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किरण १]
पत्रकार स्व० श्री देवकुमार जैन
सन्तापी और हिंसाप्रिय एवं शैव होना किस जैनग्रन्थ में देखा है। यदि वह अपने पुराण के अनुसार कह रहा है तो इसका उत्तरदायित्व हम पर नहीं है। हां इतना अवश्य पूछेगे कि क्या शैव लोग गो-ब्राह्मण सन्तापी हुआ करते हैं ?" ( मीठी चुटकी ! ) अन्त में पुराणों के पचड़े में नहीं पड़ने की प्रार्थना करते हुए वे लिखते हैं कि "अब वाद विवाद का समय गया, आजकल तो परस्पर वात्सल्य भाव की आवश्यकता है। इन्हीं वाद विवादों ने हिन्दू और जैनों में ऐसा वैमनस्य डाल दिया था कि एक दूसरे का मुह भी देखना नहीं चाहते हैं। उस पुराने बैर-वृक्ष की लता अब सूख चली है उसे फिर लहलहाने की क्या आवश्यकता है। आइये हम-बार एक अहिंसा ही का उद्देश्य लेकर मिल जुल कर काम करें और भारतवर्ष से एकता की हवा से यहाँ के पुराने फूट तथा वैर वृक्ष को जड़ से उखाड़ कर फेंक दें।"
किसी के कटु आक्षेप से देवकुमार बाबू का कोमल चित्त तिलमिला नहीं जाता था। ऐसे अवसर पर बड़ी शान्ति और धीरता से वे काम लेते थे। समालोचना के संबन्ध में उनकी बड़ी विशद धारण थी। 'समालोचक बनना सहज नहीं है।' शीर्षक लेख में स्वयं लिखते हैं"श्राजकल जिसे देखिए वही समालोचक बनकर डाक्टर जौनसन की कुर्सी पर बैठना चाहता है, परन्तु उसकी अाशा दुराशा मात्र हो जाती है क्योंकि यथार्थ समालोचक होना बड़ा कठिन है। अाजकल के समालोचक समालोचना के पद में अपने दिल का बोखार तथा पुरानी गही हई अदावत निकालते हैं जिसका फल विपरीत होता है। समालोचना करते समय मर्यादा उल्लंघन करके अपने संकीर्ण हृदय का परिचय देना तथा अपनी विद्या के गर्व में प्राकर लेखनी की तीव्र छटा प्रदर्शित करना समालोचना का श्राद्ध करना है। ........" समालोचक का काम केवल दोष दिखलाने ही का नहीं है, वरन वह गुणों को भी प्रकट करता है।"
देवकुमार बाबू 'जैन गजट' के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय जीवन पर भी यथा समय प्रकाश डालते थे, जिससे उनका देश-प्रेम परिलक्षित होता है। कलकत्ते की एक लिपि विस्तार परिषद् की वार्षिक रिपोट पर सन्तोष प्रकट करते हुए तथा उसकी सहायता के लिए हिन्दी प्रेमियों से अपील करते हुए आपने लिखा था-"देशोन्नति के लिए तीन बातों का होना परमाश्यक है एक तो देश भर का एक धर्म होना चाहिए दूसरे देश भर की एक भाषा तथा लिपि होनी चाहिए, तीसरी बात देशभर में एक राज्य होना चाहिए । ".."एक भाषा और एक लिपि प्रचार के विषय में यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि भारतवर्ष में राष्ट्रीयता का मौर देव नागरी अक्षर तथा हिन्दी भाषा ही के मस्तक पर बान्धा जा सकता है। अतः इसीके प्रचार में हम भारतवासियों को उद्योग करना चाहिए।" अभी हाल तक जो विषय इतना विवाद ग्रस्त बना हुआ था उस पर बहुत पहले ही पाप का यह सुलझा विचार सर्वथा श्लाघनीय है तथा आपकी दूरदर्शिता का परिचायक है।
सित र १९०४ के २२ वें अंक में जैन जाति की संख्या का ह्रास देखकर आपने हास का