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भागमधरसूरि
मनोमंथन हेमचंद्र, जिसके लिए यह सब हो रहा था, गहरे सोचमें पड़ गया ! मुझे इतनी छोटी उम्र में ही क्यों माया के कोमल बन्धनमें बाँधा जा रहा है ? क्या संसार में जन्म लेनेवालेको ब्याह करना ही चाहिए ! क्या जीवन का यह अनिवार्य कर्तव्य है ! क्या ब्याह के बिना सुख नहीं है ! इस गुळामी से क्या फायदा १ नहीं, मुझे यह ममता का बन्धन महीं चाहिए ! मैं तो गगन में मुक्त विहार करनेवाले पक्षी जैसा बना रहूँगा। मैं वायु की तरह निबन्ध रहूँगा। मैं अपनी स्वतन्त्रता को नष्ट होने देना नहीं चाहता ।
मातापिता से अनुनय एक दिन प्रातः काल हेमचंद्र मातापिता को नमस्कार कर मौन खड़ा रहा। मातापिताने पूछा, 'वत्स, तुम उदास क्यों हो ! कुछ कहना चाहते हो ! अब तो तुम्हारा विवाह निकट आ रहा है, उदास रहोगे तो कैसे चलेगा । जो तुम्हारी इच्छा हो से हमें बताओ, हम अवश्य ही तुम्हारा हित करेंगे।
हेमचन्द्रने कहा-'पिताजी ! पिताजी ! कृपया मुझे इस बन्धनमें मत डालिये। मेरा मन इस पथ पर जाने को तनिक भी उत्सुक नहीं है ! मैं इन जंजीरों में बँधना नहीं चाहता। मेरी स्वतंत्रता मत छीन लीजिये। मैं विवाह-बन्धन को नहीं निभा सकुंगा! मेरे हृदय में त्यागी बनने की अभिलाषा है, अतः इस झंझट को नहीं सम्हाल सकूँगा। भाप मेरे हितैषी हैं, मुझे शादी के बखेड़े में न डालिये।
यह बात सुनकर पिताजी तो कुछ पिघले परन्तु माताजीने कहा "पुत्र ! तुम आज्ञाकारी हो ! मैं सदा तुम्हारा भला ही चाहती हूँ !