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माग्रमधरसूरि
आज ही ज्ञात हुआ। ऐषी बेजोड़ विद्वता होते हुए भी पूज्य भागमाद्धारकजी जहां तहाँ विद्वत्ता का प्रदर्शन करने के लिए संस्कृत नहीं बोलते थे। सारा व्यवहार प्रचलित देश्य भाषाओं में ही करते ये। इस गांभीर्य का ज्ञान सर्व प्रथम हिन्दु विश्व विद्यालय में ही हुआ।
बंगला विहार
पूज्यपाद आगमाद्धारक श्री ने सोचा कि बंगाल की ओर मो विहार करमा आवश्यक है। यदि बहा रहनेवाले और व्यापार के लिए जानेवाले नये जैनों में जैनत्व के धार्मिक संस्कार नहीं रहेंगे तो बड़ी कठिनाई होगी। बंगाल में पाश्चात्य संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव था। बंगालकी जनता बहुत ही बुद्धिशाली परन्तु आलसी थी। अंग्रेजी शिक्षा की मात्रा वहाँ अधिक थी।
वहाँ बसनेवाले जैन जमींदारों और राजाओं जैसे थे। यति लोग वाहन का उपयोग करते थे। अतः वे लोग वहाँ जाते और धर्म के कुछ संस्कार देते थे, परन्तु ये यति लाग कंचन का खुल्ल खुल्ला स्वीकार करते और अपने पास रखते थे। इतना ही नहीं, उनके कामिनी का संग भी न्यूनाधिक मात्रा में होता था। फलतः जैसी स्वच्छ उज्जवल छाप पड़नी चाहिए वैसो उस वर्ग की नहीं पड़ सकती थी।
कलकत्ते में रहनेवाले मरुधरवासी एवं गुर्जरवासी जेना में से कइयों ने मरुधर और गुजरात में पूज्य भागमे द्वारकत्री के दर्शन किए थे, तथा समाचारपत्रों के माध्यम से पूज्यत्री की ख्याति उक्त प्रदेश में व्यापक बन गई थी।