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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
खण्ड-3 डॉ. दयाचंद्र साहित्याचार्य - प्राचार्य की लेखनी से निसृत
जिन भाषित रहस्य
कर्तृत्व- हिन्दी
कर्मयुग के प्रवर्तक आदि ब्रह्मा ऋषभदेव
अति प्राचीन इस आर्यावर्त में उन्नतिकाल के भोगभूमियुग में भोजनांग, वस्त्रांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा जीवन निर्वाह के योग्य सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त कर उनका मानव भोग करते थे इसलिए उस युग को भोगभूमि या भोगयुग कहते हैं और अवनतिकाल के कर्मभूमियुग में सर्वकल्पवृक्षों का अभाव हो जाने के कारण, लेखनकर्म, कृषिकर्म आदि छह कर्मो के द्वारा अपना यथायोग्य जीवन निर्वाह मानव करते थे उस युग को कर्म भूमि या कर्मयुग कहते हैं। यह काल का परिवर्तन स्वयमेव होता है।
इस विश्व में भोगयुग एवं कर्मयुग का परिवर्तन सदैव होता रहता है। जब भोगयुग (भोगभूमि) का अंत होने के अनंतर ही कर्मयुग (कर्मभूमि) का प्रारंभ हो रहा था, इस परिवर्तन काल में तीर्थंकर परम्परा के जन्मदाता प्रथम तीर्थकर ऋभषदेव ने अयोध्यानगरी के राजमहल में चैत्रकृष्ण नवमी के मंगलमय सुप्रभात में अवतार लिया। तीर्थंकर के सातिशय जन्म से पिता महाराजा नाभिराज एवं माता मरूदेवी के हृदय सरोवर हर्ष से परिपूर्ण हो गये। तीर्थंकर के आवश्यक अवतार के विषय में पुराणों में कहा गया है :
आचाराणां विद्यातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा । धर्म ग्लानिपरिप्राप्तं, उच्छयन्ते जिनेश्वरा : ॥
(रविषेणाचार्य: पद्मपुराण: पर्व -5) सारांश - जब जब इस भूमि पर सदाचार का नाश और दुराचार , अधर्म प्रचलित होने लगता है, कुरीतियाँ, अन्याय वृद्धिंगत होने लगते है, धर्म का दिनों दिन हास होने लगता है, उस भयंकर समय में तीर्थंकर जैसे महापुरूष अवतार लेते हैं । ऋषभदेव के सातिशय जन्ममात्र से ही लोक में स्वाभाविक आनंद की लहर व्याप्त होने लगी। इस समय देव समाज और मानव समाज ने एक साथ जन्म समय महोत्सव के द्वारा
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