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आगमधर ि
आराधना और भावना
रेगिशय्या पर भी सुन्दर आराधना करते थे। इस महा पुरुष श्रेष्ठ ने ऐसी विकट व्याधि को हालत में भी 'आराधना मार्ग' ग्रन्थकी रचना की है । वे जीवन की चरम दशा में भी आराधना के उत्तम लक्ष से विचलित नहीं हुए ।
पूज्यश्री के मुख से कई बार 'धन्यास्ते सनत्कुमाराद्या: ' ये शब्द स्पष्ट उच्चरित है।ते सुनाई देते थे । 'धन्य है महामुनि सनत्कुमारादि के ' जिनके पास महारोगों को मिटाने की अचिंत्य शक्ति होते हुए भी अपने शरीर में स्थित सोलह सोलह महारोगों को नहीं मिटाया । पूज्य आगमाद्धारकजी इस प्रकार के निर्वेदपूर्ण भाव रखते हुए भयंकर वेदना सहन करते थे । वे 'ना जगतस्त्वम्' और 'ना ते जगत्' – 'तू जगत का नहीं है और जगत तेरा नहीं" ऐसे महान् वचनों का स्मरण कर अपने मन को वैराग्य पूर्ण रखते थे । उन में ऐसी अपूर्व जागृति थी कि जाते जाते (अन्तिम समय में ) किसी शिष्य आदि के प्रति या किसी संस्था के प्रति माह पैदा न हो जाय, तो भी उन्हें एक बात का दुःख सताता था । 'इस संयम कीं यदि मुझे देवलेाक मिला तो मेरे इस चारित्र धर्म का क्या होगा । क्या मै चारित्र धर्म खा बैठूंगा ? वर्षों के परिश्रम से सुरक्षित रखी हुई यह विरति की आराधना क्या जाती रहेगी ? हे भगवन् ! जहाँ मुक्ति मिल सके उस जगह जा सकूँ तो बहुत अच्छा हो । मुझे देवलोक की इच्छा नहीं है । कभी कभी इस तरह के उद्गार भी निकलते थे । चारित्र की कैसी लगन लगी होगी 2- कैसी प्रबल इच्छा होगी चारित्र की ।
आराधना के प्रताप से