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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
तीर्थकर के जीवन का आदर्श
तीर्थकर भ. शांति, कुन्थु और अरह केवल धर्म के अवतार ही नही. राष्ट्रीयता के आदर्श भी थे । अतः जब हम उस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह विश्व प्राणियों का एक खजाना है जिसमें मानवरत्न भी हैं। ओर घोंघा वसंत भी हैं। देखा जाये तो स्थावर प्राणियों की अपेक्षा जंगमप्राणी श्रेष्ठ हैं, और जंगम प्राणियों में भी बाह्य तथा आंतरिक दृष्टि से मानव प्राणी श्रेष्ठ हैं इस श्रेष्ठता का कारण मानवता है। इस मानवता के कारण ही मानव - रत्न कहलाने के योग्य है । मानवता का विकास निम्न दो भावनाओं के बल पर होता है । 1. धार्मिक भावना और 2. राष्ट्रीय भावना । यद्यपि यहाँ पर भावना के उक्त दो भेद दर्शाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि व्यापक, सार्वभौमिक और उदार धार्मिकता के अन्तर्गत ही राष्ट्रीयता का पूर्णत: समावेश हो जाता है, तथापि मानव समाज के अनेक एकांतवादी व्यक्ति, धार्मिकता और राष्ट्रीयता में पारस्परिक विरोध समझ कर एकपक्ष
ही मान्यता प्रकट करने लगें और मानव समाज के एक अखण्ड मार्ग में पन्थ भेद न हो जावें अतएव मानवता के विकासार्थ उक्त भावनाद्वय का स्पष्ट कथन किया गया है। दूसरे शब्दों में मानवता के विकासार्थ मानव जीवन में धार्मिकता का और राष्ट्रीयता का समन्वय होना आवश्यक है। यदि मानव जीवन में दोनों सिद्धांतों का समन्वय हो तो वहां पर स्वतंत्रता, सदाचार, परोपकार स्वावलम्बन, व्यापार, शिक्षा, नागरिकता, संगठन आदि अमूल्य गुणों का समावेश हो सकता है और मानवता के विकास से जीवन शांतिपूर्ण तथा उन्नत हो सकता है। अन्यथा जीवन में उल्लिखित साधनों का अभाव होने से पुरुषार्थत्रय की सिद्धि पूर्वक मानव की मुक्तिसाधना सिद्ध नहीं हो सकती है जो कि मानव का अन्तिम उद्देश्य है। तीर्थकर भ. शांति. कुन्थु और अरह के जीवन में ये दोनों भावनायें मूर्तिमान हो चमकती है । इसलिए इन पर यहाँ गौर करना जरूरी है ।
यदि अन्धविश्वासी संकुचितमनोवृत्ति वाला कोई व्यक्ति अपने को महान् धर्मात्मा समझता हुआ राष्ट्रीयता को धर्मविरूद्ध जानकर नहीं अपनाता है तो उस व्यक्ति की धार्मिकता पूर्ण नहीं, स्थिर नहीं, सत्यनिष्ठ नहीं और वह व्यक्ति इस लोक में अपूर्ण धार्मिक जीवन को स्थिर तथा उन्नत करने में समर्थ नहीं है। ऐसे व्यक्ति आत्म साधना और आत्मबल से समाज, देश तथा विदेश में अपना व्यक्तित्व स्थापित नहीं कर सकते हैं।
इसी प्रकार एकान्त राष्ट्रीयता का पुजारी कोई व्यक्ति धार्मिकता का तिरस्कार करता है या उसको राष्ट्र हित में बाधक समझता है तो उसकी राष्ट्रीयता पूर्ण नहीं, स्थिर नहीं और व्यापक नहीं है। वह व्यक्ति देश को स्वतन्त्र, सुरक्षित, स्वस्थ, उन्नत और शिक्षित करने में समर्थ नहीं हो सकता अर्थात् उस व्यक्ति की अधूरी राष्ट्रीयता उसे सच्चा देश सेवक या देश का नेता नहीं बना सकती है।
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वस्तुतः धर्म मित्र के द्वारा ही प्रत्येक प्राणी अपना कल्याण करने में सर्वथा स्वतंत्र है, अधिकारी है। राष्ट्रीय भावों में इतनी उदारता नहीं है, वहां तो सीमित क्षेत्र- द्रव्य- काल में ही रक्षण की भावना निहित है । आचार्य उमास्वाति ने मोक्ष शास्त्र में दर्शाया है : " मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि चसत्त्वगुणाधिक
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