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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मध्यभाग में चन्द्रमा के आ जाने पर महायोगी महावीर ने जृम्मकग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के तट पर स्थित रम्य उद्यान में शाल्मलिवृक्ष के नीचे महारत्नशिला पर प्रतिमा योग धारण कर शुक्ल ध्यान (आत्मध्यान) रूप चक्र से मोहनीयकर्म रूप शत्रु सेनापति का भेदन कर ज्ञानावरण दर्शनावरण- अंतराय इस कर्मरूप सेना को छिन्न भिन्न करते हुए आत्मनिधि निर्मलपूर्णज्ञान, विश्वदर्शन, अपरिमित बल एवं अक्षयसुख को प्राप्त (उदित) कर लिया | अब वे जीवनमुक्त, अर्हन्त, तीर्थकर भगवान के रूप में जगत्पूज्य हो गये । इस विषय
का प्रमाण
ऋजुकूलायास्तीरे शाल्मदुमसंश्रिते शिलापट्टे ||11|| अपराह्ने षष्ठेनास्थितस्य खलु जृम्मिका ग्रामे | वैशाखसितदशम्यां हस्तोतरमध्यमाश्रिते चन्द्रे | क्षपक श्रेण्या रूढस्योत्पन्नं के वलज्ञानम् ॥12 ॥
(निर्वाण भक्ति श्लोक 11 - 12 )
पूर्ण विशद ज्ञान विकसित हो जाने पर ही ज्ञानी व्यक्ति विश्वकल्याणकारी उपदेश देने का अधिकारी हो सकता है इस प्राकृतिक नियोग के अनुसार अर्हन्त महावीर तत्वोपदेश देने के अधिकारी सुयोग्य प्रवक्ता हो गये । अत: देवेन्द्र की आज्ञा से वैश्रवणदेव ने सर्वप्रथम विहार प्रान्तीय राजगिरीक्षेत्र के समीप विपुलाचल नामक पर्वत पर एक योजन विस्तृत गोल विस्तार वाले समवशरण की रचना कर दी । समवशरण उस विशाल सभा का नाम है जहाँ से धर्मतीर्थ का प्रवर्तन होता है, और जिसमें बिना भेदभाव के प्राणीमात्र का संरक्षण, शरण और अन्वेषण प्राप्त होता है। उसमें धर्मापदेश सुनने का सब ही को अधिकार प्राप्त होता है। इस कारण उसके चारों ओर बारह विभाग होते है - (1) मुनिगण, (2) वैमानिक देवांगना, (3) आर्यिका एवं श्राविका, (4) ज्योतिष्कदेवांगना, (5) भवनवासी देवियां, (6) व्यन्तरदेवियां, (7) व्यन्तरदेव, (8) भवनवासी देव, (9) ज्योतिष्कदेव, (10) वैमानिक देव, (11) मनुष्यगण, (12) पशु पक्षी दल ।
इन बारह उपसभाओं के मध्य में गन्धकुटी होती है जिसपर तीर्थकर प्रवक्ता का आसन रहता है। इस प्रकार भ.महावीर के समवशरण की सामग्री सम्पूर्ण रूप से सज्जित हो चुकी थी । परन्तु उनके समवशरण का कोई मुख्य गणधर न था। जो कि श्री महावीर के गम्भीर सिद्धांतों या दार्शनिक तत्वों को अपने हृदयस्थ कर अक्षरात्मक भाषा द्वारा मानवों के हृदय तक पहुँचा सके और विविध शंकाओं का समाधान कर सके । अत: मुख्यगणधर के अभाव में भ. महावीर का दिव्य उपदेश 66 दिन तक स्थगित रहा ।
आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के शुभदिन देवराज के सत्प्रयास से विहार प्रान्तीय गौतम ग्राम निवासी गौतम गौत्रीय इन्द्रभूति पुरोहित संस्कृतज्ञ विद्वान को प्रधानगणधर पद पर आसीन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसलिए यह दिन 'गुरूपूर्णिमा' के नाम से पर्व के रूप में प्रसिद्ध हो गया। प्रधानगणधर पद पर श्री इन्द्रभूति के आसीन होने पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रातः काल सूर्योदय के समय उसकी किरण के साथ ही महावीर ने दिव्यवचन रूपकिरणों से प्राणियों के मोहान्धकार को भेदन कर मानस पटल में प्रकाश करना प्रारंभ किया । इसलिए इस दिवस को 'श्रीवीर शासन जयंती पर्व' कहा गया है।
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