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भास्कर
भाग १८
ऊपर लिखित आदर्श वाक्यों से स्पष्ट विदित होता है कि उक्त पत्रिका का ध्येय जाति और धर्म की सेवा था। अब देखना यह है कि चरितनायक के सम्पादकत्व में इस ध्येय की पूर्ति किस हद तक हुई तथा उन्होंने अपने कार्य में नीतिमत्ता का स्तर कितना ऊँचा रक्खा।
किसी पत्रिका में सम्पादकीय के अतिरिक्त सम्पादक की अपना कहने योग्य और कोई वस्तु नहीं होती। परन्तु, प्रकारान्तर से, पत्रिका में प्रकाशित सभी सामग्री उसीकी होती है, कारण उन सभी चीजों के लिए वह पूर्ण उत्तरदायी है तथा उन चीजों को उसकी पूर्ण सहमति प्राप्त रहती है। पत्रिका में विषय का चयन, रचनाओं का संकलन, उनका क्रम, सजधज आदि सभी चीजों से संपादक की रुचि और श्रादर्श प्रियता का परिचय मिलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नाम रूपात्मक जगत में आकाश का अस्तित्व सर्वत्र विद्यमान रहता है उसी प्रकार पत्रिका के सभी स्थलों में सम्पादक विद्यमान रहता है। इस मूल भूत सिद्धान्त को सामने रखकर आगे की पंक्तियों में यह स्पष्ट करने की चेष्टा की जायगी कि पत्रिका ने अपनी प्रकाशित सामग्री रूपी श्री से जैन सम्प्रदाय को कितना कीर्तिमान बनाया है।
देवकुमार बाबू ने जैन गजट के लिए जो सम्पादकीय लेख लिखे उनसे उनके व्यक्तित्व पर पूरा प्रकाश पड़ता है। उन सम्पादकीय लेखों का दिग्दर्शन करा देना यहाँ अभीष्ट जान पड़ता है, ताकि तत्कालीन समाज की गतिविधियों की जानकारी हो और यह भी मालूम हो जाय कि समाजिक आन्दोलन को दृढ़ करने के लिए उस मनस्वी ने कितना प्रयत्न किया था। जैन गजट के प्रकाशन काल में भारत में राष्ट्रीय नव चेतना का प्रार्विभाव हो चुका था, यद्यपि इसे पल्लवित तथा पुष्पित होना अभी बाकी था। इस राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठ भूमि को मजबूत बनाने के लिए गण्यमान्य नेताओं की दृष्टि सामाजिक सुधार पर लगी हुई थी। आर्य समाज, ब्रह्म समाज
आदि के प्रयत्न इसी दिशा की ओर संकेत करते हैं। जैन सम्प्रदाय के विद्वान् , कवि, लेखक, माधु और मुनि श्रादि अपने मतावलम्बियों के अन्दर आये हुए सामाजिक कुप्रभाव को दूर कर धर्माचरण की ओर लगा देने का उन दिनों प्रयत्न करते थे। चरितनायक ने जून, १९०४ के एक सम्पादकीय में लिखा है:
"जब हम यह विचार करते हैं कि हम 'जैनी' नाम करके प्रसिद्ध होते भी जैनी के करने योग्य कार्यों से क्यों अपने को सहस्रों कोस हटा पाते हैं तो हमारे खेद की सीमा नहीं रहती। वर्तमान काल के चाल व्यवहार की जिस समय प्रचीन शास्त्रोक्त चाल व्यवहार से तुलना की जाती है, तो हमें स्वप्न-सा प्रगट होता है। परन्तु जब उनकी उत्तमता पर लक्ष्य दिया जाता है और जब उन चाल व्यवहारों की कुछ कुछ झलक विदेशियों में दृष्टि पड़ती है तो यही कहना पड़ता है कि हम उन्हीं उत्तम प्राचीन वाक्यों को अपना धार्मिक व सामाजिक कानून मानते संते भी उस पर अमल करने के अतिरिक्त उसके विरोधी मार्गपर गमन कर अपने 'जैनी' नाम में बहा लगा है।