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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सार्वभौम श्री पयूर्षण पर्व का महत्व एवं मूल्याँकन
धर्म की वीणा बजाता दिव्य पावन, पर्व पर्युषण हृदय के द्वार आया। भारतीय संस्कृति को जीवित या सुरक्षित रखने के लिए भारत की जैन पर्व परम्परा अपनी विशेष सत्ता रखती है। जो मानव समाज को जीवन शुद्धि के लिए समय पर प्रेरणा देती रहती है। पर्व का दूसरा शब्द पावन भी है, जिसका अर्थ पवित्र दिन होता है। पर्व अर्थात् वह मुख्य विशेष अथवा पवित्र दिन कि जिस दिन मानव आत्म शुद्धि करता है, सदैव के लिये नियम लेता है।पर्व का दूसरा अर्थ गाँठ भी है जैसे गन्ने की नीरस गांठ सरस गन्ने को उत्पन्न करती है । उसी प्रकार धार्मिक पर्व विषय रस हीन होते हुए भी आत्मरस को उत्पन्न करते हैं।पर्व मानव को प्रभावित करते हैं। यदि पर्व का निमित्त न हो तो मानव के हृदय में उत्साह तथा जागृति नहीं हो सकती है। विश्व के प्राय: सभी देशों में अपने अपने धर्म तथा संस्कृति के अनुसार पर्वो की मान्यता है इन पर्वो में श्री पयूषण पर्व एक स्वाभाविक-अनैमित्तिक महा पर्व है जो अपनी विशेष सत्ता रखता है। अनादित्व -
मुख्यत: पर्व तीन प्रकार के है । (1) साधारण, (2) नैमित्तिक (3) नैसर्गिक । साधारण अष्टमी, चतुर्दशी आदि । नैमित्तिक रक्षाबन्धन दीपावली आदि । नैसर्गिक-पयूर्षण पर्व इस कारण स्वाभाविक है कि अन्य पर्वो की तरह इसके उदय या जन्म का कोई कृत्रिम निमित्त नहीं है, न किसी महापुरुष की जीवन काल की विशेष घटना का कोई आधार है। इसका सम्बन्ध तो अनादि परिवर्तनशील कालचक्र के साथ है । विद्वानों की परम्परा से तथा धार्मिक पर्वो से, कालचक्र के साथ इस महा पर्व का यह सम्बन्ध जाना जाता है कि अवसर्पिणी (कल्पकाल का एक मुख्य विभाग) का तीसरा काल भोग युग का काल था ।उसका जब पल्य का आठवां भाग बराबर समय अवशिष्ट रह गया तब भोग युग की सभ्यता क्षीण होकर कर्म युग की सभ्यता का प्रारम्भिक विकास होने लगा था। भोग युग के कल्पवृक्षों की कान्ति क्षीण हो जाने से आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा की सन्ध्याकाल में सर्व प्रथम मानव समाज को एक साथ सूर्यास्त का दृश्य पश्चिम में और चन्द्रोदय का दृश्य पूर्व में दिखाई दिया। इस दृश्य से सहसा भयभीत मानवों को प्रथम कुलकर या मनुमहात्मा ने इस दृश्य का अभिप्राय समझाया। उसका अग्रिम दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा (एकम) कर्म युग का प्रथम दिन प्र. सप्ताह, प्र. पक्ष, प्र. मास, प्र. अयन, प्र. वर्ष, और प्रथम युग तथा प्र. शताब्दी थी। इसी दिन से कर्मयुग का व्यवहारकाल प्रारंभ हुआ था। भोग युग में मानव समाज के मध्य सांस्कृतिक विकास नहीं था परन्तु जब कर्म युग प्रारंभ हुआ और मानवों की संख्या बढ़ने लगी तो उनके सांस्कृतिक विकास एवं जीवन शुद्धि के लिए मनुमहात्माओं ने दशलक्षण धर्म, षोडश भावना और रत्नत्रय धर्म का उपदेश साधारण रुप से दिया । कुछ समय पश्चात् श्री ऋषभदेव आदि 24 तीर्थंकरों ने विशेष रुप से धर्म का उपदेश दिया। इस समय से पर्दूषण पर्व का विकास हुआ था।
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