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मागमधरसरि
अपवाद था। उतने समय के लिए अर्धपद्मासन नहीं रहता था। परन्तु रात्रिको संथारा-शयन का त्याग कर दिया था सारी रात मर्कपद्मासन-स्थिति में ही आत्मचिंतन करते थे। - आहार, औषधि, उपधिका अन्तःकरण से त्याग किया। मुख के पास ओषधि ले जाई जाती परन्तु वे ग्रहण नहीं करते थे, संकेत से इनकार कर देते। जीम बराबर थी, वाचाशक्ति स्पष्ट थी। चैतन्य स्मृति युक्त था, तथापि पूज्यश्री ने संपूर्ण मौन अंगीकार किया था। मौन और ध्यान ये दो ही विषय पूज्यश्री के जीवन में रहे थे। पूज्यश्री की यह अवस्था देख कर देखनेवाले का बड़ी विहलता होती, परन्तु उन्हें स्वयं कुछ नहीं लगता था। उनके मुख पर तो ऐसे अवसर पर केवल साधना का स्मित ही लहराता था।
वैशाखी पूर्णिमा गई। कृष्णापक्षकी प्रतिपदा, दूज, तीज और चौथ गई, पंचमी आ पहुँची। आत्माराम में रमते हुए इस महात्मा की मनोदशा शुक्ल-शुक्लवर होती गई, ध्यानाग्नि में कर्म भस्मसात् होने लगे।
उस एक शिष्यको याद आया-महाराजजी ने कहा था कि 'पंचमी की छठ नहीं होगी' तो क्या भाज ही महाराजश्री दुनिया से चले जाएँगे? उस शिष्यने अन्य मुनियों से भी बात की। सब चौंके 'क्या आज ही पूज्य श्री विदा ले लेंगे?'
दीपक बुझ जाता है । नवकारसी का समय गया, पारिसी, साध-पोरिसी का समय भी बीत गया। पुरिमड्ढ का समय भी जाता रहा। पच्चक्वाण में कोई