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किरण १]
पत्रकार स्व० श्री देवकुमार जैन
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ऊपर के उद्धरण से विदित होता है कि जैनी भाइयों के शास्त्रोक्त श्राचरण नहीं करने से विद्वान् सम्पादक ने कितनी चिन्ता प्रकट की है।
समाज सुधार विषयक प्रश्नों में शिक्षा का प्रश्न उन दिनों मुख्य था । बालिकाओं को कौन कहे बालकों की शिक्षा का भी समुचित प्रबन्ध नहीं था । किन्तु बालकों को अधिकाधिक शिक्षित बनाने की दिशा में प्रयत्न शुरु हो गया था । बालिकाओं की शिक्षा की ओर लोगों का ध्यान अभी जाता ही नहीं था, उनमें यही मान्यता काम कर रही थी कि स्त्रियों को शिक्षित बना कर क्या होगा । जैन समाज से इस भाव को दूर करने के लिए देखिए उस मनस्वी ने क्या लिखा है:--
"स्त्री शिक्षा कितनी श्रावश्यक है, इसके प्रकाशित करने की श्रावश्यकता नहीं; क्योंकि हमारे वे जैनी बालक जिन्होंने एक मात्र श्री पद्मपुराण ही का स्वाध्याय किया है धड़ल्ले के साथ कह उठेंगे कि स्त्रियाँ वैसे ही गुणों से भूषित होनी चाहिए जैसे कि पुरुष और प्राचीन काल में बालक बालिकाएँ सब ही विद्या के भंडार से भरपूर रहते थे । • गाड़ी बिना दो पहियों के नहीं चल सकती इसी तरह गृहस्थ धर्म सुशिक्षित स्त्री और सुशिक्षित पुरुष के संयोग के बिना नहीं चल सकता 'बेमेल जोड़ी ने न मालून कितनों के घरों को तबाह कर डाला बेमेल जोड़ी ने भारत को गारद कर दिया । (जून १६०४ श्रंक १६ ) ।
श्रापने जुलाई १६०४ के १७ वें अंक में मालवा के पं० शिवशंकर शर्मा द्वारा लिखित 'सत्य भाषण' शीर्षक एक निबंध प्रकाशित किया और उस पर अपना निम्न लिखित एक सम्पादकीय नोट लगाया, जिससे श्रापकी सत्यप्रियता का आभास तो मिलता ही है, साथ ही यह भी पता चलता है कि आप अपने विद्वान् लेखकों को ऐसे उपयोगी विषयों पर लिखने के लिए कितना प्रोत्साहित किया करते थे:--
"प्यारे भाइयों ! सत्य वचन का अभ्यास नित्य करो। पंडितवर का उपरोक्त लेख सत्यता के सत्यरूप का सम्यक दर्शक है, इसको विचार कर अपने हृदय का भूषण बनाओ, यही लौकिक और पारमार्थिक उन्नति का मुख्य हेतु है ।"
भारतीय जीवन में तीर्थाटन पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। खासकर जैन मतावलम्बी इसे धर्माचरण का एक मुख्य अंग मानते हैं। पर तीर्थक्षेत्रों में यात्रियों को अनेकानेक कष्ट सहने पड़ते हैं । उस समय अखिल भारतीय जैन महासभा ने तीर्थक्षेत्रों की देखभाल के लिए एक समिति संघटित की थी। इस समिति के कुप्रबंध से तीर्थक्षेत्रों की दशा अच्छी नहीं थी । परदुःख कातर सम्पादक का हृदय विगलित हो उठा। उन्होंने जुलाई १६०४ के १५ वें अंक में जैन सम्प्रदाय का ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा:- " पाठक गए ! जिस समय हमारा मन अपनी वेगवती के बहाव में कभी तीर्थक्षेत्रों की व्यवस्था से टकराता है तो थोड़ी देर के लिए वहीं रुक