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आगमधरसरि
काम पीछे छूट जाते हैं। उनकी आशा की मीनारें अधूरी ही रह जाती हैं । अन्तिम समय में अधूरे अरमानों का दुःख उनके हृदय को व्यथित कर देता है। इस में जिजीविषा बहुत ही सताती है।
पू. महात्मा आममाद्धारकश्री का कोई कार्य अधूरा नहीं रहा। जो भी कार्य हाथ में लेते-चाहे वह आगममदिर जैसा महान कार्य हो चाहे पाठशाला जैसी छोटी सस्था का छोटा सा कार्य हो-उसे पूरा ही करते। अपने इस विशिष्ट स्वभावगत गुण के कारण उनका कोई कार्य अधूरा नहीं रहा।
आशा की मीनारें चुनवाने या बड़े बड़े अरमान पालने का तो पूज्यश्री के लिए कोई प्रश्न ही नहीं था । आशा तो बेचारी उनकी दासी बन गई थी। इस महात्मा की दृष्टि में जीवन और मरण एक से थे। शरीर की परछाई किसी को दुःख नहीं देती; इस महात्मा को मरण भी जीवन की परछाई जैसा लगता था, अत: उन्हें दुःख क्यों होता ?
महा व्याधि वायु की व्याधि बहुत व्यथा उत्पन्न करती थी परन्तु महात्मा उसका सख्त सामना करते थे। जो महात्मा जीवन भर शासन की सुरक्षा के लिए अनेक लोगों से टक्कर लेते रहे वे भला ऐसी भौतिक कर्म-जन्य व्याधि का सामना करने में हिचकिचाते ?
अन्य कार्यों से उन्होंने निवृति ग्रहण कर ली, परन्तु ज्ञान और ध्यान से निवृत्त नहीं हुए, ज्ञान और ध्यान में तो और भी जागृत एवं तत्पर बने । पुराने प्रन्थों का स्वाध्याय और नये प्रन्थों की रचना भब भी जारी थी।