता है तो उसे एक रुपया मिल जाता है, फिर उसकी तृष्णा बढ़कर 10 रु. पर हो जाती है, 10 रु. मिलने पर तृष्णा 100 रु. पर चली जाती है। इस तरह वह चक्री के पद पर भी चला जाता है तो भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं हाती, वह दुखी ही बना रहता है । एक हिन्दी के कवि ने इसी दृष्टान्त को व्यक्त किया है। "जब एक हुआ अब दश होते, दश हुए तो सौ की इच्छा है, सौ पाकर भी यह सोच हुआ, अब सहस्र हों तो अच्छा है। वह इसी तरह बढ़ते-बढ़ते चक्री के पद पर पहुंचा है।" फिर भी सन्तोष नहीं पाता, ऐसी यह उत्पन्न तृष्णा है।
जब तक हृदय में तृष्णा है, तब तलक प्रकाश (ज्ञान) नहीं होता,
हाँ, आयुनाश हो जाती है पर तृष्णा का नाश नहीं होता ॥ अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह (पदार्थ) का बुद्धिपूर्वक त्याग करने को अपरिग्रहवाद कहते है, अबुद्धिपूर्वक त्याग को परिग्रह त्याग की सीमा में नहीं लिया गया है । त्याग की दो कक्षाएँ होती हैं (1) आंशिक त्याग, या अणुत्याग, (2) सर्वांश त्याग या महात्याग। सेना, मकान, सुवर्ण आदि दश प्रकार के बाह्य पदार्थों का परिमाण करके उससे अधिक वस्तुओं में किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं करना परिग्रह परिमाण नामक आंशिक व्रत (अणुव्रत) कहा जाता है । इस विषय में आचार्य समन्तभद्र की वाणी है -
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