Book Title: Agamdharsuri
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Jain Pustak Prakashak Samstha
Catalog link: https://jainqq.org/explore/032387/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सू ताम्रपत्र आग जीवधमानजन -: प्रकाशक: EMAMALARIANTHATIRMER श्री जैन पुस्तक प्रचारक संस्था, गोपी पुरा, सूरत. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानस्थ स्वर्गत आगमोद्धारक आचार्य देवश्री i आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजश्रीके जीवनमें घटित अनेक प्रसंगों की जानकारी तथा मुख्य प्रसंगों की प्रतिकृतियों सहित आगमधर-सार . - नामक ग्रंथ विक्रम संवत् २००४ माघ शुक्ला ३ शुक्रवार के रोज सूरत के श्री बर्द्धमान जैन ताम्रपत्र-आगममन्दिर की पूज्य श्री के वरद करकमलों द्वारा प्रतिष्ठा का २५ वर्ष संपूर्ण होने के उपलक्ष में आज विक्रम संवत् २०२९ माघ शुक्ला ३ मंगलवार के मंगल प्रभात में प्रकाशित हो रहा है। Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः आगमोद्धारक-संग्रह : २८ गमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्म आगमधर - सूरि मूल ले०-पृ० क्षमासागरजी महाराज अनुवादक :- प्रो. बाबूलाल टी. परमार एम. ए; साहित्यरत्न एम. टी. बी. आर्ट्स कोलेज, सूरत. : प्रकाशक:श्री जैन-पुस्तक प्रचारक-संस्था गोपीपुरा, सरत. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...प्रकाशक: झवेरी शांतिचंद छगनभाई श्री जैन पुस्तक प्रचारक संस्था गोपीपुरा, सूरत. प्रतियां ५००] प्रथम संस्करण [मूल्य १०-०० विक्रम संवत् २०२९ ] वोर संवत् २४९९ [ आगमाद्वारक संवत् २३ :प्राप्तिस्थान : जैन आनन्द पुस्तकालय गोपीपुरा, सूरत. : मुद्रक: वसंतलाल रामलाल शाह प्रगति मुद्रणालय, सपाटिया चकला, सूरत Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक आनंदसागर सूरीश्वरजी महाराज जन्म : विक्रम स. १९३१ आषाढ वदी)) कपडवंज दीक्षा : वि. सं. १९४७ माघ सुदी ५ लींबडी पंन्यास पद : वि. सं. १९६० आषाढ सुदी १३ अहमदाबाद आचार्य पद : वि. सं. : १९७४ वैशाख सुदी १० सुरत निर्वाण : (स्वर्गवास) वि. सं. २०२६ वैशाख वदी ५ शनिवार सुरत, Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उद्देश्य, रहस्य, रूपरेखादि व्यक्त करनेवाली भूमिका. प्रथ की झाकी है तथा परंपरा से सभी लघु-गुरु ग्रंथों में होती है । तिहासिक, भौगोलिक, वैज्ञानिक, नैवधिक, जीवनचरित्र, उपन्यास नाटक आदि तथा वैद्यकीय, ज्योतिषिक, नैतिक या धार्मिक-किसी भी प्रकार के प्रथ पढ़ने से पहले अधिकतर भूमिका पढ़ने से ग्रंथ का विषय-दर्शन होता है । 'श्री आगमधर-मूरि' नामक इस ग्रंथ में पूज्य भागमोद्धारक आचार्य देवश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज का संक्षिप्त जीवनचरित्र है। इस प्रन्थ को पढ़ने में सहायक हो इस हेतुपूर्वक पूज्य आचार्य देवेशका संक्षिप्त परिचय - पूज्य श्री मन वचन तथा काया के योगत्रय से श्रेष्ठ जैनागम के प्रकाशन में सदा कार्यरत रहते थे। आप योग तथा अयोग (योगायोग) के विवेक में निपुण, गांभीर्य गुणगौरवयुक्त भागमोद्धारक बिरुद धारण करनेवाले थे। मापने इस दुषमकाल में ( कठिनकालमें) स्वयं में महानाद शब्द को सत्य सिद्ध किया है। वर्तमानयुग में अर्धपद्मासनावस्था में निर्वाण प्राप्त करनेवाले परम पूज्य आगमोद्धारक आचार्य देव श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज इस तरह अपने कार्यों से जगतप्रसिद्ध हैं, फिर भी आपका परिचय दिया जा रहा है। आप जैन वाङमयका उत्कर्ष साधने में तथा सिद्ध करने में अविरत कार्य प्रवृत्त रहते थे। उसी तरह पूर्वाचार्यों की प्रौदकृति का पठन-पाठन तथा संपादन करने में तल्लीन रहते थे। आपने विविध विषयों से संबधित छोटी-बड़ी भनेक कृतियों रची है। आपने जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनता के प्राणस्वरूप आगमों की सुरक्षा के लिए उन्हें भारतभर में सुप्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र तथा सूर्य पूर में श्रमणभगवान महावीर परमात्मा के २५०० वर्ष के शासनकाल में अभूतपूर्व श्री वर्धमान जैन भागममदिर तथा श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्रागम मंदिर का निर्माण कर उनमें क्रमशः शिलात्कीर्ण तथा ताम्रपत्रारूढ करवाया। आगम-भगवान जिनेश्वर की वाणी-इस कलिकाल में भी जिनेश्वर भगवान के विरहकाल में ससारसमुद्र पार करने में नौका समान सहायक है। सुदेव-मुगुरु तथा सुधम रूपरत्नत्रयी की अखंड आराधना के लिये आगम अति आवश्यक हैं । यही आगम प्राचीन काल में कंठस्थ रहते थे, (भद्रबाहुस्वामीकी प्रतिकृति देखिये) महान शक्तिशाली गीतार्थ आचार्य भगवान तथा समर्थ विद्वान मुनिवर ऐसी अप्रतिम शक्ति के स्वामी थे। कालके विषम प्रवाह में पूर्वस्थिति न रहने से कालान्तर में समय के पारखी गीतार्थ पूज्य देवर्द्धिगणि-क्षमाश्रमणने आगोको लिपिबद्ध किया! (देवद्धिंगणि-क्षमाश्रमणकी प्रतिकृति देखिये) ये आगम कई सदियों तक ताडपत्रों तथा हस्तलिखित पाथियों में सुरक्षित रहे । वर्तमान मुद्रणकला के युग में आग़मोद्धारकजीने आगमों का संपूर्ण शुद्ध संशोधित करके अच्छे टिकाउ लेजर पेपर पर छपवाकर ४५ मूल आगमों की पेटिया बड़े बड़े शहरों में रखवायीं ( आगमाद्वारकश्रीकी प्रतिकृति देखिये ) आपने आगम आदि शास्त्रोंकी वाचनाएँ निम्नलिखित शहरों में दी। पाटण अमदावाद पालीताणा - रतलाम सुरत . , - कपडवंज Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय - - अनेक साधु-साध्वियोंने इन अमोल वाचनाका पूरा लाभ उठाया। श्री जैनानंद पुस्तकालय की ओर से अनेक छोटे-बड़े शहरों में ज्ञानभंडार स्थापित करनेवाले आपश्रीके जीवन के धार्मिक प्रसंगों में से मुख्य प्रसंग निम्नानुसार हैं। ज्ञानसंस्थाएँ १. सेठ देवचंद लालम'ई जैन पुस्तकाद्धार फंड सुस्त कि. स. १९६४ २. तत्त्वबोध जैन पाठशाला सुरत वि. सं. १९६८ ३. श्री आगमोदय समिति .. - भायणी वि. सं. १९७१ ४. श्री राजनगर (अहमदाबाद) जैन श्वे. मू. धार्मिक इनामी परीक्षा अहमदाबाद वि. सं. १९७३ ५. श्री जैन-आनंद पुस्तकालय सुरत वि. स. १९७५ ६. सेठ नगीनभाई मछुभाई जैन साहित्योद्धार फंड सुरत वि. स. १९८६ ७. श्री जैन आनंद ज्ञानमंदिर बामनगर वि. सं. १९९२ ८. श्री मानदसागरसूरीश्वरजी पाठशाला सुरत वि. सं. २००२ ९. श्री जैन पुस्तक प्रचारक संस्था सुरत बि. सं. २००५ तीर्थयात्राके छहरी' पालते हुए भव्य संघ वि. सं. १९६५ बंबई से अंतरीक्ष-पार्श्वनाथ सुरत निवासी स्व. संघवी अमेचंद स्वरूपचंद की ओर से वि. सं. १९७१ पाटन से भीलडीयाजी वि. स. १९७६ सुरत से पालीताणा (सिद्धाचलजी) सुरत निवासी . स्व. संघवी जीवनचंद नवलचंद की ओर से। वि. स. १९९४ जामनगर से रैवतगिरि तथा सिद्धाचलगिरि। जामनगर निवासी स्व. संघवी पोपटलाल धारसीमाई तथा स्व. संघवी चुनीलाल लक्ष्मीचंद की मार से। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनको बाजी लगाकर तीर्थरक्षण किये १. सम्मेत शिखरजी महातीर्थ पर बंगले का बनना रुकवाया। २. अंतरीक्ष-पार्श्वनाथ तीर्थ में दिगंबरो के मुकदमे में कोर्टद्वारा सत्यवादी तथा विजयी घोषित हुमे । ३. उदयपुर-केशरीयाजी तीर्थ में मूलनायकजी के मंदिरपर ध्वजादंड चढ़वाकर तीर्थ को तपागच्छीय जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजकों का तीर्थ सिद्ध किया। तीर्थोद्धार . १. मांडवगढ़ महातीर्थ', २. भापावर महातीर्थ, मालवप्रदेशमें धर्म का प्रचार तथा अनेक जिनमदिरोका जीर्णोद्धार करवाया । ... आपटीने राजाओंका भी प्रतिबोधित किया , __ मालवप्रदेशमें शैलानानरेश दिलीपसिंहजी महाराजको प्रतियोषित कर जीवदया का डंका बजवाया तथा समेलीया और चेडके राजाओंको भी प्रतिबोध किया। उसी तरह आप जैनशासन पर हुमे स्व-पर आक्रमण के प्रतिकार में सर्वप्रथम रहे। भापका सारा जीवन जैन- . शासनकी सेवामे हो व्यतीत हुभा। पालीताणामें करीब २५०० प्रतिमाजी का अंजनशलाका महोत्सव हुआ जिसमें ४०,००० चालीस हजार मानव समुदाय उमड़ पड़ा था। तेरह दिनों के इस महोत्सव काल में स्मशानघाट बंद रहा, किसीकी मृत्यु नहीं हुई। यह शासन का प्रभाव है। पूर्व भव के महा पुण्य से ही यह संभव है। सचमुच आपश्री के महान् पुण्योदय से ही ऐसा बन पाया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीवन आममसाहित्यसेवा, संघसेवा, तीर्थ सेवा तथा शासनको दीपानेवाले धार्मिक कार्य-उद्यापन, उषधान, दीक्षा, प्रतिष्ठा करवानेवाले तथा अंत समयमें पंचमकालमें अद्वितीय अंतिम आराधना करनेवाले पूज्यपाद आगमवाचनादाता, आगमपुरुषके उपदेशक, युगप्रधान सदृश, विक्रम संवत १९९९ माघ वदी २ को पालीताणास्थित मागमम दिरमें बिराजित प्रतिमाजी भादि की अंजनशलाका तथा माघ वदी ५ को प्रतिष्ठा; विक्रम संवत २००४ माघ सुदी ३ शुक्रवार को सुरतस्थित श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्रागममंदिर में विराजित १२० प्रतिमाजी भादिकी प्रतिष्ठा करनेवाले सुरतस्थित शेठ मछुभाई दीपचंद की धर्मशालामें विक्रम संवत २००५ के चातुमास में अपना अंतसमय नजदीक जानकर अंतिम आराधना हेतु 'भाराधना मार्ग' नामक ग्रंथ की रचना करनेवाले विक्रम संवत् २००६ वैशाख सुदी ५ से पंद्रह दिनो के अनशन पूर्वक भर्षपद्मासन मुद्रामें मौनावस्था में आघश्री विक्रम संवत २००६ वैशाख बी ५ शनिवार स्टा० टा० १६-३१ ( दोपहर के ४-३२) अमृत घडीमें अनन्य पट्टधर गच्छाधिपति आचार्य देवश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज के स्वमुखसे चतुर्विध संघकी उपस्थितिमें नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते करते निर्वाण को प्राप्त हुने। आपश्री के बालदीक्षित शिष्य मुनि श्री अरुणोदयसागरजी म. ने वि. सं. १९९१ मिगसर सुद १४ को दीक्षा ग्रहण की उस दिनसे पूज्यश्री के जीवनपर्यंत अनुमोदनीय सेवा की। गुरुदेवश्री आज तो हमारे बीच नहीं है फिर भी सुरतमें गोपीपुरामें श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्रागमम दिए, आज भी भापकी स्मृतिस्वरूप है। उसके सामने सरकारी स्पेशल भाईरसे श्री भागमाबारक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थाकी जगह में परम पूज्य आगमेाद्धारक गुरुदेवश्री के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया । तथा उसी जगह पर रु. ८८,००० की लागत से वने भव्य गुरुमंदिर में परम पुज्यश्री की ध्यानस्थ दशा में प्रतिमा बिराजमान की गई है। जिनकी आज्ञा में आज ४०० से अधिक साधु-साध्वी ज्ञान-ध्यान तपस्या आदिकी आराधना कर रहे हैं ऐसे अनन्य पट्टधर गच्छाधिपति आचार्य भगवान श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० ने १०,००० दस हजार मानव समुदाय के बीच गुरुदेवश्री की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की । पूज्य आगमोद्धारकभी का प्रेरणादायी जीवनचरित्र पाठके का मार्गदर्शक बने यही अभ्यर्थना । विक्रम संवत २०२९ श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्र आनममंदिर प्रतिष्ठा दिन माघ सुदी ३ मंगलबार, सुरत, आ० श्री आनंदसागरसूरीश्वरशिष्य गुणसागर प्रकाशक की ओर से यह हिन्दी अनुवाद कैसे प्रकाशित हुआ ? अवश्य कठिन प्रन्थ का प्रकाशन, लेखन और अनुवाद करना कार्य है । प्रकाशन और लेखन में एक भाषा का ज्ञान अपेक्षित होता है, परन्तु अनुवाद के लिए दो भाषाओं पर पर्याप्त अधिकार की आवश्यकता होती है। जैसे यदि मूल प्रन्थ गुजराती में हो और उसका हिन्दी में अनुवाद करना हो तो गुजराती एवं हिन्दी - दोनों भाषाओं व्याकरण का ज्ञान, और लाक्षणिक प्रयोगों एवं अन्य विशेषताओं Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ अभिव्यक्ति की क्षमता अनुवादक के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त धर्मगुरु के जीवन चरित्र के अनुवादक के पास धर्म विषयक ज्ञान तथा श्रद्धा का भी योग हो ता सेने में सुगन्ध समझिये। इन सब योग्यताओं की दृष्टि से प्राध्यापक बाबूलाल टी. परमार एम. ए. साहित्यरत्न को सर्वथा सक्षम देखकर उन्हें 'आगमधरसरि' (मूल गुजराती), ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का कार्य सौंपा गया। आप सूरतके एम. टी. बी. कॉलेज में पिछले सत्रह वर्षों से हिन्दी-अध्यापन (का कार्य कर रहे है। आपने 'अनेकान्त व स्याद्वाद' नामक अन्य का हिन्दी अनुवाद किया है और 'जैन धर्म सार' के हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवादा का शुद्धीकरण भी किया है। 'आगमधरसूरि' के प्रस्तुत अनूदित संस्करण के लिए प्राध्यापक महोदय का जितना आभार माने उतना कम है। आपने न केवल सुव्यवस्थित, सुन्दर, परिष्कृत हिन्दी में अनुवाद किया है, अपितु उसके प्रूफ-संशोधनादि का कार्य भी पूरी लगन के साथ निभाया है। ऐसे परिश्रमजन्य तथा दीर्घ समय माँगनेवाले कार्य को आपने सर्वथा निःस्वार्थ भाव से कोई पारिश्रमिक लिए बिना सम्पन्न किया है, अतः हम आपकी त्याग भावना की हृदय से सराहना करते हैं। ५० पू० आगमोद्धारक आचार्य देव श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न-प्रखर अनुरागी वैयावृत्त्य-परायण पू. मुनिराज श्री गुणसागरजी महाराजने आगमोद्धारक संग्रह के १ से ३० प्रन्यों को मुद्रित करवाने का भगीरथ कार्य पिछले २५ वर्षों में किया है। प्रन्यों की सूचि निम्नानुसार है : Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ तात्विक प्रश्नोत्तर सार्थ १६ तीर्थ कर पदवी सोपान २ उपांग प्रकीर्णक सूत्र विषयक्रम . १७ आगमोद्धारक लेख संग्रह ३ पर्व-देशना (व्याख्यान) १८ आगमोद्धारककी अमोघ देशना ४ थी स्थानांगसूत्र (व्याख्यान) १९ आगमाद्वारककी अमृतवाणी ५ प्रशमरति और संबन्धकारिका २० भागमोद्धारककी अमृतदेशना ६ लघुसिद्ध प्रभाव्याकरण सलघुतम नामकोश २१ नवपद माहात्म्य ७ षोडशक (व्याख्यान) २२ पर्व माहात्म्य ८ भागमीय सूक्तावल्यादि २३ तप और उद्यापन ९ प्रज्ञापनोपांग भाग-२ २४ अष्टाहिका माहात्म्य १. उपदेश रत्नाकर-अनुवाद २५ सागर समाधान भाग १ ११ नवपद माहात्म्य २६ सागर समाधान भाग २ १२ तात्त्विक प्रश्नोत्तराणि संस्कृत २७ मागमधरसूरि (गुजराती) . १३ आराधनामार्ग (सभावार्थ) २८ आगमधरसूरि (हिन्दी) -१४ आचारांगसूत्र (व्याख्यान) २९ आगमोद्धारक के वचनामृत १५ माराधना मार्ग (गुजराती) ३. भागमाद्वारक साहित्य संग्रह नोट :--निम्न पुस्तकों के नंबर दुहरे है। (१४ ) षोडशक प्रकरण भाग २, (१५) भागमोद्धारक देशना संग्रह (व्याख्यान) भागमोद्धारक वचनामृत में आगमोद्धारक सूरि प्रन्यांक १ है उसके बदले आगमोद्धारक संग्रह न. २९ समझें। साथ ही, भागमोद्धारक संग्रह के मुद्रित होते हुए अनेक ग्रन्थों में शतावधानी पृ० पंन्यासजी श्री लाभसागरजी महाराजने भी परिश्रम किया है। मुद्रित होते हुए प्रत्येक ग्रन्थ में पू. मुनिराजश्री अरुणोदय Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ सागरजी म०, मुनिराज श्री शशिप्रभसागरजी म०, बालमुनि श्री महाबल सागरजी म० आदि ने सुन्दर सेवा दी है । उक्त सभी पूज्य मुनियों के हम अत्यन्त ऋणी हैं । 'आगमधरसूरि' प्रन्थ में आये हुए जीवन प्रसंगों को पढ़कर चिंतन-मनन करें यही हमारी भावना है । हम इतने प्रन्थों का प्रकाशन करने में समर्थ हो सके उसमें मुख्यतः पू० साधु भगवन्तों तथा पू० साध्वीजी महाराजों एवं श्रावक श्राविकादि का जो हार्दिक सहयोग मिला है उसके लिए हम उन सबके अत्यन्त आभारी हैं । า विक्रम संवत् २०२९ श्री आगमाद्धारक गुरुमंदिर प्रतिष्ठा दिन माघ सुदी ३ मंगलवार सूरत पानाचंद साकेरचंद मद्रासी अमरचंद रतनचंद झवेरी शान्तिचंद छगनभाई झवेरी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य - सहायकों की नामावली ५०१ -०० स्व. तलकचंद नवलचंद झवेरी आपके सुपुत्र रतनचंदभाई, पुत्रवधू रमिलाबहन और पौत्र रमेशभाई, सुरेशभाई और दिनेशभाई इस प्रकाशनमें प्रथम द्रव्य सहायक हैं किन्तु आप सौराष्ट्र में विचरते हुए प० पू० आगमेाद्धारक आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज का सबसे पहले वि० सं० १९६३ में सूरत पधारने की विनंति करनेवाले थे और साथ में श्री जैनान्द पुस्तकालयके आधारस्तंभ झवेरी अमरचंद मूलचंद भी थे । अर्थात् पूज्यश्री के सूरत पधारने में प्रथम निमित्तभूत होनेसे यहाँ पर देनों को याद करना आवश्यक है । ११०१-०० ५० पू० आगमाद्वारक आचार्य देव श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी म० के बालदीक्षित शिष्य मुनिराजश्री अरुणोदयसागरजी म० के सदुपदेशसे सूरत छापरीआ शेरी बड़े उपाश्रयमें ज्ञान की आमदनी में से ५०१ -०० सूरत ( माली फलीया) साध्वीजी के उपाश्रय में ज्ञानकी आमदनी में से फूलकेारबहन फकीरचंद नेमचंद ट्रस्ट की ओर से हा. घेलाभाई अभेचंद झवेरी । ५०१ -०० शेगांव श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ । ज्ञानक आमदनी से ! Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ५०१-०० वि. सं. २०२९ महासुद३ मंगलवार के शुभदिन सूरत में हुए पू० गणिवर्य श्री रैवतसागरजी म० की पन्यासपदकी यादगार में और अहमदाबाद खुशालभुवन के चातुर्मास में ज्ञानकी आमदनी में से खुशालदास गोकलदास ट्रस्ट की ओर से 1 ३०१ -०० तीर्थाधिराज पालीताणा में वि. सं. २०२९ में मढ़ी निवासी शा. नेमचंद जीवणजी और धर्मपत्नी तारा बहनने की हुई धर्माराधना निमित्त उनकी ओरसे । २५१-०० जामनगर निवासी सुश्रावक अमृतलाल गलालच द झवेरी स्वकुटुंब श्रेयार्थ उनकी ओर से । २५१ -०० देवबाग जैनसंघ की ओर से । २५१-०० सुरत निवासी, प. पू. ध्यानस्थ गुरुदेव के परम अनुरागी कान्तिलाल जेकिशनदास वखारीआ की ओर से स्वकुटुंब श्रेयार्थ २५१-०० विदुषी साध्वीजी श्री तिलक श्रीजी म० कि सुशिष्या सा० श्री मृगेन्द्रश्रीजी म० की शुभ प्रेरणा से । १०१ -०० बुहारी निवासी स्व. डॉ. हेमंतकुमार रतिलाल के स्मरणार्थ उनकी मातृश्री भानुबहनकी ओरसे ! ५० -०० बुहारी निवासी स्व. झवेरचंद पन्नाजी शाह के स्मरणार्थ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ५० -०० बुहारी निवासी स्व. मूली बहन पीतांबरदासके स्मरणार्थ उनकी सुपुत्री नंदनबहनकी ओरसे 1 ५० -०० बुहारी निवासी मणीलाल नत्थुचंद शाह की ओर से २५१-०० सूरत निवासी स्व. कांतिलाल साकेरचंद मद्रासी के स्मरणार्थ उनकी धर्मपत्नी लीलबहन, सुपुत्र नवीनभाई, सुपुत्री कुमुदबहन तथा पुत्रवधू की ओर से २५१-०० सूरत निवासी गुलाबचंद कस्तूरचंद चोकसी की धर्मपत्नी रमिलाबहन और सुपुत्र निरंजनभाई की ओर से । २५१-०० स्व. मुनिराज श्री नरेशसागरजी म० के स्मरणार्थ सूरत निवासी वीरचंद हरजीवननी कु. की ओर से हा. मगनभाई और चंपकभाई । २०१ -०० सूरत निवासी स्व. केशरी चंद मगनलाल लाकडावालाकी धर्मपत्नी मंजुलाबहन और अग्रज शाह फकीरचंद मगनलाल की ओर से । १०१ -०० समेत शिखर तीर्थोद्धारिका स्व. विदुपी सा. श्री रंजनश्रीजी म. की शिष्या विदुषी सा. श्री प्रवीण श्रीजी म. की शुभ प्रेरणा से १०१ -०० विदुषी सा. श्री निरुपमाश्रीजी की शुभ प्रेरणा से अहमदाबाद जैन सासायटी के श्राविकाओं के उपाश्रय में ज्ञान की आमदनी में से । १०१ -०० सूरत निवासी खीमचंद उत्तमचंद कापडीआ और उनकी धर्मपत्नी जशवंती बहन की ओर से । १०० -०० जामनगर निवासी सेवाभावी सद्गृहस्थ की ओर से ! Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय विषयानुक्रम पृष्ठ विषय १८ दीक्षा की प्रतिज्ञा । १२ गाँव की गेदिमें पृष्ष १ अध्याय १ महापुरुष का शैशवकाल । २ जन्म । ३ अक्षरारम्भ । ४ गेंद-बल्ले का खेल । ५ दर्द और उसका दफन ६ ज्ञान और तत्वज्ञान २ अध्याय वैवाहिक जीवन ७ विवाह का बखेडा | ८ मनोमंथन । ८ मातापिता से अनुनय । ९ हेभू की हार । ९ राग में वैराग्य । ११ भाग्यशाली रात की बात । ३ अध्याय १३ राजनगर की ओर । १४ पिताजी का मनामन्थन । १५ रास्ते में बातचीत १६ श्री गुरुचरण में । १७ हेमचन्द्रको असफलता १९ पिता की भावना २१ आनन्द का उदधि । २१ माता की ममता । २२ हेमचन्द्र का उत्तर । ४ अध्याय २३ सिंह स्वतन्त्र है। गया परन्तु । २३ बाह्य मनका उपद्रव । २४ अन्तरात्मा की ध्वनि । २५ अन्धकारमय प्रभात । २६ बातका बतं गड | २७ सौराष्ट्र में संयम । २८ उपसर्गो का आरम्भ | २९ राज्याज्ञा । २९ राज्याज्ञा का उत्तर । ३० दूसरी राज्याज्ञा । ३१ स्पष्ट वक्ता । ३२ त्यागी से रागी । ३२ कंठे (आभूषण - विशेष ) की चाह Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय | पृष्ठ विषय ३३ भाभूषण आया अथवा गया है। ५१ कषडवज की ओर । ३४ धर्मबन्धु का संकेत । ५२ विदा समय की देशनाई। ५ अध्याय संयम और ज्ञान । ७ अध्याय ३५ गुरु के चरणों में। ५४ सूरत शहर में। ३५ पुत्र के मार्ग पर पिता । ५५ स्वागतम् । ३५ मगनभाई के मनोरथ । ५६ चैत्य परिपाटी । ३६ भावना सफल हुई । ५६ निर्ग्रन्थ के द्वारा प्रन्थोद्धार । ३६ विहार और महाविहार । ५८ मुनीश्वर की भावना । ३७ अध्ययन में संकट । ५९ आगम-प्रन्योद्धार की बात । ३९ छत्र छिन गया । ६. एक लाख रुपये । ३९ मरुधर की ओर । ६१ भागमोद्धारक । ४० पाली में पदार्पण । ८ अध्याय ४३ प्रभावकता की छाप । ६३ मोहमयी में निर्मोही ? ४३ आगम-अध्ययन विषयक स्वप्न।। ६३ मोहमयी। ४४ वाचना विधि । ६४ लालबाग। ६ अध्याय पंन्यास-पद । ६४ शिखरजी आन्दोलन । ४७ अहमदाबादमें। ६६ सिंहगर्जना। ४७ अमोध-देशना (उपदेश) । ९ अध्याय ४९ विहार । ६९ अन्तरक्षजी के किनारे । ५. पेथापुर-परिषद । ६९ कहाँ जा रहे थे। ५० व्याख्यान । ७. दिगंबरों का दंगल । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पृष्ठ विषय ७१ उदारता का उदधि । ९४ पूर्व भारत, उत्तर प्रदेश में ७२ न्यायाधीश सेवक बन गये। प्रयाण । ७३ धैर्य की चरम सीमा । ९४ हिदु विश्व-विद्यालय में । ७४ न्यायालय का नेक निर्णय । ९६ बंगाल विहार । ७५ आनन्द!आनन्द !! आनन्द !!! । ९७ समाचारों का सार । १० अध्याय ९८ कलकत्ते में प्रवेश । ७६ आगम-वाचनाएँ । ९. जैन हिन्दी साहित्य । ७६ अकाल । ९९ मुर्शिदाबाद का सौभाग्य । ७७ पुनः पनपा । १०० एक भव्य दीक्षा-महोत्सव ! ७८ पुनः स्थापना । १०१ संघ का आनंद । ११ अध्याय आचार्य पदवी ।। १०२ वर्षी दान-यात्रा । ८१ सूरतमें सूरिपद । १०२ विहार । ८२ रथ-यात्रा। १३ अध्याय ८४ पदवी-प्रदान । १०४ दिगंबरों का उपद्रव । ८७ आशीर्वचन । १०५ गुजरात की भूमि पर । ८८ आशीर्वचन का उत्तर १०५ विचित्र हवा । ८९ अनाथों के नाथ। १०६ संस्थात्रयम् । ९. पुस्तके और पुस्तकालय । १०७ नाटक न टिका । ९२ मध्य भारत के शैलाना १४ अध्याय । नरेशको प्रतिबोध-मालवा की १०९-रक्षक से भक्षक । ओर । । १०९ राजा के अराजक विचार ! Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पृष्ठ विषय या निधि । विषय ११० आगमोद्धारकरी का सम- | १७ अध्याय झाना । बडौदा रियासत का कलंक। १११ निष्ठुर उत्तर । १२६ नगर और नगर के राजा । १११ यात्रा-बन्द का ऐलान । १२७ विरोध का झंझावात ११२ न्यायालय का न्याय । १२८ आधुनिक सभ्यता। ११३ स्थायी निधि । १२९ समझाने के प्रयत्न । ११४ कानून हटा पर कलंक न । १२९ बालदीक्षा की उपयोगिता। मिटा । १८ अध्याय आगम-मंदिर । १५ अध्याय देवद्रव्यकी रक्षा । १३३ तन्मयता। ११५ गौरांग जाति की नीति । १३४ प्रशस्त-विषाद। १५ भ्रांतिपूर्ण दलीलें । १३५ सुप्रभातम् । ११६ प्रतिकार । १३६ पाषाण प्रतर का विचार । ११८ अर्पण का तात्पर्य ? १३६ अद्वितीय विचार । १६ अध्याय मुनि-संमेलन १३७ पवित्र भूमि । १२. संमेलन का उद्देश्य । १३७ रेखाचित्र निर्णय । १२१ प्रारूप का हल। १३८ कार्यारंभ। १२२ अहमदाबाद का हर्ष । १३९ महोत्सव का प्रारंभ । १२३ नगर-प्रवेश । १४० अयोध्यानगरी की रचना १२३ सम्मेलन । १४० कुम्भ स्थापन। Par air atrin ) च्या कल्याणक ) १२५ ममत्वहीनता १४२ जन्म कल्याणक । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ - विषय पृष्ठ विषय १४३ विवाह-विधि और राज्याभिषेक | १६२ प्रवेशयात्रा । . १४४ दीक्षा कल्याणक । १६३ गहुँली या रस्नापसी । १४५ केवलशान कल्याणक और देशमा १६४ श्री सूरतके सकल जैन १४५ देशना। संघ से विनती। १४६ भंजन शलाका विधि । । १६५ साम्रपत्र-आगममंदिर। १४८ गद्दी-प्रतिष्ठा। १६६ बचन-सिद्धि। १५१ दर्शन के द्वार । १६७ गाजीपुरा में प्रतिष्ठा। १९ अध्याय बहता पानी निर्मला १६८ अप्रतिम प्रतिष्ठा। १५२ कपडवज की ओर । १६९ स्थिरता। ..... ::: १५२ समाज का सम्मेलन । २१ अध्याय महाप्रयाण । १५३ अनासक्त योगी। १७१ कामकी गति । १५४ समता की सिदि। १७१ कार्य अधूरे नहीं रहे। १५७ बबई की और १७२ महा व्याधि। १५७ देशना । १७३ आराधना और भावना । १०८ विदा। १७४ मौन में मुमिराज। १५८ बम्बई के प्रिय मेहमान । १७४ भर्ष पद्मासनावस्था में अमन १५९' प्रवचनों की बौछार । १५५ दीपक बुझ जाता है। १५९ महिराजा का षड्यन्त्र । १७७ भयानक आक्षत। १६० कोम्फरन्स के काले प्रस्ताव । १७८ अन्तिम यात्रा। १६१ हितचिंतक हृदय । १७९ धर्मपुत्र के हाथों अग्निदाह " विहार। १८० गुरु-मदिर। २०ध्याय सागरजी और सूरत । १८२ अनुमति । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय | पृष्ठ विषय १८३ अन्तिम प्रस्तावना। परिशिष्ट-२ १८४ गंथ समपर्ण । २७ श्री संघ निमंत्रणपत्रिका । परिशिष्ट १ (पालीताणा) , भागमभन्दिर चतुर्विशतिका ।। ३४ श्री संघ निमंत्रणपत्रिका । ६ श्री वर्धमानजिनागममन्दिर (सुरत) प्रशस्तिः । परिशिष्ट-३ " श्री वर्धमानजैनताम्रपत्रागममन्दिर प्रशस्तिः। ४. पूज्यपाद आगमोद्धारकश्रीजी १२ गुरुवर्याकम् । के चातुर्मास तथा विशिष्ट प्रसंगों की रूपरेखा। १३ गुरुदेवाष्टकम् । .. १४ श्री भानन्दसागरसूरीश्वरस्तु ५१ चातुर्मास-सूचि। त्यष्टकम् । ५२ उपधान-सप। १६ गुणस्तुतिः। ५३ विशिष्ट संस्थाएँ। ... १८ गुणस्तुतिः। ५४ आगमोद्वारक रचित कृतिस दाह । २२ स्तुत्यष्टकम् । ५९ मुद्रित । २३ श्री आगोवारक-गुरुदेव ६३ संपादित प्रथ-सूचि । ... विरहवेदनागर्भस्तुत्यष्टकम् । ६८ आगमिक ५३ विषय ।। २५ भागमेवारक-स्तवः । ७० आगमिक संपादित कृतिया। २६ प्रकीर्णस्तुतयः। | ७२ आगमोदय समितिकी स्थापना। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमे द्धारक आनंदसागर सूरीश्वरजी महाराज जन्म : वि. स. १९३१ अषाढ वदी ८)) कपउवंज दीक्षा : वि. सं. १९४७ माघ सुदी ५, लींबडी पंन्यास पद : वि. स. १९६० आषाढ सुदी १३ अहमदाबाद आचार्य पद : वि. सं. १९७४ वैशाख सुदी १० सुरत निर्वाण : (स्वर्गवास) वि. स. २००६ वैशाख वदी ५ सुरत Page #27 --------------------------------------------------------------------------  Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * યંકમર 9િ) - મક્ષિકા મw/ (સૂરિજી એ ૮ પરમાર થઇક ** પૂ. આમ મોદ્ધારક આચાર્યદેવશ્રી, રાનંદસાગર સૂરીશ્વર વંશવૃક્ષ રાટમોધ્ધારકશ્રીના અંતેવાસી મુનિસ08 શ્રી ગુણસાગરજી મ. Stતાવવાર પેઈન્ટર કાન્તી સોલંકી.. જામનગર.. ગુરૂદેવ ઇન્ન દિવસ વિ. સ.20૨૫ અષાઢ વદ ૦) આગ.સં.ર0 Fi નિશાનીવાળા સ્વર્ગવાસ પામ્યા છે. Page #29 --------------------------------------------------------------------------  Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સારા નરેશ પ્રતિદાયક અગ્નિોદ્વારઠ આગમવ્યાખ્યાપ્રજ્ઞ ચાર્ટ મહાસજી ૧૦૦૮ શ્રી માત્ર સ્ત્રી આનંદસાસ્ટ ૨ી અરજી સંગૃહીત શાસ્ત્ર ગ્રંથોનું ? 'જૈન અનંદ - પુસ્તકાલય ગોપીયુસ, સુર૮ #tહનt હીટ (સંપત રા૪૬ # સવર શાહ થય રેન્ટ અને ૬૭- ૧૮* * * पुस्तकालय in -3 ન ૫૨ - જય આ સમાજમાં હું કે આ ગાયકવી નસાગર મરી રઇ મહારાજના વિ» ર નું | મુનિરા૧૪ થી અટ્ટમોધ્ય સાગરેજી મહારાજની ઉપદેશથી કવરી મો પાંલઇ કપુરચકના પુત્ર પ્રવિણચંદ્ર કન, થથે તેમના પુત્ર પરેશ કુમાર તથા તેમના માતુશ્રી ગંગાબેન ભાઈ ગલાલ હાન માનવે ની નફથી ભેટ जैन आनंद पुस्तकालय सुरत स्थापना : वीर सं. २४४५ वि. सं. १९७५ Page #31 --------------------------------------------------------------------------  Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Twepics समस्याग्रसमा मा तपमाछापमा भाडार सूरी है। स्पयन को भी महान यौन यि मसाजन हमाते इरानसार इस साल वैशाने प्रधान मि. मबहादुर काम आम कीया, उसके अनक विधवेशव्याख्यान हो गए मर व र हम युक्त ने इस थुनी में मतलरथे म एका लिना दीवानन्धर सागरमा कसरी भारत में प्रतीभादया जी मार मी महारत्रयस्थ महान सोन्या को देने करने वाला गये. 1 सोबन सन् १९२० मत संदीर पलायन में में और गायक पालले रहेगी. इसमा विषय सादिक जाना है की साने की होम दिनो मे बानीमा आया • हम सारी मिली, मला अली निकलने SEA स्कीमाकी मालती अजमल आलीय दरबार सेयन. अब मराज पद समरवा माहावनाललाना का जब लान्य : सन Raisi देवान साहब दबायाना अददृश्यक परम्यांशुक महाराजाधिराजमेदिलीपजी हादर-भराडलाना मित्र राजप्रतिबोध और जीवदयापट्टक Page #33 --------------------------------------------------------------------------  Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRUIDAIRS anusian.tattores-dean is a newd n a मयो सब THE AIRAMHAR . બુમરજી છે મ કાજ સ હપટેબ0 ક૨શે રતરતી પાનચંદના શ્રેયાર્થે તેમના શ્રેન બ્રકવર. પલાચંટ ત૨ થી શ્રેટ बधित कार प्रथम याचन्म- भद्रबाहुस्वामी वीर निर्माण संवत् १६०. विनय वाचना-अनुयोगाचार्य श्री स्कन्दिलाचार्य र निज संवत् ८२3 4 ८४०. मथुग (उत्तरापथ) कीय पाचन - युगप्रधान श्री नागार्जुन (स्कन्दिलाचार्य. समकालीन) वीर निर्वाण संवत (२७ श्री ८४० मा बलसीपुर (दक्षिणापथ ।। पूर्वकालीन तीन आगम-वाचनाएँ Page #35 --------------------------------------------------------------------------  Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Normal LAMMAAL A jan પુજા કામમોટર કા ધવ8 4. Aી. આ દ૨કિમ ર સૂરીશ્વરજી મhશજ પ્રિઝમ મની શાઇ થી R-ANNELingdersnwloatiantarte.mputeylet wo-tananew | . RRRRRRरकादम्प स पर्व व हरिशोधि दवाए जर्मस्य प्रमुवीर में देवानटांनी कृषिशायी लढत त्रिशलाढवीनी कुक्षि स्थापन करना तथा आवशयमन गाला आगमोने पूजकारण करवा द्वारा श्री असणार चम्धिसंघ उपमहान उपकार करनार समाश्रमण आगम पुस्तकारूढ हुए। Page #37 --------------------------------------------------------------------------  Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - વા', દરાનHIRajધની ઘefકના પૈનાતૃતા મુસTRામાં નાનું રચે મોડrrufar aa Nચડીઝમ | या गजनिबांधकृन्मूनिवः बिद्धान्तमंशोधकः श्री आनंदपयोनिधिविजयते सोऽयं हिससम्म સમસ્મસાધુસમૃઆગન્નવાચનાદાનાર ૫ આગ.મો.દ્ધા૨કની આગમવાસ્થનાઓ. આગમોબારડ શ્રી અને કચ્છ મગ નરમ સ્થપ૨સર્વસાચ.કુનિ ચકલવ્યાકરામાWિદનાધાચાર્યું સતત વરસાદની આગમાદ્ધિારક આચાર્યવચ્ચે ગ્રી સાદગાગરીશ્વરજી મ... ના શિષ્યરત્ત. મનિરાજ શ્રી ગુણસાગરજી મહારાજઇ ઉપદમપી . . ઝવેરી જમનાદાસ લાલચંદ તલ તેમના ધર્મપત્ની નવાબેનના પ્રેયાર્થે સપત્રો બાબુલાલ.. રાણીકલાલ, કKકલાલ તરીકે પગવધુ શરતી. સોરા હોગાન પોત્રા ગીગશકુમાર , જચતકુમાર, જતીનકુમાર તરફથી કોટ वर्तमानकालीन आगम - वाचना Page #39 --------------------------------------------------------------------------  Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर मिध्यक्षेत्र, 1000 श्रमिक गणपा लाखों रुपयोंके व्यय से निर्मित अद्वितीय अदृष्टपूर्व श्री वर्द्धमान - जैन-आगम- मंदिर सिद्धक्षेत्र (पालीताणा) प्रतिष्ठा : सं. १९९९ माघ वदी ९, गुरुवार Page #41 --------------------------------------------------------------------------  Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देताम्रपत्र आगम खमंदिर सुरन श्रीवर्धमान लाखों रूपयोंके व्ययसे निर्मित अभूतपूर्व श्री वर्द्धमान-जैन-ताम्रपत्रागम-मंदिर सुरत प्रतिष्ठा-स. २००४ माघ सुदी ३ शुक्रवार Page #43 --------------------------------------------------------------------------  Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tante श्रीभगवत्यंग ২ কােটির ताताधमकवान उपालकदर शासक उत्तरामधनानि मासूम सुवर्णाक्षरी आगमपुरुष, श्री वर्द्धमान जैन तानपत्रागममंदिर सुरत. Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ શ્વાગામ **૨ આ દવ . અા કાં કેસ ઝટ ઈઝ ( સ કાર ? બાર અને મુવી સંતના રેયાછે તેમના પુમ કઠલાલ કીમદ નથી ટેઇક કરે છે નારાજ છે. શા માટે . પણ એક નદી, કે તે કઈ રીતે ની મજા છે આત્મા દાઢયા તા નથી, વણે માચઘ લિ ગતમાં થવાનું છે તે ૮ થાય છે... રોકી લે છે,ી , , , , છે. , , , धन्यावीरजिनाधाः ગવાન સતાવીર મહારાજ જિગરે ઇ ધટશ છે सहयं मालम्ब्य सहन्त आजाः રાપ્ત પુરૂષો શ્રેષ્ઠ ધર્મનું આલંડમન કરીને દુઃખોને સહન કરે છે.. बन्ये मवान और બી પી લો અવાજ સિંહુમ વા? ૧૯ વે? કે ધી ધ{ટે ફ, દવા છે? છે કે શા છે. ના અમો દ્ધારક રીચારી દેવ દી. અ૮દદ ૨૯ગર રહી૨ જી મહરાજ અદ મ પૂરૂ ધ ગ્રહનદાર અસર હાર થઈ છે ઈને જે પાસને બેસીને સંત પાસું ગીટાર શીટ તેમજ વિ અધ્યા છે ध्यानस्थ गुरुदेव Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स NAREEduca u ENARTAL Ramadaland ERECTRESMARist र gerwasesanNEL MANPREMALERanata Merencore MARALACROMAIL060 quic आगमाद्धारक પરમ પૂજય આગમ દ્ધારક ઝગાર્યવશ્રી અનિંગાગણ સુરીશ્વરજી મહાગઠના શિષ્યરત્ર. યુનિરાઇ શ્રી - રાગદયસાગરજી મહાજના ઉપહાથી ઝવેરી હઠીસીંગ ગોપાલજી ના ધર્મપત્ની યાડોરબેન તરફથી ભેટ ... आगमोद्धारक गुरु मंदिर, सुरत प्रतिष्ठा : सं. २००७ माघ सुदी ३ शुक्रवार Page #49 --------------------------------------------------------------------------  Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमधर सरि पहला अध्याय महापुरुष का शैशवकाल जहँ। अनन्त उपकारी तीर्थंकर भगवान्, गणधर महाराज आदि अनेक महापुरुष हुए हैं उस दक्षिणार्घ भरतक्षेत्र के मध्य खंड में 'गुजरात' नामक प्रदेश है। इस गौरवमय गुजरात में देशकी शान बढ़ानेवाला एक नगर है जो अपने प्रसिद्ध वन-उद्योग के कारण 'कर्पट वाणिज्य' कहलाता था परन्तु लोगो में 'कपडवंज' के नाम से विख्यात है। यहाँ के जिनालय एवं जैनेतरों के मंदिर इस नगर की धर्म-भावना के साक्षी हैं। दया और दान इस नगर के विशिष्ट गुण हैं। नगरकी महिलाएँ शील और सदाचारसे अलंकृत थीं। उनमें रूप-लावण्य था परन्तु उच्छृखलता नहीं थी। ____ वीतराग परमात्मा के शासन के अनुयायी अनेक समृद्ध श्रावक परिवार इस नगर की विशिष्ट शोभा एवं प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि करते थे। इन में श्रेष्ठिवर्य श्री मगनभाई का नाम अम्मान-पात्र एवं लक्ष्मीका विश्रामगृह था। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरस्त्रि श्रेष्ठिवर्य श्री मगनभाई की सुपत्नीका नाम यमुना था। त्रिवेणी संगम की यमुना नदी अनेकों को शांति और तृप्ति देती है उसी तरह यह यमुना अनेक सन्तप्त तथा अतृप्त हृदयों को शांति एवं तृप्ति प्रदान करनेवाली भार्य सन्नारी थी। __ जैसे गोलकुंडा की खानका कोहिनूर हीरा दुनियाको देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था वैसे इस रत्न-प्रसविनी यमुना को महाज्यातिधर पुत्ररत्न की भेट जिनशासन को देने का महासौभाग्य प्राप्त हुआ था। कोहिनूर हीरा जहाँ भी गया वहाँ चिंता और भय का वाबावरण छा गया, उस के हेतु अनेक मनुष्यों का खून बहा और असंख्य दुष्कृत्य हुए जबकि इस पुत्ररत्नने अहिंसा-अमृतका निर्झर प्रसारित किया जिसमें भनेकानेक आस्माओ के भयंकर पाप नष्ट हो गये। इस पुत्ररत्न ने मज्ञान के अन्धकार में ज्ञानका प्रकाश किया। कोहिनूर भयदाता बना, यह पुत्ररत्न अभयदाता बना। - जन्म भगवान महावीर के निर्वाण को २४.१ वर्ष हुए थे। आषाढको मेष-घटाएँ भाकाशमें गर्जना कर रही थीं मानों जगतका पुत्ररत्न की बधाई देती है। [बिजलिया प्रकाश पुंज बिखेर रही थी मानो पुत्ररत्न के जन्मकी खुधीमें दीपमाला जलाती हो। सूर्य और चन्द्र भी आकाश में एक स्थल पर आ मिले थे। वे विचार मग्न थे और धीरे धीरे बात कर रहे थे कि एक ज्योतिर्षर का जन्म होने ही वाला है; यह बालक कहीं हमारे प्रकाशको निस्तेज तो नहीं कर देगा ! शीतल, मन्द माहादक Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसूरि पबन चल रहा था, धरती शस्यश्यामला बन कर मानव-हृदयका आनन्दित कर रही थी । ] ऐसे मंगलमय वातावरण में अमावास्या की रात्रि के मध्यकाल में रत्नकुक्षी यमुनाने एक पुत्ररत्न का जन्म दिया । जन्म के शुभ अवसर पर श्रेष्ठिवर्य श्री मगनभाईने उचित उत्सव मनाया, आंगी करवाई, और दान दिया। शुभ मुहुर्त पर पुत्ररत्नका नामकरण-संस्कार किया गया। सबकी उपस्थिति में हर्षमय वातावरण में 'हेमचन्द्र' नाम दिया गया । ज्योतिषयांने ज्योतिष देखकर भविष्यवाणी की कि 'यह बालक युगावतार महापुरुष होगा ।' अक्षरारम्भ द्वितीया का चन्द्र जैसे हेमचंद्र भी दिन दिन बढ़ आकृति, ज्ञान, वृद्धि, सत्व, की वृद्धि हो रही है। धीरता और वीरता - ये दो गुण तो हेमचन्द्र के प्रिय मित्र, सच्चे साथी और उन्नति करनेवाले थे । दिन दिन बढ़ता जाता है वैसे यह रहा है । उसके आदि बाह्य एवं शरीर, रूप, रंग, आन्तरिक विभूति मातापिता के स्नेहपूर्ण लालनपालन में हेमचन्द्र पाँच वर्ष का हुआ। इतनी छोटी उम्र में ही वह सारे मुहल्ले और जैनकुल का प्रिय बन गया । मातापिताने शुभ दिन देख कर उसे ज्ञानाभ्यास के लिये स्कूल में दाखिल किवा | पुण्यवान् हेमचन्द्रने जिस रोज स्कूलमें प्रवेश किया उस रोज अध्यापकों को खुश किया गया और विद्यार्थियों के मुँह मीठे करवाये गये । हेमचंद्र में अपूर्व प्रतिभा थी; ज्ञान-प्राप्ति की अभीप्सा थी । उसमें अद्भुत निडरता थी। करुणा और वात्सल्य कूट कूट कर भरे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गमधरसरि हुए थे। उसमें कोमलता एवं कठोरताका भी समुचित समावेश था। उसमें गजब का सत्त्व था, भय को भी उसके पास आने में भय लगता था। उसका ज्ञान दिन ब दिन बढ़ता गया, उसकी पढ़ाई देख कर शिक्षक भी विचार में पड़ जाते । वे दूसरे बालकों को इस बालक से पढ़वाते। इस तरह हेमचंद्र एक साथ विद्यार्थीपद एवं गुरुपर-दोनों पदों का उपमेोग कर रहा था। गेंद-बल्ले का खेल बाल्यावस्था तेो खेलकूदप्रिय होती ही है ! एक दिन शामको स्कूल की पढ़ाई के बाद सब लड़के मुहल्ले में गेंद और बल्ले का खेल खेल रहे थे। वे सब खेलमें इतने तल्लीन थे कि उन्हे स्थान और समयमा ध्यान ही नहीं रहा। अचानक एक लड़के के द्वारा गेंद सरकारी हीये से जा टकराया। दीये के बाहरका काच गेंदके भाघात से चूर चूर हो गया। खेलनेवाले सभी विद्यार्थी तुरन्त भाग खडे हुए, न गया धीरन की मूर्ति सा केवल एक हेमचन्द्र । थोड़ी ही देर में दीर्घकाय लाठीधारी नगररक्षक सिपाही वहा आ पहुँचा। उसने भयानक अट्टहास्य करते हुए कहा, 'क्यों रे लड़के ! इस दिवे का कांच तूने क्यों फोड़ डाला ?' नगररक्षक सिपाही तो बस हेमचन्द्र को ही अपराधी मान कर गटने फटकारने लगा, तब हेमचन्द्रने कहा, 'मैंने सरकारी दीया या उसका बाहरी आवरण तोड़ा ही नहीं है। मुझे आप से डरने की कोई जरूरत नहीं है। मेरा काई कसूर नहीं, अतः आप मेरा कुछ नहीं कर सकते।' बालकका वीरोचित और सभ्यतापूर्ण उत्तर सुनकर सिपाही हतप्रभ हो गया। उसे प्रतीत हुआ कि इस लड़केके सामने मेरी एक न Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगधरम चलेगी। यह तो कोई निराला ही मालूम होता है। इसे छेड़कर कही मैं ही मुसीबत में फंस जाऊँगा। यह सोचकर वह धन्यवाद देकर चला गया। दर्द और उसका दफन विद्याभ्यास एवं बालक्रीडा में समय बीत रहा था। इस अरसे में एक बार हेमचंद्र के गले पर एक मूजी किस्मका फाड़ा उभर आया। यह बालक कई बातो में जैसा आमका पका था, जैसा यह फेोड़ा भी जिही निकला । मा बापने बहुत इलाज करवाया पर यह न मिटा । मिट जाय तो वह जिद्दी फेोड़ा ही क्या ! बहुत दर्द होता था, परन्तु हेमचन्द्र सहनशीलताका अगाध समुद्र था। यह असह्य वेदना उसके ज्ञानाभ्यास तथा खेलकूदमें विघ्न डालना चाहती थी, परन्तु सहनशीलता उसे विघ्न डालने से रोकती थी। वृन्दावन का कन्हैया एक दिन अब मचल गया और उसने बलराम को हैरान कर दिया तो यशोदाने उसे एक थप्पड मार कर और धमकाकर शान्त किया था वैसे ही यह हेमू भी एक दिन नटखटपन पर उतर आया और अपने बड़े भाई-जो उम्र में दो वर्ष बड़े थे-मणिभाई को हैरान कर छोड़ा, तब यमुनामाताने उसके गाल पर थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया। चपल हेमूने मुँह घुमा लिया परन्तु ममतामयी माता का हाथ गले के उक्त फाड़े पर पड़ा। फोड़ा फूट गया और दर्द बहुत बढ़ गया परन्तु इस पराक्रमी हेमूकी आखो से आँसू का एक बूंद भी न निकला । फाड़े में से मवाद वगैरह निकाल कर बाह्य व्रणशामक दवाई लगाई गई । माताके ममतामय हाथ ने दर्द को दफन कर दिया-पह थप्पड़ चमत्कारमय थप्पड़ सिद्ध हुआ। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमधरसरि ज्ञान और तत्त्वज्ञान .. व्यावहारिक ज्ञान के अध्यापक से हेमचन्द्र व्यावहारिक ज्ञान बीच रहा था, साथ ही गुरुदेवों से अध्यात्म-सम्बन्धी ज्ञान भी प्राप्त कर रहो था। उपाश्रय में या उपाश्रय के बाहर कहीं भी किसी तत्वज्ञानी या वैरागी पुरुष के आगमन के समाचार मिलते ही तुरन्त हेमू वहाँ पहुँच जाता। मौन रह कर उनकी चर्चा सुनता। कुछ पूछने की इच्छा होने पर धीरे से पूछता और यदि अच्छी तरह समझ में म आता तो 'हा' न कहता परन्तु पुनः समझानेकी प्रार्थना करता। . हेमू की उन्न तो अमी कुल ग्यारह वर्षकी थी परन्तु उसकी ज्ञानपिपासा तथा तत्वजिज्ञासा प्रौढों की सी थी ! वह कभी कभी विचारों में ऐसा तल्लीन हो जाता था मानो पूर्वजन्म में कोई समाधि सिद्ध किया हुआ महायोगी हो। .. उसकी विचार-शक्ति और तर्कशक्ति देख कर मातापिता को हर्ष हो इसमें तो भाचर्य ही क्या ! परन्तु जिन्हें भी उसकी इस शक्ति का साक्षात्कार होता वे भी आश्चर्यमुग्ध हो जाते ! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय वैवाहिक जीवन विवाह का बखेड़ा हेमचन्द्र बारह वर्षका हुआ। उस जमाने में जिनके यहाँ छोटी उम्र में शादी हो जाती वह परिवार ईज्जतदार माना जाता था। माह में पड़े हुए मातापिता तो पलनेमें झूलते हुए शिशुको ब्याहने की लोरियों सुनाते और सांसारिक रंग पक्का करते थे। यमुना माताको बारह वर्ष के हेमूकी शादी करने की अभिलाषा जगी। समृद्ध घर था ही, अतः अनेक कन्यांमके मातापिता अपनी भाग्यवती पुत्रीके विवाह की बात करने सेठ मगनभाई के घर आ चुके ये परन्तु इन्हें कोई जल्दी न थी। माता यमुना अपने पुत्रका विवाह करने का सुख जल्दी ही देखना चाहती थी। उन्होंने अपने पति से इस विषयमें भाग्रह किया। आग्रह हठाग्रह में परिणत हुआ किसी भी तरह हेमू की शादी शीघ्र ही होनी चाहिए' इस इच्छाने उनकी हिम्मत और भी बढ़ा दी। उन्होंने किसी तरह श्रेष्ठी मगनभाई को अपनी बात स्वीकार करने को मजबूर किया। दोनों कुलों की शुद्धि देख कर एक भाग्यवती एवं गुणवती कन्या के साथ सगाई की गई। रुपया और नारियल स्वीकार किया गया। मिष्टान से सबका मन और मुंह मीठा किया गया! -- Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसूरि मनोमंथन हेमचंद्र, जिसके लिए यह सब हो रहा था, गहरे सोचमें पड़ गया ! मुझे इतनी छोटी उम्र में ही क्यों माया के कोमल बन्धनमें बाँधा जा रहा है ? क्या संसार में जन्म लेनेवालेको ब्याह करना ही चाहिए ! क्या जीवन का यह अनिवार्य कर्तव्य है ! क्या ब्याह के बिना सुख नहीं है ! इस गुळामी से क्या फायदा १ नहीं, मुझे यह ममता का बन्धन महीं चाहिए ! मैं तो गगन में मुक्त विहार करनेवाले पक्षी जैसा बना रहूँगा। मैं वायु की तरह निबन्ध रहूँगा। मैं अपनी स्वतन्त्रता को नष्ट होने देना नहीं चाहता । मातापिता से अनुनय एक दिन प्रातः काल हेमचंद्र मातापिता को नमस्कार कर मौन खड़ा रहा। मातापिताने पूछा, 'वत्स, तुम उदास क्यों हो ! कुछ कहना चाहते हो ! अब तो तुम्हारा विवाह निकट आ रहा है, उदास रहोगे तो कैसे चलेगा । जो तुम्हारी इच्छा हो से हमें बताओ, हम अवश्य ही तुम्हारा हित करेंगे। हेमचन्द्रने कहा-'पिताजी ! पिताजी ! कृपया मुझे इस बन्धनमें मत डालिये। मेरा मन इस पथ पर जाने को तनिक भी उत्सुक नहीं है ! मैं इन जंजीरों में बँधना नहीं चाहता। मेरी स्वतंत्रता मत छीन लीजिये। मैं विवाह-बन्धन को नहीं निभा सकुंगा! मेरे हृदय में त्यागी बनने की अभिलाषा है, अतः इस झंझट को नहीं सम्हाल सकूँगा। भाप मेरे हितैषी हैं, मुझे शादी के बखेड़े में न डालिये। यह बात सुनकर पिताजी तो कुछ पिघले परन्तु माताजीने कहा "पुत्र ! तुम आज्ञाकारी हो ! मैं सदा तुम्हारा भला ही चाहती हूँ ! Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माममधरमरि त्याग-मार्ग तो लोहे के चने चबाने से भी अधिक कठिन है ! इस सीधे चढाव पर चढ़ना तुम्हारा काम नहीं ! तुम तो संसार में कुलदीपक के रूपमें शोभा पाने योग्य हो ! दीक्षा-फीक्षा अपना काम नहीं, जाओ मौज करो, आनन्द में रहो!....... हेमकी हार इसके बाद माताने शादी की जल्दी मचा दी । ज्योतिषी ब्राह्मणों को पुलाया। ज्योतिष के अनुसार मांगलिक दिन निश्चित किये। कुंकुमके छींटे देकर कुंकुम पत्रिकाएं भेजी गई ! अशोक के पत्तों के तोरण बांधे गये। धवल मंडप बमा, विजयस्तंभ रोपा गया! ठाट बाट से बारात चढ़ी कोकिलकंठी महिलाओंने मंगलगीत गाये। सब लोग मंडपमें आये। बारह वर्षका किशोर हेमू विवाह-वेदी पर बैठा। अमि की साक्षी में सप्तपदी का मंत्रोच्चार प्रारम्भ हुआ। वर वधू का हस्तमिलाप (पाणिग्रहण) हुआ। अनि की चार प्रदक्षिणाएँ करवा कर हेम को विवाह-सूत्र में बांध दिया गया। युग-प्रचलित बालविवाह की प्रथामें हेमू का होम हो गया! इतनी सारी भीड़ के सामने अकेला बेचारा क्या करे ! यह भी समयकी बलिहारी है, कि भविष्यमें जो आगमोद्धारक बनने के लिए जन्मा था उस महापुरूष को वारह वर्षकी कच्ची उम्र में ही बिना सोचे समझे उसकी इच्छाके विरुद्ध विवाह की बेड़ी पहना दी गई। सुखी परिवारों में तो छोटी उम्न में ब्वाह करना ऊँची खानदानी और प्रतिष्ठा का चिह माना जाता था ! राग में वैराग्य . जिस पुण्यवतीका हेमचन्द्र के साथ पाणिग्रहण हुआ था उस नववधू का नाम था माणेक ! वरवधू घर आये, तव माता यमुना की Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्रमघरसूरि खुशी का पार न का! माता को ऐसा मालूम हुआ मानो मेरे घर आज कल्पवृक्ष फला है, मोतियों की वृष्टि हुई है। बाज मैं कृतकृत्य हो गई! पुत्रवधू का मुख देखकर यमुनाने प्रसन्न हृदयसे आशीर्वाद दिये "बेटा ! सौभाग्यवती हो, मेरे कुलदीपकको सम्हालना । अब तुम मेरे घरका माणिक बनना ! यह घर, यह धन, ये आभूषण, फरनीचर सब तुम्हारा है। हम भी तुम्हारे हैं ! तुम हमारी गृहलक्ष्मी हो, हमारे कुल को आलोकित करमा !" पुत्रवधू माणेकने सास के चरणों में सिर रख दिया और मधुर स्वर में विनयपूर्वक बोली "माताजी ! आज से' मैं आपकी तथा आपके पुत्र की दासी हूँ ! आपके पुत्रकी अर्धागिनी हूँ, तन-मन से सेवा करूंगी, भापके आशीर्वाद हमें सुखी रखेगे ?" हर्षविह्वल माता यमुना पुत्रवधू के गुण गाते गाते कभी थकती नहीं ! गावकी कोई सखी या स्वजन भावे तो मा उसके सामने भी माणेककी प्रशंसा करती। यमुनाको माणेक एक देवी के समान प्रतीत हुई। माणेक भी यमुनासास की सेवा करती, ईज्जत करती, उनकी आज्ञा पालती और पैर दबाती थी। थोड़े दिनों में माणेकने घरका कामकाज भी सम्हाल लिया। ऐसी विनम्र पत्नी मिलने पर भी हेमचन्द्र आकर्षित नहीं हुआ। यह पूर्वभवका वैरागी था ! इस जन्म में जबरदस्ती से नारी के पाश में डाला गया था, अतः उसे और अधिक वैराग्य होने लगा। सिंह-शावक को कैद करने पर जैसो अनुभूति होती है वैसी हेमचन्द्र को होने लगी ! उसे अपनी भावना और स्वतन्त्रताका दम घुटता मालम हुआ। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि हेमचन्द्र दिन ब दिन अधिक विरक्त दिखाई देने हृदयमें माणेककी ममता कोई परिवर्तन न कर सकी। वह में पड़ गई । हेमचन्द्र के पिताको इस बातकी खबर हुई, उसके ससुर को भी पता लग गया । ११ लगा । उसके नववधू उलझन इतना ही नहीं, एक दिन ससुरजीने हेमचन्द्रको बुलाकर समझाया, "भाई, बड़े होकर तुम्हें अपने पिताका धन बढ़ाना है। उसकी रक्षा करनी है, मान-प्रतिष्ठा बढ़ानी है । तुम्हें अपनी पत्नी की रक्षा पालन-पोषण-संवर्धन करना है । इस तरह वैरागी बनने से नहीं चल सकता | अब सयाने हो रहे हो, तुम्हें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए ।" "मैं अपनी आत्मा के कल्याण-मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता हूँ । कोई मेरी इस भावनाको नहीं रोक सकता । मैं अपने विचारों से एक कदम भी पीछे हटना नहीं चाहता। आप लोगोंने बाल्यावस्था में मुझे विवाह बंधन में फँसा कर मुझ पर अत्याचार किया है, परन्तु मेरी भावना पर बलात्कार करने की शक्ति आप में किसी में नहीं है। मैं अपनी वैराग्य की भावना में वज्र सा कठोर एवं पहाड़-सा अचल रहूँगा । " हेमचन्द्रका ऐसा उत्तर सुनकर सब शान्त तो हो जाते परन्तु दिल उलझन में पड़ जाता था। फिर भी इस किशोर दम्पतीका जीवन बाह्य दृष्टि से सबको सुखशान्तिपूर्वक चलता दिखाई देता था । भाग्यशाली रात की बात संसार अपनी गति से चल रहा है । यह बालदम्पती मी इस प्रवाह में वह रहे हैं। एकांत में बातें होती हैं। घर के एकांत में हस्तक्षेप करने की किसे हिम्मत ही सकती है । अथवधू माणेक को कई तमन्नाएं उठती हैं, परन्तु आर्य - नारी पति के सिवा किससे कहे ? Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरनि पतिका बैराग्यमय व्यवहार और पिता की बातें सुन कर वह कुछ उदास हो जाती थी, परन्तु जब उसे खयाल आता कि उसका पति एक चिन्तक ओजस्वी पुरूष है तब वह विधि का उपकार मानती और न्योछावर होती। - इस नववधू ने एक रात अपने पति से पूछा, 'स्वामि ! आपको संसारिक वासना नहीं सताती । क्या मैं पसन्द नहीं आती ? मुझ में कोई कमी है ? क्या मुझमें आपकी सेवा करनेकी योग्यता नहीं है! किस बात में मैंने आपको असन्तोष होने दिया है। मेरा अपराध हो से बताइये। आप कहें सो प्रायश्चित ले कर तपस्या कर के शुद्ध बनूँगी, अपने प्रियतम को प्रसन्न करने के लिये मैं व्रत-मनौती करूँगी, तप-जप करूँगी । कहिये प्राणनाथ ! कहिये, मैं क्या करूँ ! ___पूर्वजन्म के वैरागी हेमचन्द्रने कहा, "माणेक, तुम्हारी वात तो सही है, परन्तु मेरा मन संसार की ओर नहीं ढलता, वासना की भोर नहीं मुड़ता । मैं वासना के दलदल में फंस कर अपनी आत्माकी बरबादी करना नहीं चाहता, साथ ही मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता कि तुम्हारी आत्मा की बरबादी हो। ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारा कोई दोष है और मैं तुमसे नाराज हूँ। मुझे संसारकी ओर सचमुच कोई आकर्षण नहीं है। मुझे जवरदस्ती ब्याह दिया गया है। आज भी मेरी आन्तरिक अभिलाषा भगवान महावीर प्रभु द्वारा निर्देशित प्रवज्याके पथ पर पद धरने की है। तुम भी भात्मकल्याणके पथ पर प्रयाण करो।" दुनियाकी सष्ठि में तो हेमचंद्र और माणेकका जीवन गृहस्थ जीवन, दाम्पत्य-जीवन बन चुका था। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय हेमचन्द्र के बड़े भाई का पहले से ही वैराग्य था, परन्तु उप जमाने की यह तासीर थी कि छोटी उम्र के लडकों का विवाह बन्धन में जकड़ दिया जाता था । उनके बड़े भाई मणिलाल को भी इस बन्धन में बाँधा जा चुका था, परन्तु विधाता की इच्छा मणिभाई का सरलता से दीक्षा दिलाने की थी, और हेमचन्द्र के कठिनाइयों का सामना करवा के दीक्षा दिलाने की - वीर पुरुषका बिरुद दिलाने की थी । अतः विधाताने बड़े माई की अर्धागिनी का बीचमें ही दुनिया से उठा लिया। दूसरी कन्याएँ मणिभाई से ब्याह करने को तैयार थीं, परन्तु उन्होंने नहीं माना । पिताजी भी भीतर से दीक्षा दिलाने को तैयार थे, परन्तु तरका लीन समाज इतनी छोटी उम्र में दीक्षा के विरुद्ध था । पिताकी सम्मति भी कुछ नहीं कर सकती थी, इसलिए पिताने मध्यम मार्ग अपनाया । राजनगर की ओर I "बेटा मणिलाल ! वह मेरे ध्यान में है कि तुम्हारी संयम लेने की इच्छा है । मैं तुम्हारी भावना में विघ्न डालना नहीं चाहता। मेरी ऐसी इच्छा है कि तुम शासनका शोमित करे। । तुम अपने आत्म-कल्याण के पथ पर गमन करो, मैं तुम्हें अन्तरसे आशीर्वाद देता हूँ। मैं यहाँ तुम्हें संयम दिलाने की स्थिति में नहीं हूँ । समाज के भीषण नागपाश में से बाहर आना मेरे लिए कठिन है । इसलिए तुम अहमदाबाद जाओ । उधर अच्छे महात्मा पुरुषको खोज कर आत्माका कल्याण करना और शासन क शोमित करना ।" Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघरमरि इस बात की खबर चतुर हेमचन्द्रको लग गई। हेमचन्द्र अधिक वैरागी और अधिक उत्साही था। उसे त्यागमार्ग के प्रति अधिक आकर्षण था । बड़े भाई के अहमदाबाद जाने का समय आया तब हेमचन्द्रने पिताजी से कहा, "पिताजी, मुझे भी भाई साहब के साथ अहमदाबाद जाना है, आज्ञा दीजिये।" . ... पिताजी का मनोमन्थन पिताजी को तुरन्त समझ में आ गया। मन में सोचा, यह भी त्याग के पथ पर ही प्रयाण करना चाहता है। मन विचारमें पड़ गया, क्या करूँ! दोनों पुत्रों का त्याग के पथ पर जाने ! - मोह-विह्वल मन विचलित हो गया। उसमें से धीमी आवाज उठी-दानों पुत्रों को बाबा बना देना है। मूर्ख ! सावधान ! ऐसे राजकुमार-से सुपुत्र किसी किसी को ही मिलते हैं। अरे, ऐसे पुत्रों की प्राप्ति के लिए कई लोग हजारों मनौतिया मनाते हैं। तुम्हें ऐसे सपूत मिले हैं, और तुम उन्हें साधुओंकी जमात को सौप रहे हो! तुम अभागे हों अभागे।' परन्तु अन्तरात्माने मधुर स्वरमें कहा, 'हे पुण्यात्मा मगनलाल ! तुम जगत में भाग्यशाली हो । तुम्हारे यहाँ जन्मे हुए ये दोनों पुत्र तुम्हारे कुल को आलोकित करेंगे। शासन-ज्योति प्रकटाएँगे। तुम मोहाधीन मत बनो। आत्मज्योति प्रकट करनेवाले पुत्ररत्नों के तुम पिता हो। उन्हे त्याग मार्ग पर जाने में सहायता दो। तुम धन्य हो जाओगे। तुम्हारे पुत्र गुण-गण के स्वामी बनेंगे। हेमचन्द्र के पिताने गहरे मनोमन्थन के अन्तमें निर्णय किया'दोनों पुत्र संयम-मार्ग भले अपनाएँ । पुत्र तो हर भव में मिलेंगे । सूभर और कुत्ते के भव में बहुत से पुत्र होते हैं, उससे क्या लाभ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि ऐसे त्यागपथ पर जाने काले पुत्र कहाँ!' उन्होंने हेमचन्द्र को निकट बुलाकर सिरपर हाथ फेरते हुए कहा-'वत्स। क्या तुम्हें मी संयम मार्ग पर चलना है ? क्या तुम्हें भी आत्मस्वरूप की लगन लगी है ! जाओ बेटा ! तुम भी अपने बड़े भाई के साथ जाओ। मैं तुम्हारे पवित्र कार्य में अवरोध बनना नहीं चाहता। तुम अपनी आत्मा का उद्धार करना और अनेक आत्माओं के उद्धारक बनना। आज जिनशासन निस्तेज होता जा रहा है। तुम इसे पुनः जगमगाता हुआ कर दो। आज शासन की दशा देखी नहीं जाती। तुम जैसे उसका उद्धार करेंगे तो मैं भी सौभाग्य समझंगा। मैं शासनोद्धारक पुत्रों का पिता माना जाऊँगा। जाओं पुत्र, तुम अपने भाई के साथ जाओ।" । रास्ते में बातचीत दोनों भाई अहमदाबाद के लिए रवाना हुए। कपडवंज में कोई नहीं जानता कि वे दोनों किस कामसे जा रहे हैं ! यमुना माता मानती थी कि मणिलाल का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वह भावहवा बदमने जा रहा है। लोगों का भी ऐसा ही खयाल था। केवल पिताजी ही सच बात जानते थे। रास्ते में बड़े भाईने हेमचन्द्र से कहा, 'भाई, यदि लुम्हारा यह सयाल है कि मैं इलाज के लिए या भावहवा बदलने अहमदाबाद जा रहा हूँ, या थोडे दिन आराम करने जा रहा हूँ तो तुम धोखे में हो। जबसे मैंने कपडवंज छोड़ा है तबसे मुझे पूर्ण शान्ति है। मैं परमात्मा के शासन की दीक्षा लेने के लिए निकला हूँ। मैं संसारकी सवामि में बकना नहीं चाहता । तुम्हें जो जंचे सेा करना । मैं अब पहस्प वेष में कपडबंब नहीं माऊँगा।' Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघरसूति हेमचन्द्र ने कहा "ज्येष्ठ भ्राता! भाप जिस राह ना रहे हैं उस राह पर जाने का तो मैंने कभीका निर्णय कर लिया है। मैं कितने ही दिनो से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब मुझे संयम मिले; पंख होते तो मैं ज्ञानी गुरू के चरणों में बैठ कर संयमकी साधना कर रहा होता, परन्तु पंख न होनेसे विवश था। जो आपकी भावना है वही मेरी भी है । मैं संयमी बनूँगा, आत्मानन्दी बनूँगा।" ... इस तरहका अपूर्व भावनामय वार्तालाप करते हुए दोनों भाई अहमदाबाद आ पहुँचे । श्री गुरुचरण में तपगच्छ-गगन-दिनमणि श्री बुद्धिविजयजी महाराजश्री के शिष्यरत्न अपूर्व संयमघर महामुनिश्री नीतिविजयजी महाराज अहमदाबाद की भूमि को पावन कर रहे थे। दोनों भाई उनके चरणकमलों के वंदनार्थ गये । दोनों भाईयोंने गुरुचरणमें स्वस्तिक किये, ऊपर एक नारियल रखा । ....... महात्मा श्री नीतिविजयजी महाराज समझ गये कि 'ये पुण्यात्मा संयम लेने आये मालूम होते हैं, परन्तु नारियल दोनों के वीच एक ही रखा है, अतः फिलहाल एक को संयम मिळेगा। दूसरे को प्रहण करने में देर लगेगी। उसे कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ेगा।' मुनीश्वरने यह भविष्यवाणी मनमें ही दबा रखी। .. गुरुदेवने पूछा-“भाग्यशालिया ! किस शुभ संकल्प से यहाँ आए हो।" - "गुरुदेव ! हम आपके चरणों में दीक्षा लेने की इच्छा ले कर पाये हैं। कृपा कर हमें तारिये। आप हमारे तारणहार गुरु बनिये । हम आपके शिष्य बनने की इच्छा से ही आये है।" दोनों भाइयोंने ऐसा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १७ उत्तर दिया । तब गुरुदेवने पुनः कहा, "महानुभावो ! संयम बा खेल नहीं है । इसमें अनेक कष्ट, अनेक परीषह, अनेक उपसर्ग सहन करने पडते हैं | यहाँ मन चाहा भोजन नहीं मिलता, मिक्षा-चर्यासे जीवन चलाना होता है । अनेक प्रलोभनों के बीच मन को वश में रखना होगा | गाँव गाँव नंगे पैरों घूमना होगा । जादों की भीषण ठंड, चौमासे की बरसात सहन करनी होगी । खुरदरी शय्या पर सोना और खुरदरे सादे वस्त्र पहनना होगा । बोला, वह सब कर सकोगे !” ग्रीष्म का ताप, "गुरूदेव" इतना कहते ही दीक्षार्थी पुण्यात्माओं की आँखे से झर झर आँसु झरने लगे । “भगवंत ! आप जो बातें कहते हैं उनका हमने कई बार विचार किया है । आपने हमारी परीक्षा और हमारे मन की जाँच करने के लिए पूछ। सो बहुत अच्छा किया । कृपामय ! कृपया हमें शीघ्र ही पवित्र दीक्षा दीजिये ।" हेमचन्द्र को असफलता ज्ञानदृष्टि से दोनों दिव्यज्ञानी मुनि जरा ध्यान-मग्न हुए । उन्हें आत्मा सुयोग्य प्रतीत हुए। एक का भाग्य दीक्षा - पोषक था, दूसरे के भाग्य में अवरोध थे, उसे कसेोटी पर चढ़ना था । अतएब भार्षदृष्टा मुनिने बड़े भाई से दीक्षा लेने को कहा और हेमचन्द्र से कहा, " ठहरो मौर देखते रहो ।” बड़े भाईने छोटे भाई से कहा, "भाई हेमचन्द्र ! यद्यपि तुम्हारा वैराग्य मुझसे अधिक है, दीक्षा की भावना तीव्र है, तुम में दीक्षा की योग्यता भी मुझसे अधिक है, तथापि तुम्हारे कर्म कुछ और मालूम होते हैं । परन्तु तुम पुरुषार्थ : करना और दीक्षा ग्रहण करना । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि तुम मुझसे कहीं अधिक समर्थ बनोगे । मैं तुम्हें अन्तिम आशीर्वाद देता हूँ कि "तुम शीघ्र ही अपनी आत्माका कल्याण करनेवाले बनो ।" . . _ महात्मा नीतिविजयजी महाराजने मणिलालको दीक्षा दी। वे मणिलाल मिटकर पूज्य मणिविजय जी महाराज बने । रागी मिटकर त्यागी बने । दीक्षा की प्रतिक्षा - हेमचन्द्र के हृदयको यह बात सता रही थी कि घटादार वटवृक्ष के समान बड़े भाई तो माया के बंधन तोड़ कर चले गये और मैं नहीं जा सका । 'भवितव्यते ! तेरा क्या इरादा है ?' हेमचंद्र अधीरता से चिल्ला उठा, 'मैं संयम अवश्य लूंगा, अवश्य लूंगा।' हेमचंद्रको अपनी दादी के साथ राजनगर से पवित्र धाम भोयणी तीर्थ की यात्रा करने का अवसर मिला । वहाँ जाकर उसने कुमार संयमी श्री मल्लिनाथ भगवान् के पास प्रतिज्ञा की-“हे भगवान् ! मैं दीक्षा लूगा । दीक्षा लिए बिना नहीं रहूँगा। हर हालत में उस पथ पर जाने की मुझे तू शक्ति दे ! भंते ! मुझे त्याग के पथ पर ले चल, मायाके बंधन काट फेकने में सहायता दे । मेरे विघ्न हरा भगवान् ! भगवान् ! अग्निज्वाला के समान संसार में मुझे नहीं जलना है । मैं किसी न किसी तरह संयम अवश्य लूंगा।" . गाँव की गोदमें . .... बड़े भाईने दीक्षा के मार्ग पर प्रयाण किया, छोटा भाई पुनः कपडपंज आया। उनका आना न आना एक सा था। घरमें भी उनका व्यवहार उदासी महात्मा का सा था। सुख-वैभवकी उनके घर में कोई Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १२ कमी न थी। देवांगना के समान प्रेममयी पत्नी प्रार्थना करती थी, परन्तु इस निलेप हृदय पर कोई असर नहीं होता था। वे पत्नी के होते हुए भी भाव-ब्रह्मचारी का जीवन जीते थे। ध्यान, मनन, ज्ञानचर्या तथा कषायजय के हेतु ही सारा समय बिताते थे। सोलह वर्ष की उम्र में ही हेमचन्द्र की ऐसी स्थिति हो गई थी कि उन्हें त्यागी गृहस्थ अथवा स्थितप्रज्ञ कह सकते हैं। माता यमुना, पत्नी माणेक, सास, ससुर और गांव के लोगों के एकत्रित विरोध के बावजूद हेमचन्द्र समताभाव से सर्व नाटक देख रहे थे। पिताजीको भी ऐसी बातों में जरा सा हिस्सा लेना पड़ता था परन्तु उनकी आन्तरिक इच्छा पुत्र के मार्ग को सरल बनाने की थी। पिता की भावना हेमचन्द्र के पिता स्वयं भी दीक्षा लेने की इच्छा रखते थे। वे कई बार प्रातःकाल प्रतिक्रमण के गद यह भावना करते थे, "हे चेतन ! यह शरीर अपवित्र है, नश्वर है, दुःख का सर्जक है। आखिर इस शरीर को अग्नि की धधकती लपटे के बीच रखकर फूंक दिया जाएगा। हे चेतन ! इस शरीर पर आसक्ति, पुत्रादि की ममता, संसार की वासना तुझे कहा ले जाएगी ! _ "पुद्गल की पराधीनता तुझे अनादि अंधकार में डाल देगी, तेरे मात्मा के गुणों को लूट लेगी। मानव जन्म फिर मिलना अत्यन्त दुर्लभ हो जाएगा। जिन शासन की प्राप्ति दुर्लभतर होगी, कषाय तुम्हारे आत्मा के अनन्त वैभव को पल पल लूट रहे हैं। सांसारिक स्खलन एवं स्नेही भी आन्तरिक धन को लूट रहे हैं। आत्मा की किसीको परवाह नहीं है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आगमघरसरि हे चेतन ! तू सावधान हो कर अपना सम्हाल ले, जाग और खड़ा हो जा। : "मेरे पुत्र को पहले संयम की प्राप्ति हो तो अच्छा नहीं तो उसकी माता, पत्नी, सास-ससुर उसे संयम ग्रहण नहीं करने देंगे । असंख्य बिन मालेगे। मैं एक सच्चे पिता के कर्तव्य से च्युत हुआ गिना जाऊँगा । पहले अपने पुत्रको शासन के लिए समर्पित कर दूँ ।" ऐसे विचारों के अन्त में हेमचन्द्रको पास बुलाकर बिठाया और प्रेमपूर्वक सिर पर हाथ रख कर कहा, "बेटा ! तुम मोक्ष-मार्ग के पूर्ण अभिलाषी हो । तुम्हारी मस नस में दीक्षा की भावना थिरक रही है। तुम प्रत्येक श्वास में उसकी इच्छा करते हो। दीक्षा लिए बिना तुम्हें कपडवंज आना पड़ा यह बात तुम्हें हजार बिच्छुओ के डंख से भी ज्यादा ख दे रही है। मैं यह जानता हूँ। मैं तो आज भी यही चाहता हूँ कि तू संयम प्रहण कर । तू अनेक भास्माओं का उद्धारक बनेगा, शासन-स्तंभ बनेगा। .: "मुझ में सामाजिक बन्धनों को तोड़ फेंकने की शक्ति नहीं है, अन्यथा तुम और मैं यही धूमधाम से दीक्षा ग्रहण करते। पांचवें आरे के प्रभाव से आज तो ऐसी मान्यता है कि 'दीक्षा लेना कायर का काम है।' ऐसे विचारों के प्रचार के कारण अच्छे व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करते हिचकते हैं। "प्राचीन काल में महाराजा, राजकुमार, राजरानियां तथा राजकुमारियाँ दीक्षा ग्रहण करते थे । क्या वे कायर थे ! परन्तु आज के युग का दुर्भाग्य है कि असमर्थ हो से साधु बनता है ऐसी लोगों की धारणा हो गई है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसरि "तुम संयभी बनकर चुनौती का सामना करे। । संयम के मार्ग को मुक्त बनाओ। दीक्षा की विजय पताका फहराओ । अपनी माता या पत्नी के माह में न पडना । तुम्हें मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि तुम संयम लो, और साधुओं के सेनानी बनो।" आनन्द का उदधि . पिताजी की बात सुनकर हेमचन्द्र का हृदय आनन्द के उदधि में तैरने लगा। मेरी तो इच्छा थी ही, तिस पर पिताजी ने गुप्त परन्तु दृढ सहयोग दिया । अब मैं दीक्षा लेकर ही रहूँगा । इसके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिए । दीक्षा ही मेरा प्राण है, दीक्षा ही मेरा जीवन हे, दीक्षा ही मेरा सर्वस्व है। माता की ममता माता यमुना को इस बात की खबर लग गई। पुत्र के प्रति ममताने माता के हृदय पर काबू जमा दिया । मेरा पुत्र दीक्षा के यह हो ही कैसे सकता है । महराजा ने यमुना से कहा- "तेरा पति तो पागल हो गया है। वह अपने पुत्र को चित करना चाहता है । उसमें बुद्धि नहीं है । तेरा घर संपत्ति-वैभव, दास-दासी, धनधान्य से परिपूर्ण है । अतः ऐसे रत्न-सम पुत्र को दीक्षा की अनुमति देने की मूर्खता न कर बैठना, किसी भी तरह उसे दीक्षा न लेने देना।" ____ "बेटा हेमू ! क्या तुम दीक्षा लेना चाहते हो !" इतना कह कर माता आगे बढ़ी-“तुम्हारा यह काम नहीं हैं। घर में क्या कमी है ! तुम्हारे बिना मेरा कौन है ? गुलाब की पंखुड़ी जैसी तुम्हारी पत्नी का क्या होगा ? तुम्हारा सुकोमल शरीर गाँव गाँव भटकने के लिए नहीं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર आगमसूर बना है । तुम्हारी मृदुल काया तपस्या के लिए नहीं गढ़ी गई है । तुम्हें धर्म करना है तो घर में करो । दीक्षा तुम्हारा काम नहीं, आइन्दः दीक्षा का नाम न लेना ।" हेमचन्द्र का उत्तर "माँ ! हे माँ ! तू यह क्या कह रही है ? यह सब क्षणिक है, नश्वर है । कर्म-बन्धन करवानेवाला है । मैं अपने अखंड आत्मा की साधना के लिए दीक्षा ही लूँगा । तुम निर्बल न बना । तुम्हें तो मुझ f दीक्षा के लिए तैयार करना चाहिए उस के बदले तुम्हीं मना करती है। यह कैसे चल सकता है ? "संसार मे कौन किस का है ? मैं माया के बंधनों को चीर डालूँगा । माता ! तुम माणेक की चिंता न करो | वह सच्चा माणिक होगी तो दीक्षा लेगी । इस उम्र में यदि मैं परलोक पहुँच जाऊँ ते। ''तुम और माणेक क्या करें ? इसकी अपेक्षा दीक्षा में हेोऊँगा तो जीवित तो गिना जाऊँगा न ?" हेमचंद्र को उसके मित्रा तथा पत्नीने भी वासना का पंछी बनाने • के बहुत प्रयत्न किये परन्तु सब प्रयत्न असफल हुए । सास और ससुर की ओर से भी अनेक प्रलोभन, धमकियां मिलने पर भी हेमचन्द्र अपने निश्चय से तिल भर भी विचलित नहीं हुए । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय सिंह स्वतन्त्र हो गया, परन्तु... शस्य - श्यामला धरती पर अन्धकारने अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया था । पक्षी अपने घोंसलों में छिपे बैठे थे । छोटे बच्चे गहरी नींद सा रहे थे । लगभग सारी दुनिया निद्रादेवी के ध्यान में लीन थी । मात्र संत और शैतान थोड़े जाग रहे थे । संत आत्मध्यान के लिए और शैतान परद्रव्य हरण के लिए । ऐसी काली अंधेरी रात में हेमचन्द्र उठ खड़ा हुआ । विचार करने लगा - "माह की मदिरा से मत्त परिवार मुझे त्याग मार्ग पर जाने देगा हीं नहीं । जिसे दर्द का भान हुआ है वह दर्दी दर्द मिटाने के सभी उपाय करता है । मुझे भी कुछ करना होगा । इस हेतु से मुझे इसी क्षण चले जाना चाहिए ।" बाह्य मनका उपद्रव बाह्य मनने चौंककर कहा- - "अरे हेमचन्द्र ! तू अपनी माँ से दगा करके कहा जाता है ? अपनी सुन्दरी सती नव-वधू के मुसकुराते हुए मुख को देख । उसकी दशाका विचार कर । पागल ! तू जहाँ जामेको तैयार हुआ है वहाँ जरा भी सुख नहीं है । अरे ! सुखका नामोनिशान भी नहीं है । तुझे किसी साधुने धोखा दिया है । अपने घर में बढ़ते हुए धन - पुंज को देख । जिसे पानेके लिए लोग अनीति - अन्याय और खून खच्चर मचाते हैं वह तुझे अनायास मिला है। उसे छोड़ कर Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि आस्मा के अनन्त सुख की मिथ्या भ्रान्ति में न फंस । जा, माताके चरणों में सिर रख कर कह दे-मा, आज से तुम्हारे चरणों में ही जीवन जीऊँगा। मेरी पत्नी से कह दो कि मैं आजसे उसे अपनी सहचरी मानूंगा।' आत्मा और परलोक के झूठे भ्रम को जला दे। ये सब तो धूर्ती की बनाई हुइ श्रमपूर्ण बातें हैं।" . . . हेमचन्द्र सोचने लगा कि "घरको छोड़ना और अन्तिम नमस्कार करना चाहता हूँ उतने में ही यह क्या ? हे मेरे भगवान् ! बचाओ, प्रजाओ।" . . __ अन्तरात्मा की ध्वनि . अन्तरात्मा की मधुर ध्वनि हेमचन्द्र के कानों में पडी-"हेमचन्द्र ! हेमचन्द्र ! तू जिस राह जाना चाहता है वही सही है। माता और पत्नी तुझे रोकती हैं से स्वार्थ-भावना से । तुम्हारे आत्मा का साथी कोई नहीं है । जब घरमें आग लगी हो तब माता या पत्नी काई तेरी राह नहीं देखेगी, सबसे पहले खुद ही घर से बाहर निकल जाएँगी। उस समय तू शयनखंड में साया होगा तो तुझे बचाने काई पास भी नहीं फटकेगा। बाहर मैदान में आकर चिल्लाएगी-'मेरे पुत्रको काई बचाओ बचाओ...' परन्तु स्वयं तो कूद कर नहीं जगाएगी। _ "वत्स हेमू ! तेरा भारमा अनेक भवों के कर्मों के तापसे जल रहा है। तू इसमें से बाहर निकल, गुरु के चरणों में जा, उनकी शरण ले । ऐसा करने से कोई ज्ञानी पुरुष तेरी निंदा नहीं करेगा, बल्कि वाह वाह करेगा, अमुमोदना करेगा । संसार-रसिक जो कुछ कहें उस पर ध्यान नहीं देना चाहिए । इस समय तुम्हारा भात्मा संसार में विस्फोट के साथ जल रहा है। दौड, इस ज्वालामुखी में से बाहर निकल । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसूरि २५ "धन-दौलत और विद्या प्राप्त करने विदेश जानेवालों को माता और पत्नी तिलक करती है । इनमें से कई नहीं लौटते और परलोक सिधार जाते हैं तब ये क्या कर सकती हैं ? तू तो तरने का ही मार्ग अपना रहा हैं, अनेकों को तारनेवाला तारक बननेवाला है । चल, उठ, जल्दी कर ।" हेमचंद्र अन्तरात्मा की आवाज़ के साथ नीरव रात्रि में चल पडा। गाँव के बाहर पैर रखते ही उसे चंद्रने अपनी ज्योत्स्ना से नहला दिया। धीरे धीरे परन्तु दृढ़ कदमों सें बह गया सेा गया । अन्धकारमय प्रभात चार प्रहरका विश्राम कर सूर्य सात प्राची के गगन में आ तो गया परन्तु उदास था । उसका तेज धुंधला था । ज्योंही उसकी पहली नज़र पड़ी त्यों ही "हेमचन्द्र गुम हो गया, हेमचन्द्र गुम हो गया" के समाचार ने उदासी फैला दी थी. - - यह देखकर सूर्य भी उदास हो गया । अपने आँसुओं को छिपाने के लिए उसने अपना मुख क्षण भर के लिए बादल को ओट कर दिया । कर अश्वों के रथ में बैठ किसी अगम्य कारण से वह कपडवंज के हेमचन्द्र के घर पर बात का बतंगड कपडवंज में ये समाचार पधनवेग से फैल गये । सब जानते थे कि वह वैरागी महानुभाव था । उसे दीक्षा की रट लगी थी । कभी न कभी वह किसी साधु के चरणों में साधु बननेवाला था ही । बात का बीज पड गया और तरह तरह की बातें पैदा हुई । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघररि एक ने कहा- 'मूर्ख' कहीं था ? इतनी छोटी उम्र में दीक्षा ली जाती होगी ? दीक्षा लेनी ही थी तो क्या बुढ़ापे में नहीं ले सकता था ? मूर्ख' अभी से चल पड़ा ।' 1 माणेक की कोई सखी बुदबुदाने लगो- 'दीक्षा ही लेनी थी तो मेरी सहेली से शादी क्यों की ? उसका भव नष्ट कर दिया ? मरा रात का चल पड़ा ? दीक्षा में धरा ही क्या है ? किसीने भभूत डाल दी लगती है । यों तो हेमू दीक्षा लें ऐसा था ही कहाँ ? पर अब मेरी सखी माणेक का क्या होगा ? एक स्पष्टवक्ता युबक ने कहा "बहुत दिनों से हेमचन्द्र दीक्षा की बात करता था । यदि उसे यहीं दीक्षा लेने की अनुमति दी होती तो क्या बुरा था ? जिसे संसार में न रहना हो उसे बलात् कब तक रोक सकते हैं ? हेमचन्द्रको अनुमति नहीं मिली इप लिए जाता रहा, इसमें उसका क्या दोष ?" इतने में कंकू काकी उबल पड़ी - 'मरा माणेक का बाप | हेमू तो पहले ही कह रहा था- मुझे ब्याह नहीं करना है। मैं दीक्षा लेने वाला हूँ, मेरी शादी मत करो, परन्तु उस समय मगनलाल का धन देख F कर माणेक के पिताने अपनी लड़की हेमू के साथ व्याही | अच्छा घर देखने गया पर जब बर की इच्छा न हो और जबरदस्ती शादी की जाय तो यही नतीजा निकले न ? देव ही जानता है कि बेचारी माणेक का क्या होगा ? ' झमकूमाई ने बीच में अपना राग अलापा – जब हेमिये ने शादी से इनकार किया था तभी माणेक का भी इनकार करना चाहिए था । क्या यह पगलीं नहीं जानती थी कि मैं जिससे ब्याहने चली हूँ वह तो Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागभधरसरि २७ ध्याहने से पहले ही दीक्षा की बात कर रहा है । माणेकको सोचना चाहिए था कि मेरे स्वामी दीक्षा लेंगे तो मैं क्या करूँगी ? इस. में उसके पिताका क्या दोष ? जम्बुस्वामी की पत्नियोंने दीक्षा ली थी उस तरह से अब इस माणेक को भी दीक्षा लेनी चाहिए।' इन सबके के बीच यमुना माता, माणेक, ससुर और सास, माहकी ऐसी घबराहट में पड़ गये कि क्या करें और क्या न करें इसका तुरन्त निर्णय नहीं कर सके। सौराष्ट्र में संयम अंधेरी रातमें रवाना हुआ वीर हेमचन्द्र कहीं पैदल तो कहीं पाहन में सफर करता हुआ गाव, नगर, उपवनेका पार करता हुभा सौराष्ट्र की भूमि पर आ पहुँचा। पूज्य प्रवर आगमज्ञाता विद्वर्य मुनीश्वर श्री झवेरसागरजी के चरण-कमलों से पूत बनी लिंबडी नगरी में मुक्तिपुरी का अदम्य प्रवासी हेमचन्द्र आ पहुँचा । गुरुदेव श्री झवेरसागरजी महाराज के पास आकर विधिपूर्वक वंदनादि किया। अवसर देख कर पूज्यश्रीने आगन्तुकसे पूछा "महानुभाव ! किस उद्देश्य से आये हो ?" . भंते ! मैं कई महीनेसे संयमकी अभिलाषा पाल रहा हूँ। पहले भी संयम लेने के प्रयत्न किये थे परन्तु भाग्यने साथ नहीं दिया। भाज आपके चरणों की शरण में आया हूँ। कपड़वंज छोड़े आठ दिन हुए । एक मात्र अमिलाषा-एक ही तमन्ना-एक ही अरमान है कि मुझे संयम-पथ का पथिक बनाइये । गुरुदेव ! मेरा उद्धार कीजियेउद्धार कीजिये। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सरि पूज्य महात्माने नये आगन्तुक की अच्छी तरह पूछताछ करके जाँच कर ली । उनके मनकेा प्रतीति हुई कि यह पात्र उत्तम ही नहींउत्तमोत्तम है । दीक्षा अंगीकार करने के बाद यह शासनका कर्णधार बनेगा । वे महात्मा अपने ज्ञान से नये आगन्तुक की आँखों में ऐसा तेज निहार सके । यह भी देख सके कि बीच बीच में उपसर्ग और उपद्रव भी होंगे । २८ हेमचन्द्र का शुभ दिन और मंगलमय मुहुर्त में चतुर्विध संघ समस्त की सामूहिक उपस्थिति में दीक्षा दी गई । जब धर्म - ध्वज रजेाहरण उसके हाथ में आया तब उसके आनन्दका पार न रहा। कई महीनों से जिस दिन की राह देख रहे थे वह आज आ गया । आज का दिन धन्य था, आज की घड़ी धन्य थी । हेमचंद्रका सोलहवां साल चल रहा था, और विक्रम संवत् १९४६ बीत रहा था । संसारी में से साधु बने हुए हेमचंद्र ज्ञान, ध्यान, तप, संयम की आराधना करनेमें बहुत ही तत्पर बने । संयम की मर्यादाओं का पालन करते थे। नवकल्पी विहार कर अहमदाबाद पहुँचे । इस साधुवृन्द का कल्पना भी नहीं थी कि सैंकडों जिनमन्दिरों एवं हजारे। जैन घरों से शोभित क्षेत्र में महा-उपसर्ग आएगा । परन्तु कालबल अद्भुत था । संघ - बल छिन्नभिन्न था। नेताहीन टोली की सी दशा श्रावक संघ की थी । धर्म अन्तिम साँस ले रहा था । त्यागी वर्ग का साथ और आश्रय देने की बात मिट चुकी थी । ऐसी हालत में अनजाने यह मुनिवृन्द राजनगर आ पहुँचा । - ? उपसर्गों का आरम्भ मुनि हेमचन्द्र अहमदाबाद में अध्ययनादि कर रहे हैं यह खबर कडवंज में पहुँच गई । परिवार के लोग विरह-व्यथा में से जरा स्वस्थ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरहरि २९ हुए ही थे कि ये समाचार मिले । तुरन्त पावन को पतित करने की योजना बनाई । यमुना माता को यह निश्चित ज्ञात हो चुका था कि उसकी शक्ति काम नहीं देगी, साथ ही सास-ससुर, स्वजन, स्नेही तया धर्मपत्नी का बल भी कोई असर नहीं करेगा । अतः राज में फरियाद की । सरकार और न्यायालय संसारी का पक्ष ही अधिक लेते हैं। सतयुग की बात जाने दीजिए, यह कलियुग की सरकार की बात है। राज्याज्ञा हेमचंद्र को गुजरात राज्य के बड़े अधिकारी की ओर से एक आज्ञापत्र मिला । उसमें लिखा था, "तुम साधु वेष त्याग कर अपने गाव चले जाओ । वहां तुम्हें गृहस्थ-जीवन बिताना है । तुम विवाहित हो, अतः अपनी पत्नी के भरण-पोषण के अतिरिक्त उसे सन्तोष देने के लिए भी जिम्मेदार हो । तुम इस फर्ज से मुक्त नहीं हो सकते । तुमने आवेश के कारण वा अन्य किसी भी कारण से दीक्षा ली हो, तो यह पत्र मिलते ही दीक्षा छोड़ दो यह राज्य का हुक्म है ।" राज्याज्ञा का उत्तर राज्य का आज्ञापत्र पढ़ कर मुनि हेमचन्द्र सोच में पड़ गये । सुनिप्रवर झवेर सागरजी ने सोचा कि यह अप्रत्याशित उपसर्ग भाया है। उपसर्ग तो आनेवाला था परन्तु जैन नगरी होते हुए भी श्रमण का पक्ष लेनेवाला कोई मौका पूत सामने नहीं आया । बिना मूठ के हथियार अनुपयोगी होता है, उसी तरह अकेले महात्मा प्रवेरसागरजी. भी क्या कर सकते थे !. .. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधररि .. फिर भी वीरता के अधिष्ठाता मुनि हेमचन्द्र ने मुख्य राज्याधिकारीको उत्तर दिया- "मैं गृहस्थ बनना नहीं चाहता । मैंने अपनी इच्छा से दीक्षा ली है । मैं उसे आमरण पालना चाहता हूँ। मैंने अपनी इच्छासे जो वस्तु अंगीकार की है वह गलत या बुरी नहीं बल्कि आध्यात्म-युक्त कार्य है। मैं अपनी पत्नी के सन्तोष या भरण पोषण का जिम्मेदार नहीं हूँ न मेरा यह फर्ज ही है, क्यों कि मैंने शादी करने से साफ इनकार किया था । बलपूर्वक मेरी शादी की गई है, अतः मैं जिम्मेदार नहीं हूँ परन्तु बलपूर्वक शादी करवानेवाले जिम्मेदार हैं, मैं ने किसी भावेश, आवेग, उद्वेग या ऐसे किसी अन्य कारण से दीक्षा नहीं ली है, अतः मुझे दीक्षा छोड़ने का कहना न न्यायसंगत है न युक्तियुक्त । इसलिए यह राज्याज्ञा वापस ली जानी चाहिए, और इसीमें न्याय-संगतता है।". . .. . ... दूसरी राज्याशा मुख्य राज्याधिकारी इस उत्तर से सोच में पड़ गये । कुछ देर तो उन्हें भी लगा कि बात तो अवश्य विचार करने योग्य है । फिर दूसरी भाशा दी "तुम साधुवेष छोड़ना न चाहा तो कोई बात नहीं, तुम कपडवंज जाकर अपने अभिभावकों के साथ घर में रहो, घर का भोजन करो और साधुवेष कायम रखा।" .. कानून कई बार अन्धा और तर्कहीन होता है। उसे ज्ञान या भान नहीं होता । कानून परिस्थिति को नहीं समझ सकता। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगमधरसरि ३१. : अग्नि सन्त और शैतान को समान गिनती है और दोनों को अलाती है । उसी तरह कानून भी संत और शैतान को हैरान: करता और जलाता है। अंधे कानून के अधीन होकर हेमचन्द्र को घर लौट जाना पड़ा. परन्तु वेष तो मुनिका ही रखा । वेष उतरवाने के अनेक प्रयत्न किये गये । मी का रुदन, पत्नीका विलाप, ससुर की धमकी, स्वजनों का समझाना-बुझाना, स्नेहियों का स्नेह सब व्यर्थ गया तब पुनः सरकार के पास पहुँचे। अबकी हेमचन्द्रको न्यायालय में जाना पड़ा । वहीं उन्होंने वकील नियुक्त नहीं किया । सत्रह वर्ष की उम्र में स्वयं ही अपने वकील बने । स्पष्टवक्ता • "मेरे विरुद्ध आज जो मुकदमा पेश हुआ है उसके विषय में मैं एक जैन साधु के तौर पर नीचे मुताबिक कैफियत पेश करता हूँ आज मुझ पर दावा किया गया है और उसके द्वारा मुझे संसार में लौटने को मजबूर किया जा रहा है, परन्तु इस तरह मजबूर करना बिल्कुल गैरवाजिब है। मैंने अपनी शादी के वक्त बार बार चेतावनी दी थी कि मैं संसार में जुड़ना नहीं चाहता, इतना ही नहीं बल्कि जैन साधु बनना चाहता हूँ, और इसलिए दीक्षा लूंगा। मेरी ऐसी स्पष्ट चेतावनी के बावजूद जबरदस्ती मेरी शादी की गई थी। अतएव अब. मेरे दीक्षा-प्रहण से जो परिणाम आएँ उनके लिए मैं : उत्तरदायी नहीं है, परन्तु अबरदस्ती से मेरी शादी करनेवाले ही उत्तरदायी हैं। ... Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आममधर सूरि इस कारण मैं साधुवेष छोडना नहीं चाहता । सदा इसी वेष में रहना चाहता हूँ । प्रहण की हुई दीक्षा बनाये रखने का ही मेरा इरादा है ।" ३२ त्यागी से रागी कुछ समय बाद उन्हें संयमी वेष छोड़ना पड़ा । फिर जैसे थे वैसे बन गये । व्रत गये, नियम गये, त्याग और वैराग्य गये । वासना हावी हो गई, उपासना जल गई । रंग-राग उभरने लगे, मौज-शौक झलकने लगे । उनका व्यवहार ऐसा हो गया कि किसी को भी यह सन्देह होने लगे कि क्या यह भी कभी साधु बना होगा ? बाह्य दृष्टि से वे पूर्ण विलासी संसारी हों गये । कोई अन्तरको नहीं पहचान सका कि यह तो एक नाटक था । अरे, खुद पिताजी भी चिंतित हो उठे । मेरा पुत्र ऐसा - संस्कार-धाम से संस्कारहीन — बन गया ? न धर्म न ध्यान, स्वाध्याय, न वाचन ? स्वाध्याय से भी च्युत ? वस्तुतः यह सही नहीं था । हेमचन्द्र का बास्तविक आन्तरिक स्वरूप कोई देख सका न जान सका । - न कंठे ( आभूषण - विशेष ) की चाह एक दिन पत्नी ने एकान्त में कहा - स्वामि ! आप मुझे क्या नई डिजाइन के जेवर नहीं बनवा देंगे ? एक सुन्दर कंठा बनवा दीजिए । ये पुरानी डिज़ाइन के मेरे आभूषण ले लीजिए और मुझे नये बनवा दीजिए । बेचारी भोली नारी । क्या यह हेमचन्द्र तेरा बना है ? याद रख, " यह तुझे बनाकर फिर चला जाएगा । इस वक्त जो कहना हो सेा कह के, माँगना हो से माँग ले; थोड़े दिनों बाद नया खेल देखना । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसुरि ३३ प्रियतम हेमचन्द्रने कहा-"लाओ, तुम्हें रत्नजटित कंठाभरण बनवा दूं। उस आभूषण को पहन कर तुम स्वर्ग-सुन्दरी बन जाओगी। तुम्हें भी अपना जीवन धन्य मालूम होगा। तुम्हें परी के रूप में देख कर मैं भी खुश होऊँगा। इन पुरानी डिज़ाइन के गहनों से नया कंठाभरण बनवा कर तुम्हें पहनाऊँगा।" आभूषण भाया अथवा गया ? हेमचन्द्र ने पिताजी से बात की। मुझे पत्नी के लिए इन पुगने गहनों में से नई डिजाइन के अलंकार बनवाने हैं, सो आप बनवा. दीजिए, या मुझे अनुमति दें तो मैं बनवा लूँ। "हेमचन्द्र ! देखो, मुझे कुछ दिनों बाद अहमदाबाद जाना है। तुम भी मेरे साथ आना। अपनी पत्नी के लिए तुम्हें जैसे ऊंचे वैसे जेवर बनवाना।" पिताजीने कहा। - "पिताजी, मैं आपके साथ आऊँगा।" हेमचन्द्र ने उत्तर दिया। माता यमुना और पत्नी माणेक को अलंकार बनवाने के लिए अहमदाबाद जाने के समाचार मालूम हो गये। उन्हों ने सोचा, पुनः नहीं लौटेंगे तो ? हमारा जीता जागता चेतन अलंकार चला जाय, तब जड़ अलंकार की क्या जरूरत ?" माता और पत्नी ने कहा, "हमें गहने नहीं चाहिए । तुम्हें अहमदाबाद जाने की जरूरत नहीं।" ससुर तथा अन्य स्वजन भी आ गये। कहने लगे- "अलंकार नहीं बनवाने हैं। अलंकारों के बदले कहीं हमी बन जाएँगे तो ! अतः तुम अहमदाबाद नहीं जाओगे।" __"मैं कोई आपका गुलाम नहीं हूँ, मैं स्वतन्त हूँ। मैं जहाँ जाना चाहूँ वहाँ जाने का मुझे अधिकार है। आप मुझे नहीं रोक सकते।" हेमचन्द्र का ऐसा उत्तर सुनकर सब मौन रह गये । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि . पिता और पुत्र अहमदाबाद गये। वहाँ वे विद्याशाला में उतरे। मार्ग की तथा कार्य की थकावट थी, अतः रात को देर से नीद आई। सुबह उठने में देर हो गई। प्राची में सूर्योदय हुआ, परन्तु ये भाग्यवान् नहीं उठे। देर से उठने पर एक नित्य-नियमित श्रावकने ठंडी आवाज में कहा धर्मबन्धुका संकेत "भाई हेमचन्द्र ! तुमने तो सामायिक, प्रतिकमण आदि सब कुछ छोड़ दिया। यह तुम्हें शोभा नहीं देता।" पूर्व परिचित श्रद्धालु श्रावक के मुख से ऐसे वचन सुनकर हेमचन्द्रका सिर झुक गया । लज्जा-भार से नेत्र नत हो गये। धीमी दृढ आवाज मैं उत्तर दिया 'धर्मबन्धु ! छोड़ा है परन्तु पुनर्ग्रहण के लिए। . ऐसे तो हेमचन्द्र हृदय से वैरागी थे ही। उन्हें उत्कंठा • थी ही किं पुनः मुनि वेष कब प्राप्त हो । इसी हेतु से अहमदागद आए थे। रात को श्री जंबुस्वामीजीका रास-पय-बन्ध-चरित्र-पढ़ा था। अतः जागरण हुआ था-रात को देर से सोये थे। . प्रातः क्रिया एवं नित्य-नियमों से निवृत्त हो, दोपहर का भोजन कर अतिथिगृह में आराम करने के लिए बाई करवट लेट रहे थे । उस समय हेमचन्दने पिताजी से कहा-"पिताजी ! आप मुझे दीक्षा दिलवा दीजिए । मेरा मन भाज दीक्षा के लिए उत्क ठित है। कृपया अब मुझे कपड़वंज न ले जाइये । गत रात्रि में श्री जम्बुस्वामीजी का चरित्र पढ़ते समय दृढ़ निर्णय किया है कि मैं दीक्षा लूँगा। आप कपा कर सहयोग दीजिए।" "बेटा हेमचन्द्र ! मैं तुम्हारी भावना में विघ्नभूत नहीं बनूंगा।" . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय संयम और ज्ञान गुरु के चरणों में यशस्वी और तेजस्वी महात्मा झवेरसागरजी महाराज के चरणों में हेमचन्द्र ने विक्रम संवत् १९४७ माघ शुक्ला ५ के दिन पुनः उल्लास पूर्वक दीक्षा ग्रहण की । हेमचन्द्र कुमार से मुनि आनन्दसागरजी महाराज बने । एक दिन की आशा आज फलीभूत हुई । उनका रोम राम उमंग से प्रफुल्लित था । सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो कर सच्ची स्वतन्त्रता की आभा उनके मुख पर चमक रही थी। अब तो दीक्षा के मार्ग पर आगे कदम बढ़ा रहे थे । पुत्र के मार्ग पर पिता श्रेष्ठी श्री मगनलाल कपड़वेज गए । सास-ससुर माह में चकचूर थे । मगनलाल को अकेले आये हुए देख कर वे लोग उन पर ऐसे टूट पड़े जैसे शिकारी शिकार पर टूट पडते है । अपशब्दों की वर्षा कर दी । हैरान-परेशान करने में कोई कमी न रखी । मगनभाई के मनेारथ युद्धखार को भी शांतिबादी जीत सकता है, इस नियम के अनुसार समता के सागर जैसे श्री मगनभाई ने सब कुछ सहन किया, और उचित मार्ग अपनाया । उनके मन-मंदिर में एक हलचल मच गई - क्या संसार Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि ऐसा है ? काई आत्मा आत्मकल्याण के मार्ग पर जाता हो तो उसमें विक्षेप पर विक्षेप डालते रहना ! धन-दौलत, माल-असबाब, और स्वजने का यही दुःखद स्वरूप है ? समय पर कोई किसीका नहीं होता। ऐसे काजल-काले कारागार में रह कर मैं कब तक सड़ा करूँगा ? ऐसे विचारों के जोर पर व्यवहार के कार्य मगनभाई ने जल्दी निपटा दिये। तत्पश्चात् सिद्ध गिरि राजकी यात्रा के लिए रवाना हुए। देवाधिदेव के दर्शन कर कृतार्थ हुए । भगवान् की स्तुति कर प्रार्थना करने लगे भावना सफल हुई 'हे संसार के तारक ! तू सब को तारता है, पर मुझे क्यों नहीं तारता ? मेरा कौनसा अपराध है ? प्रभो ! अब तो तेरा शासन मेरी नस नस में रम रहा है। कपडवंज छोड़ आया हूँ, अब लौट कर नहीं जाऊँगा । करुणासिंधो ! मुझे चारित्र की प्राप्ति हो, भव-भव में प्राप्ति हो, तेरा सेवक बनूँ, तेरी आज्ञाका पालक बनें । हे भगवन् ! तेरे सिवा मेरा कौन है ! तू विश्वका उद्धारक है, तो मेरा भी उद्धार कर।' यात्रा करके रवाना हुए । प्रतापी मुनीश्वर श्री प्रताप विजयजी से भेंट हुई । उनके चरणों में सर्वविरति महाचारित्र स्वीकार किया । इसे कहते हैं 'भावना भवनाशिनी।' वीर संवत् २४२० का मंगलमय वर्ष था। श्रेष्ठी मगनभाई भिटकर मुनिप्रवर श्री जीवविजयजी महाराज बने । विहार और महाविहार नूतन मुनि जीवविजयजी पूज्य गुरुदेव के साथ संयम की साधना करते हुए प्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे। सुन्दर तप-जप करते थे। वयोवृद्ध होने के कारण अधिक ज्ञान की आशा नहीं थी, फिर भी योग्य Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि प्रयत्न करते और समिति-गुप्ति-धर्मोका एवं दस यतिधर्मोका सुन्दर पालन करते थे। इस तरह विहार करते हुए पेटलाद नगर में पधारे। अलग अलग स्थान पर अलग अलग गुरुदेवों से संयम प्रहण करने वाले पिता और दो पुत्रोंका देवयोग से आज संयमावस्था में पेटलाद नगर में मिलन हो गया। पूर्वावस्था के अपने पुत्रों का संयम की उत्तम आराधना करते देख कर पिताकी आत्माको बहुत शांति मिली। उन्होंने मुनित्वको प्रकाशमान करनेका आशीर्वाद दिया। समय कभी नहीं रुकता। वह तो सतत अविरत गतिसे चलता जाता है। उसमें कब क्या होनेवाला है यह तो अनन्तज्ञानी के सिवा कौन जान सकता है। मुनिराज श्री जीवविजयजी एकाएक दर्द के शिकंजे में आ गये । सुयोग्य एवं निरवध औषधोपचार शुरू किया परन्तु...परन्तु दो वर्ष के अल्प दीक्षा-पर्याय में अल्पजीवी व्याधि में आषाढ़ शुक्ला २ के दिन उनका जीवन-दीप बुझ गया । मुनि जीवविजयजी काल-धर्म को प्राप्त हुए । थोड़े समय में ये महानुभाव साधना कर गये। ___ अध्ययन में संकट गुदड़ी के लाल के समान मुनि आनन्द सागरजी उत्तम शास्त्राध्ययन कर रहे हैं। श्री गुरुदेव ज्ञानी हैं। शिक्षा देने का कार्य भी सुचारु रूप से चल रहा है, फिरभी एक बात की बड़ी भारी कमी थी। मुनिवर श्री आनन्द सागरजी को व्याकरण सीखने की उत्कंठा . जगी । गुरुदेव सहमत हुए । उस लघु व्याकरण का नाम 'सिद्धान्त-रत्निका' था । परन्तु वह या उसके जैसे दूसरे व्याकरण कहाँ से लाये जाएँ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि प्रयत्न शुरू किये परन्तु कहीं ढंग नहीं बैठा । जगह जगह ज्ञान-भंडारों के अध्यक्षों और कार्य-वाहको को कहलवाया । परन्तु एकाधिकार और संपूर्ण-स्वामित्व भोगनेवाले उपाश्रयों के श्रावक ठेकेदारों को लाखों के मूल्य की पुस्तके दीमक के हवाले करने में अपनी हेठी नहीं लगती थी परन्तु उन्हे एक पवित्र और अध्ययनशील साधु के हाथ में छोटासा ग्रन्थ सौंपने में कंपकंपी छूटती थी। उस समय व्याकरण जैसे प्रन्थ मिलना मुश्किल था तो आगमों की तो बात ही क्या ... इस तरह के दकियानूस अग्रणियों की बदौलत करे।डों के मूल्य के और पवित्रताके प्रतीक-से आगम-ग्रन्थ, चरित्र आदि शीर्ण-विशीर्ण है। गये हैं। ये लोग आगम-प्रन्थों को अंधेरी कोठरी में बन्द रखने में अपना मनगढंत धर्म मानते थे। गुरु और शिष्य-दानों व्याकरण की खोज में प्रयत्नशील थे, परन्तु शीघ्र परिणाम नहीं आया । छः महीनों के सतत और सख्त परिश्रम के बाद किसी सज्जन के हृदय में भावना जगी और उसने अंधेरी कोठरी की अलमारी में बन्द एक व्याकरण की प्रति-सो भी अपूर्ण और दीमक लगी हुई-निकाल कर दी। फिर भी उक्त कार्यकर्ता को धन्यवाद देना ही रहा। व्याकरण का अध्ययन शुरू किया। केवल नब्बे दिनों में यह ग्रन्थ कण्ठस्थ कर लिया, सेो भी मत्र-मात्र नहीं, परिपूर्ण अर्थ के साथ । जिस ग्रन्थकी प्राप्ति में एक सौ अस्सी दिन लगे उसे सीखने में केवल नब्बे दिन । इस घटनासे प्रन्थों की दुर्लभता की कुछ कल्पना आप कर सकेंगे। ऐसी अनेक मानव-निर्मित कठिनाइयों की आधी के बीच भी अगाध परिश्रम तथा अदम्य उत्साह के साथ अध्ययन जारी रखा । पुस्तकों तथा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि अध्यापकों के अभाव में भी अद्वितीय विद्वान् बननेवाले महापुरुष और अनेक सुविधाओंके बीच भी विद्वान् नहीं बननेवाले कितने अमिनन्दम के पात्र हैं ? छत्र छिन गया अनेक आवरणों के बीच अदम्य उत्साहके बल पर शिष्यको अध्ययन करते हुए देखकर गुरुदेवको आनंद होता था, परन्तु विधाता यह आनन्द देख नहीं सका। गुरुदेव भले चंगे थे, अचानक बीमार पड़े। बीमारी बहुत मामूली थी परन्तु वह प्राणान्तक सिद्ध हुई । वे कराल काल के 'खप्पर में समा गये। वीर सैनिक की तरह वे समाधि-पूर्वक गये, परन्तु गये सेो गये। कराल काल की विकरालताने मुनि आनंदसागरजी का आनन्द छीन लिया। नूतन दीक्षित मुनि छत्र-रहित हो गये। छत्र छिन जाने के बाद महामुनिकी स्थिति विकट हो गई । गुरुके प्रति प्रेमने हृदयको झकझोर दिया। गुरुका विरह बडा कठिन प्रतीत हुआ। इनकी नाव अभी तो मॅझधार में थी, उतने में कर्णधार स्वनाम-धन्य बनकर चला गया। नौ महीने का दीक्षा-पर्याय हुआ था। धीरे धीरे स्वस्थता लाभ कर पुनः स्वाध्याय, ध्यान, तप संयमादि में लीन बने । मरुधर की ओर दसरा वर्षावास अहमदाबाद, शाहपुर में किया। वहा से मेवाड़ की ओर विहार किया। उस समय उदयपुर की गद्दी पर विराजमान यतिवर्य श्री आलमचन्द्रजी नम्र एवं सरल स्वभाव के थे। वे संवेगी साधुओं के प्रति सदभाव रखते थे। ज्ञानवान् भी थे । अतः ज्ञान प्राप्ति की भावना से उनके पास गये। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरत्रि ... - यह भी समय की बलिहारी थी कि उस समय साधुओं की संख्या अंगुलियों पर गिनने जितनी थी। लगभग पैंतालीस-अड़तालीस साधु होंगे। उनमें भी आधे तो वयोवृद्ध और केवल स्वकल्याण कर सके ऐसे थे। उदयपुर में अध्ययन करते थे परन्तु संयमका पालन सचमुच बड़ी सावधानी से होता था। अध्ययन के नाम पर अपवादों की मिलावट करना उनके स्वभाव में ही नहीं था। वे ज्ञानमूर्ति बनने से पहले सयम की जीती जागती प्रतिमा बन चुके थे। .......-.------- पदापण पाली में पदार्पण . वर्षावास (चातुर्मास) से पहले थोड़ा सा विहार करने की भावना से उदयपुर के आसपास के प्राम्य-विस्तार में गये। . उस समय पाली में मूर्तिपूजा के कट्टर शत्रु स्थानक-वासियों के झुंड उमड़ आये। मूर्तिपूजा के श्रद्धालु श्रावक विद्वान् यतिवर्य श्री भालमचंदजीके पास उदयपुर दौड़े। उन्हें अपने नगर पर आये हुए खतरे की जानकारी दी और कहा कि वहाँ आये हुए स्थानकवासी साधु विद्वान् माने जाते हैं। कंठ मधुर है । अच्छा गाने और बोलने का अभ्यास है। इसके द्वारा लोगों को आकर्षिक कर मूर्तिपूजा का विरोध कर रहे हैं। आप पाली पधार कर उनका सामना कीजिए। हम आपकी अच्छी तरह सम्हाल रखेंगे। . ... यतिवर्य ने कहा 'आप घबराइये नहीं । मैं आपको संवेगी मुनि मानंद सागरजी के नाम सिफारिश-पत्र लिख देता हूँ। वे युवक हैं, विद्वान् और तेजस्वी है आपके संघ के लिए उपकारक सिद्ध होंगे । लो यह पत्र।' Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आममघरसरि सिफारिश-पत्र लेकर पाली-संघ के नेताओने गाँव-गांव जाकर.इन मुनिवर को ढूंढ़ निकाला । विधिवत् वंदनादि किया । पाली को चातुमास का लाभ देने की प्रार्थना संघ की ओर से की। विकट परिस्थिति की सारी बात बता दी और अन्त में यतिवर्यजी का पत्र विनयपूर्वक उनके हाथ में दिया । मुनिवर्य श्री आनंद सागरजीने पत्र पढा । संघ की बातचीत पर से पाली संघ पर आई हुई आफत का अनुमान हुआ । ऐसे संकट काल में शासन को समर्पित होनेवाले का क्या कर्तव्य होता है । इसका विचार करने लगे। थोड़ी ही देर में क्षात्र तेजेोचित निर्णय किया और संघ के अग्रणी श्रावको से मधुरवाणी में कहा, "भाग्यशालियो ! ऐसे कसोटी के समय में श्रावकों की विमती न हो तो भी शासन रक्षा की खातिर किसी भी पराक्रमी साधु का शासन के सैनिक के नाते आना ही चाहिए। तिस पर आप लोगों की प्रार्थना है, यतिवर्य का भाग्रह है, तब तो अवश्य आना चाहिए । फिर भी जैन साधु के नाते जतला देता हूं कि क्षेत्र-स्पर्शना होगी तो भावना रसूंगा। संघ के अग्रणी 'जिन शासन देव की जय' बोल कर उठे, सस्मितवदन, प्रसन्नचित्त पाली पहुंचे। संघ में भानन्द की लहर फैल गई। उजड और अज्ञान से भरे हुए शासन द्रोही, मदिरापी आत्माओं के सहवास से उन्मार्ग पर चढे हुए लोगों से बसे हुए कस्बों और गांवों में विचरण करते हुए मुनिवर श्री आनन्द सागरजी पाली नगर के द्वार पर पधारे । ... पाली नगर के संघ का उत्साह अन्ठा था । हमारे आँगन में भनजाना दिव्य पुरुष आ रहा है-इस उमंग के साथ स्वागत-यात्रा की Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राममधरसूरि अपूर्व तैयारी हो रही थी । उस दिव्य पुरुष के आगमन के समाचार मिलते ही संघ के उत्साह में बाढ़ आ गई । बड़े ठाठ बाट से सामेला शुरू हुआ । ४२ यह नरकेसरी दिव्य पुरुष एकाकी थे, विचित्र कालबल की यह भी बलिहारी थी । सामेले में बडी बडी पगडिया और अंगरखे पहने हुए लंबे चौड़े डीलडौल और मजबूत शारीरिक गठनवाले मरुधर के अमणी आए हुए थे । सामेला विजयस्वरें। के साथ भीरे धीरे आगे बढ रहा है । दूसरी और उसमें चुपके चुपके धीमी कानाफूसी हो रही है । एक धीमे स्वर ने दूसरे के कान में कहा - 'हमारे मुखिया लोग अच्छा साधु पकड़ लाये हैं । यह बेचारे उन मदमस्त झुंडों के सामने क्या करेंगे ?' महामुमि की देह दुर्बल थी, गठन में माटे थे । परन्तु वे एक छिपे हुए रत्न थे । कोहिनूर की तरह बाह्य नूर उनके नहीं था । अंदर के नूर का सामेलेवाले देख नहीं सके थे । मैला शरीर, मैले कपडे-अनजाने होग कैसा अनुमान लगाते । ऐसी शंका फैलने लगी कि कहीं हमारे संघ की नाक तो नहीं कटेगी ? आखिर सामेला जिनमंदिर पहुँचा । वहाँ दर्शन, चैत्यवंदन करके उपायको पधारे। 'इरियावहिया' आदि करके व्याख्यान के व्यासपीठ पर दुर्बल और नाटे शरीरवाले महात्मा बिराजमान हुए । "धम्म मंगलमुक्किट्ठ गाथा पर विवेचन शुरू हुआ । अच्छा खासा डेढ़ घंटा बीत गया । व्याख्यान समाप्त हुआ, तब शंका करनेवाले और न करनेवाले सभी श्रोता आनंद विभोर होकर नाच उठे । .. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि प्रभावकता की छाप चातुर्मास आरंभ हुआ । व्याख्यान में ठाणांगजी सूत्रका पठन शुरू हुआ । आगत मुनिवर सामान्य नहीं, अपितु महान् हैं, यह बात दल बाँध कर आए हुए स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधुओं का ज्ञात हुई । उन्होंने सब आडम्बर त्याग कर शान्ति धारण की। उनके मनको पक्का निश्चय हो गया कि यह एक दुर्बल सवेगी साधु ज्ञान में हम सब से प्रबल है । चौमासा बहुत हीं अच्छा हुआ, और मुनि तो फिर विहारको रवाना हुए। मारवाड़ में स्थानकवासी तथा तेरापंथी सम्प्रदायका काफी सामना करना पड़ता था । ४३ साधुको अकेले नहीं उम्र छोटी थी, सिंह की तरह एकाकी थे । रहना चाहिए - यह उत्सर्ग मार्गीय शास्त्राज्ञा है । उन्हें इस आज्ञाका ध्यान था; परन्तु गुणाधिक अथवा समगुणी मुनि न मिले तो अपवाद स्वरूप एकाकी विहरने की आज्ञा थी । यही आज्ञा पालनी पड़े ऐसी उनकी परिस्थिति थी । दूसरी ओर श्री आगम आदि के अध्ययनकी इन्हें तीव्र अभिलाषा थी, परन्तु गुरु कौन हो ? कहाँ और कौन आगम पढ़ाए ? यह विचित्र और उलझनभरा प्रश्न था ! 'मुझे कोई पढानेवाला नहीं है, ऐसा निर्माल्य उत्तर भी देने को वे तैयार नहीं थे । अति उत्कट इच्छा और सच्ची भावनाने एक अद्वैत गुरु खोज लिया । आगम-अध्ययन विषयक स्वप्न ढलती संध्याका समय था । मरुधर की धधकती धरती पर विचरते हुए ये मुनीश्वर स्थंडिलभूमि ( शौच के लिए ) गए थे । पक्षी अपने घोंसले को लौट रहे थे । गायें चरागाह से चर कर गाँवकी ओर लौट रही थीं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघर सरि ऐसे समय में ये मुनीश्वर नदी के किनारे खड्डे में कर लौटते हुए एक प्राचीन और जीर्ण मंदिर के ४४ शौच क्रिया से निपट बाहर बिराजे । 1 विचारमग्न रहना तो इन मुनीश्वर का व्यसन का । फिर भी इन विचारों में कभी बुराई की बदबू नहीं आती थी, उन में सद्भावना के सुगंधित धूम की महक ही निकलती थी । वे विचार कर रहे थे 'कि 'मुझे आगम कौन पढ़ाएगा ? कहाँ पढ़ने जाऊँ ?' परन्तु कोई उत्तर नहीं मिलता था । उपाश्रय में आकर प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, और संथारा पोरिसी की परन्तु नींद किसी कदर नहीं आ रही थी । आगम - वाचना कौन देगा ? यह विचार उन्हें सता रहा था । इस विचार में ही निद्राधीन हो गये । पुण्य-योग से एक स्वप्न आया । स्वप्न में किसी ज्ञानी गुरु के दर्शन हुए । इन मुनीश्वरने उन्हें वन्दन किया । ज्ञानी गुरु ने पूछा "आनन्द सागरजी ! उदास क्यों हो ?" "महोदय ! मैं आगम-वाचना देनेवाले गुरु की खोज के विचार में हूँ । मुझे संयम की साधना में कोई चिंता नहीं है, जरा भी दुःख नहीं है । परन्तु 'आगमों का अध्ययन कहाँ जाकर करूँ ?' यही चिंता मन को सता रही है ।" । 'तनिक भी चिंता न करे। तुम पूर्वभव में अपूर्व श्रुतधर थे आज तुम्हें दूसरे गुरु की आवश्यता नहीं है । आगमज्ञान तुम में भरा हुआ है ह्रीं । केवल थोडे से आवरण आ गये हैं, उन्हें दूर करना ज़रूरी है। ये आवरण भी नर्म हैं। एक काम अवश्य करना ।” . वाचना विधि "तुम्हें जो आगम सीखना हो उस आगमग्रन्थ को सामने पट्टे पर अथवा ठवनी पर रखना । फिर उसे जीवंत आगमगुरु मानकर वन्दन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरहि करना । 'वायणा संदिसाहुँ' और 'वायणा लूंगा' ये आदेश माँगना । अन्त में 'इच्छकारी भगवन् पसाय कर वायणा प्रसाद कराइयेजी' कहना । इस विधि के बाद विनय पूर्वक ज्ञानाचार के आठ अतिचारें। से दूर रह कर तुम स्वयं ही आगम पढना । "इस में एक वात विशेष लक्ष में रखना । जिन आगमों का योगाद्वहन किया वे ही आगम पढना। आचार्य-पद-लालुपों की तरह जोग के बिना न पढना। बस इतना ध्यान रखोगे तो महान् आगमज्ञाता और बहुतों के आगमनाचनादाता बने।गे।" दूसरे दिन से यह विधि आरम हुई । यों तो हमारे संघ में ज्ञानपंचमी के दिन आगमग्रन्थों, चरित्रग्रन्थों तथा अन्य ग्रन्थोंका वंदन है।ता है, धूप, दीप, नैवेद्य, फल आदि से पूजा होती है। वास एवं चाँदी के सिक्के पूजन में रखे जाते हैं। इस क्रिया से हम कृतकृत्य हो गये ऐसा झूठा आत्म-तोष लेते हैं। परन्तु दर असल इन मुनीश्वर ने जैसे किया वह सच्ची ज्ञानपूजा है। ___-मुनीश्वरने दूसरे दिन आय बिल किया । श्री हारिभद्रीयवृत्ति युक्त श्री दशवैकालिक सूत्रकी प्रति ग्रहण की। लकड़ी के पट्टे पर उसे प्रस्थापित किया। उक्त प्रतिको वन्दन किया, आदर पूर्वक मस्तक से लगाया तथा जिस प्रकार साक्षात् गुरुके प्रति विनय रखते हैं उसी प्रकार पुस्तक-गुरुके प्रति विनय धारण करते हुए पठन शुरू किया एक बार, दो बार...तीन बार । ज्ञानाभ्यासकी तीव्र उत्कंठा, शास्त्रीय पद्धतिका विनय तथा सतत सच्चे दिलका परिश्रम-ऐसे अनेक गुणों के कारण क्षयोपशम प्रकट होता गया। यहाँ तक कि प्रतियों में लिपिकार के दोष से अथवा दीमक के खा जाने से जो अक्षर या शब्द उड़ गये थे उनकी पूर्ति स्वयं करने लगे। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “आगमधरसूरि कहीं कहीं पंक्तिया उपलब्ध नहीं थी, वही पंक्तिया बैठानेका प्रयत्न किया। इन मुनीश्वर द्वारा अपने क्षयोपशम से योजित शब्द तो सही निकले ही थे, पंक्तिया भी अक्षरशः सत्य निकलीं। तब क्यों न भविष्य में दिया जानेवाला 'भागमोद्धारक' का बिरद समीचीन हो। ऐसे समर्थ और शासन-हित-चिंतक की निंदा करने वाले बहादुर भी बेचारे बहुत से थे। इसका मुख्य कारण ईर्ष्या और द्वेष था। ज्ञानाभ्यास और धर्म प्रभावना ये दोनों कार्य यह मुनीश्वर एक साथ कर रहे थे। कुछ समय मरुधर में रहकर गुजरात में पधारे और पेटलाद में चातुर्मास किया। तिथिविषयक भूली हुई अथवा लगभग छिन्नभिन्न हुई पद्धतिका अनेक शास्त्रों के वाचन, मनन तथा निदिध्यासन के द्वारा पेटलादके चातुर्मास में परिमार्जनकर उसकी पुनः शुद्ध स्थापना की और उसी वर्ष संवत्सरी के दिन से उसका अमल किया। यह विक्रम संवत् १९५२ का पुण्य वर्ष था। वहाँसे विचरण करते करते छाणी पधारे । कुछ काल रह कर विशेष अध्ययन आगे बढ़ाया। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्याय पन्यास-पद अहमदाबाद मेंअहमदाबाद जैन संघ के अपार आग्रह के कारण मुनीश्वर श्री आनन्दसागरजीने चौदहवा चातुर्मास अहमदाबाद में किया । केतकी पुष्प यह नहीं कहता कि मैं यहाँ हूँ. लेकिन उसकी सुगन्ध की बहार ही कह देती है कि केतकी पुष्प यहाँ है। अब इन मुनीश्वर की ख्याति केतकी कुसुम के समान हो गई थी। सांसारिक ताप से संतप्त श्रोता दूर दूर से उनकी वाणी सुनने और उस ज्ञान गंगा में डुबकी लगाने आते थे । आते समय उनके हृदय उद्वेग के भार से भरे मालूम होते थे और जाते समय वाणी-गंगा में स्नान कर फूल-से हलके बने होते थे । अब मुनीश्वर की सेवा में शिष्य भी थे। कतिपय आत्माओं ने सेवा के हेतु अपना जीवन समर्पित किया था । आगमधर न बन सकें तो न सही, परन्तु आगमधर के चरणों की सेवा का लाभ ले कर कृतार्थ बने तो भी अहे। भाग्य, ऐसा सोच कर बहुत से भाग्यवान् सांसारिक जीवन को त्याग कर इन मुनीश्वर की सेवा में सदा के लिए आ रहे थे। ___ अमोघ-देशना (उपदेश) . वर्षा ने अमृत-बिन्दु बरसाना शुरू किया-+प्रीष्म के ताप से तप्त तृषातुर भूखी धरती शीतल और तृप्त हुई । दूसरी ओर कषायों के ताप Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ -आगमघरसूरि से तप्त और वासना से तृषातुर बनी हुई श्रोताओं की मनेोभूमि मुनीश्वर की वाणीरूपी वर्षा की रिमझिम से शान्त और तृप्त हुई । कषाय का उत्ताप गया, वासना ने विदा ली । अहमदाबाद की जैन जनता आपसी वैर भाव भूल गई । कुछ अन्दरूनी झाड़-झंखाड़, कूड़ा कर्कट था सो सब स्वच्छ हो गया, क्योंकि इस दिव्य पुरुष का दिव्य प्रभाव चारों ओर अदृश्य रूप में सतत कार्यरत था। भव्यों की भावना दिन दिन बढ़ती गई । फलतः मुनीश्वर को पदवीप्रदान की बात चली । अहमदाबाद की जैन जनता ऐसी मुग्ध थी कि उसने सोचा-इन मुनीश्वर को आचार्य बना दें, शासन-नायक बना दें, तपागच्छाधिपति बना दें। । परन्तु यशकी लिप्सा से रहित ये मुनीश्वर पदवी प्रहण करें यह असंभव था । तिस पर योगाद्वहन किये बिना आचार्य पद लेनेका महापाप तो ये स्वप्न में भी महीं कर सकते थे । 'तपागच्छाधिपति' पद देना श्रावकों की भक्ति से उत्पन्न बावलापन था। ये मुनीश्वर जानते थे कि तपागच्छ के प्रत्येक समुदाय के मुखिया एकत्र होकर सर्व सम्मति से यह पदवी एक को दे सकते हैं। श्रावकगण अथवा शिष्य अपने गुरुको तपागच्छाधिपति बना दें यह आत्माको डुबानेवाली बात होगी। अजोगी (योगाद्वहन के बिना) आचार्य बनना आत्माको भव-भ्रमण में भुलाएगा। मैं 'तपागच्छाधिपति' विशेषणवाला विरद धारण कर शासन की मूलभूत प्रणालिका भंग करना नहीं चाहता। जिसे लेोकेषणा बहुत सताती हो वह भले अपने आपको तपागच्छाधिपति कहलवाए, परन्तु जब तक सर्वशिष्टमान्य न हो तब तक यह पद केसे लिया जाय ! Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसूरि आखिर संघने गणीपद और पन्यासपदके लिए भावपूर्ण बिनतियों की वर्षा की । मुनीश्वर विधिपूर्वक आगमवाचनाओं के लिए इन पदवियों की आवश्यकता एवं शास्त्रीयता ज्ञात होने से ये पदविया स्वीकार करने को सहमत हुए। मंगल-प्रभात में कालग्रहण की विधि के साथ श्री भगवतीजी के योग शुरू हुए। शुद्ध भायबिल और शुद्ध नीवी युक्त छ:मास से अधिकका महातप प्रारंभ किया । ज्ञान के द्वारा पदवीप्रहण करने की योग्यता प्राप्त की ही थी, पर अब उसमें तप जोड़ कर शास्त्रीयता भी प्राप्त कर ली। पदवी-प्रदानका प्रसंग नज़दीक आता गया और अहमदाबाद की जनताका आनन्द उमरता गया। शहर में तरह तरह की तैयारिया होने लगी । मंदिर मंदिर उत्सव शुरू हुए । धवल मंगल के गीत शुरू हुए । देश-विदेश के आदरणीय पुरुष पधारे । ध्वजा, तोरण, मेहराब, पताका, वैजयन्ति आदि से बाजारों, और मुहल्ले को सजाया गया। अशोक के तोरण बाँधे गये। मातः-अक्षत के चौक पूरे गये। राजकुमारका राज्याभिषेक होता है। ऐसे ठाट बाट और दबदबे के साथ यह महोत्सव मनाया गया । अहमदाबाद धन्य हो गया-अहमदाबादका जैन संघ धन्य हो गया । इतिहासकारोंने इस वर्ष को ऐतिहासिक माना और सुवर्णाक्षरों से लिखा-विक्रम संवत् १९६० और श्री वीर निर्वाण संवत् २४३० । विहार पन्यास-प्रवर श्री आनन्द सागरजी गणीन्द्र ने चातुर्मास पूर्ण कर साधु-मर्यादा के अनुसार विहार किया । विहार के समाचारों से अहमदाबाद की जनता उदास है। गई। उन्हें ऐसा प्रतीत हुभा जैसे अपना Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि कोई अत्यन्त निकट का स्वजन जा रहा हो । विदा देने आये हुए नर नारियों की आंखों से आसुओं की अजस्र धारा प्रवाहित हो रही थी। आसुओं को धारा कहती थी-हमें निराधार बना कर कहा जा रहे हो ! अब हमारा कौन आधार है ? यह अश्रु-धारा साधु-मर्यादा में मुनीश्वर के लिए विघ्न नहीं बन सकी । विधिवत् विहार हुआ, और विचरते विचरते बीजापुर तहसील के पेथापुर नगर पहुँचे। पेथापुर-परिषद - उस समय पेथापुर में एक विशिष्ट परिषद हो रही थी। पन्यासप्रवर मुनीश्वर के पदार्पण के समाचार मिलते ही परिषद का रंग और बढ़ गया। जब वे परिषद के पटांगण में पधारे तब पटांगण जयघोषणाओं के नाद से गाज उठा। परिषद के अध्यक्ष, माननीय पदाधिकारी, सदस्य आदि अपने उच्च आसन छोड़ कर प्रेक्षकों की तरह सामने आये । मुनीश्वर को सुन्दर काष्ठमय उच्चासन पर बैठा कर अन्य सब लोग श्रोताओं के तौर पर नीचे सामने आ बैठे । व्याख्यान मुनीश्वर का प्रेरणात्मक व्याख्यान शुरू हुआ । व्याख्यान का अभिप्राय था “ शासन की खातिर समर्पित होना । शासन हमारा है, और हम शासन के हैं । इस शासन की रक्षा और उन्नति के हेतु हम अपने प्राण त्योछावर कर दें तो भी कम है। शासन की रक्षासेवा करते हुए मृत्यु आ जाय तो वह मृत्यु भी धन्य है । उसका जीवन भी धन्य है । शासन-सेवा से विहीन जीवन पशु का सा जीवन है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमधरसरि " आज शासन निस्तेज हो गया है, उसका कारण है हमारा प्रमाद, और उत्साहहीनता । तुम सब जाग उठो, आगे कदम बढाओ । कटिबद्ध हो कर कार्यारम्भ करो । यह जीवन खाने पीने के लिए नहीं बल्कि शासन की खातिर शहीद होने के लिए है। कायर लोग जगत में अच्छी तरह से न जी सकते है न मर सकते है। आप सब यहाँ एकत्रित हुए हैं तो एक शुभ संकल्प कर के जाइये कि शासन की सुरक्षा के लिए हम अपने प्राणों की बलि देने में भी नहीं हिचकेंगे। हम शासन के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देंगे। हम मरण का वरण करेंगे परन्तु शासन को निस्तेज नहीं होने देंगे। पन्यास प्रवर मुनीश्वर के व्याख्यान का जादू का सा प्रभाव पड़ा। एक प्रकार की गर्मी आ गई। परिषद के प्राण तेजस्वी बन गये। वोर निर्वाण संवत् २४३१ के वर्ष की पेयापुर की परिषद सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई। कपड़वंज की ओर हमारे चरित्रनायक मुनीश्वर के जन्म से पवित्र और ख्यातिप्राप्त कपड़वंज के जैन. श्री संघ के अप्रणियों ने पूज्य-प्रवर मुनीश्वर को कपड़वज पधारने का हार्दिक आमन्त्रण दिया। ____ मुनीश्वर ने कहा-"क्षेत्र स्पर्शना।" विचरण करते करते कपड़वज के किनारे आ पहुंचे हैं-ऐसे समाचार नगर में फैल गए। तुरन्त स्वागत की तैयारी के साथ संपूर्ण स्थानीय जैन संघ नगर के बाहर उमड़ पड़ा। संघ को गर्व था कि हमारे गाँव का लाडला आज शासन का विजयी रत्न सिद्ध हुआ है। नगर की सुन्दर नारिया विधाता पर वारी जाती थी, इस महापुरुष को सच्चे मातियों से बचाती थी। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माममधरसरि मोतियों के साथ अक्षत और सोने-चांदी के सुन्दर चमेली के से फूल भी थे। यह स्वागत-यात्रा नगर में घूमकर जिनमंदिर होती हुई उपाश्रय आई । उपाश्रय की मानवमेदिनी मुनीश्वर के व्याख्यान में एकरस बन गई थी। उसे समय का भान तक न रहा। पन्यास प्रवर मुनीश्वर कपड़वंज नगर में जब तक रहे तब तक वहाँ का वातावरण धर्म-मय बन गया था, क्यों कि धर्मराजा स्वयमेव सदेह उस नगरमें पधारे थे। राजा हाजिर हो. तब वह नगर राजा के अनुकूल व्यवहार करे यह बात तो जगद्विख्यात है। चातुर्मास कल्प पूरा हुआ। विहार का समय आ पहुंचा। शिष्य परिवार के साथ सबने विहार किया तब नगर की सीमा तक आये हुए श्रावकों की आंखों से अश्रु-धारा बरस रही थी। श्राविकाओं को तो अपने पुत्र के वियोग का-सा असह्य दुःख हो रहा था। कपड़वंज का महान् सपूत कितने ही वर्षों बाद आया और थोडे ही दिनों बाद चलने लगा - यह दुःख बड़ा विषम था। विदा समय की देशना मुनीश्वर एक विशाल वट वृक्ष के नीचे खड़े रहे। खड़े खड़े ही चातुर्मास-विदा की देशना भारंभ की। "हे भव्यात्माओ ! आप को मेरे प्रति जो अनुराग है उस अनुराग को धर्म में परिणत कर दें। मुझ पर प्रीति आपमें व्यक्ति-राग उत्पन्न करेगी, जब कि धर्म की प्रीति आपका गुणानुरागी बनाएगी। आप सुन्दर धर्म-आराधना करते हैं, परन्तु अभी तक यह आराधना Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधररि. मोक्ष दिला सके ऐसी नहीं है, अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए पूर्णतः आत्मानुलक्षी बन कर धर्म-आराधना कीजिये। जल्दी से जल्दी आत्मा की मुक्ति हो, और हम सब शीघ्र ही मोक्ष-सुख प्राप्त करें यही शुभकामना। अन्त में पुनः एक बार बता दूँ कि आप मेरे प्रति अपने राग को धर्म की ओर मोड़ियेगा। इस तरह से आपकी आत्मा का उद्धार जल्दी होगा। धर्म के प्रति ऐसा राग होगा तब शासन विजयी होगा। इतना कह कर परोपकार-प्रवण मुनीश्वरने विहार आरंभ किया। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्याय सुरत शहर में सूरत शहर ! सूरत के लोग खान पान के बहुत शौक़ीन हैं। भारत के शहरे में सूरत ऐसा शहर है जहाँ तरकारी सब से अधिक खाई जाती है। यहाँ के निवासी सुखी शान्त और समझदार हैं। उनमें दुःख को भूलने का माद्दा गज़ब का है। वे बुद्धि और कला का समन्वय साधना जानते हैं। यह सब होते हुए भी इनका धर्म-प्रेम भी अद्भुत है। सूरत में नन्दीश्वर द्वीप के मंदिर के फलकों पर १७५ वर्ष से भी पुरानी चित्रकला के नमूने हैं। वह। एक सिद्धगिरि का पट है जिसमें सेठ मोतीशा की ट्रॅक नहीं क्यों कि यह पट सेठ मातीशा की ट्रॅक बनने से पहले का है । पूज्यपाद आचार्यदेव श्री ज्ञानविमल सूरीश्वरजी महाराज के मार्गदर्शन के अनुसार इस मंदिर के फलकों पर विशिष्ट कलामय कार्य हुआ है। सूरत धनकुबेरे का नगर माना जाता था। मराठा, मुगल और ब्रिटिश राज्यों में कई बार बुरी नीयत से इस नगर में लूटपाट, तोड़फोड़ कर इसे तहस नहस करने का प्रयत्न किया है। फिर भी सूरत पर महात्माओं की सदा कृपा दृष्टि रही है अतएव समय, नियति और अत्याचारी सल्तनतों के अनेक आक्रमणों के बावजूद यह शहर ज्यों का त्यों बना रहा है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि स्वागतम् आज फिर अध्यात्मशील, वचनसिद्ध तथा अद्वितीय विद्वान् दिव्य मुनीश्वर सूरत के सीमान्त में पधारे हैं। वनपालक ने श्री संघ को शुभ समाचार दिये । सूरत की खुशमिजाज जनता इस समाचार से और भी खुश हुई। सूरती लोग बडे भावुक हैं। उनमें योगी पुरुषों का आनंद लेने की और भोगी पुरुषों का आनंद लेने की भी कला है। स्वागत की तैयारिया तो बहुत पहले से चल रही थीं। सूरत के भोजन की तरह यहाँ के 'सांबेले' भी प्रसिद्ध हैं। 'सांबेला' क्या है ? देखे बिना इसका सही ख़याल आना कठिन है। इक्का, शिकरम, तांगा, खुली मोटर, लारी आदि को फूल, रेशमी पट, कमखाब, रंग बिरंगी कपड़े, जरी, फूल, अशोक के पत्तों आदि से सजाया जाता है। सजधज कर इन्हें जब जलूस में लाया जाता है तब देखनेवालों को पता भी नहीं लगता कि यह रथ है या मोटर, इक्का है या नाव, तांगा है या बैलगाड़ी ? इस विशिष्ट रचना को 'सांबेला' कहते हैं। एक सांबेला सजाने में सौ से हजार रुपये तक या उस से अधिक भी व्यय होता था। इस स्वागत यात्रा की एक विशिष्टता यह थी कि इस में सूरत के सारे बैंड, ढाली तथा शहनाई-वादक शामिल हुए थे। अनेक अलबेले सांबेलों की सजधज के साथ स्वागत यात्रा प्रारंभ हो कर ध्वजा, तोरण, पताका मेहराब आदि से सुसज्जित राजपथ से होती हुई जिनमन्दिर पहुंची, जिनमन्दिर के दर्शन कर के उपाश्रय पहुंची। उपाश्रय में मांगलिक व्याख्यान हुआ। सूरत के लोग मुनीश्वर की सुमधुर देशनारूपी मुरली से ऐसे डालने लगे जैसे . मुरली के मधुर स्वरों से फणीधर डालते है। प्रथम दिन की दिव्य वाणी से ही सूरत Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आगमधररि के श्री संघने पहचान लिया कि ये महात्मा वर्तमान समय के सर्वोत्तम मुनिरत्न हैं । अतीत के श्रुतधरों की स्मृति इन के द्वारा हरी हो जाती है। सूरत में जौहरियों की कमी नहीं। उन्होने एक दिन में ही शासन के हीरे को परख लिया । चैत्य परिपाटी पन्यास - प्रवर मुनीश्वर के व्याख्यान हररोज़ होने लगे । सुरत के लोगों का धीरे धीरे व्याख्यान सुनने का सुoयसन है। गया । आबालवृद्ध सब का व्याख्यान का लाभ मिले इस हेतु से चैत्य परिपाटी का आयोजन किया गया । सूरत में यह चैत्य परिपाटी विशिष्ट और प्रथम मानी जाती थी । जिन मंदिर के दर्शन विभाग के उपाश्रय या चतुर्विध संघ के साथ सुरत के प्रत्येक की विधि शुरू हुई । दर्शन के बाद उस उस मैदान में धार्मिक व्याख्यान दिया जाता । मुनीश्वर के दिव्य अतिशय के पुण्य प्रताप से सूरत की जनता इस कार्यमें श्रम एवं भूख के भूल जाती थी । इन महात्मा पुरुष को प्रतीत हुआ कि सूरत की जनता को योग्य मार्गदर्शक मिले तो यहाँ की जनता का धर्म - कार्यमें अच्छी तरह उपयोग हो सकता है । इस की तन-मन-धन की शक्ति का शासन के हेतु सुव्यवस्थित उपयोग करना प्रशंसनीय होगा । निग्रन्थ के द्वारा प्रत्थोद्धार उन दिनों आगम दुर्लभतर होते जा रहे थे । आगम जिन प्रन्थभंडारों में थे उन के संरक्षकों को संकुचित वृत्ति के कारण ये ग्रन्थ सड़ रहे थे । इन पतित-पावन, उद्धारक ग्रन्थों को अन्धकार में से Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि प्रकाश में कौन लाए ! दूसरी ओर मुद्रण-पद्धति का प्रारंभ हो चुका था। वास्तव में मुद्रण का प्रारंभ हस्त लेखन पद्धति के लिए मृत्यु की घड़ी सिद्ध हुआ, क्यों कि इस से हस्त-लेखन कला अदृश्य होने लगी। हा, अभी बिल्कुल ही नष्ट नहीं हुई थी, परन्तु अपनी मृत्यु की घडियां गिन रही थी। ऐसी विषम परिस्थिति में पवित्र आगमप्रन्थों की चिंता मुनीश्वर को अत्यन्त व्याकुल कर देती थी। आगम-ग्रंथों की ऐसी हालत से मुनीश्वर को नींद हराम हो गई। बाहर से सस्मितवदन शान्त और मूर्तिमान उत्साह के समान दीखनेवाले ये दिव्य पुरुष भीतर से एकान्त में बहुत बेचैन हो उठते थे। पहले भव्य जीवोद्धारक जिनवाणी के ठोस नमूनों के समान वे पवित्र आगम अकाल के कराल पंजे में फंसे थे। उसके बाद श्री देवर्धिगणी क्षमाश्रमण महाराज ने श्री श्रमणसंघ एकत्रित कर सब को जो जितना कण्ठस्थ था से ताड़पत्रों पर लिखवा लिया, और श्रमणसंघ नायकों ने पारस्परिक स्मृति का मेल कर संघ के लिए श्रोतव्य बनाया । आचार्य देव श्री हेमचन्द्राचार्य ने प्रत्येक आगम राजेश्वर श्री कुमारपाल के द्रव्य से सुवर्णाक्षरों तथा रौप्याक्षरों में लिखवाया, तथा स्याही से भी लिखवाया। श्री वस्तुपाल तेजपाल जैसे महामन्त्रियोंने भी लिखवाया था और अजयपाल जैसे अनार्याचरण वाले राजाओं ने भागमो. को ज्वालाओं में झांक दिया । मुगलों ने उनकी होली की । अनार्य देश से आये हुए गौरांगा ने भाले लोगों के भुला कर प्राचीन अन्य खरीद लिए तो कइयों को धमका कर जबरदस्ती से छीन लिया । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आगमघरसूरि बीच के समय में संयोगवशात् शिथिल बने हुए फिर भी श्रद्धामें सुदृढ यतिवरेने आगम-प्रन्थों को अपनी सम्पत्ति मान कर उनकी रक्षा की, कइयों ने छिपा रखे, कइयों ने अलग अलग लिखवाये। यह भी श्री संघ का सौभाग्य समझिए । तत्पश्चात् यतिवर्ग शिथिलतर बनता गया। और यूरोपीय कूटनीति ने उन में फूट डाली। धीरे धीरे उपाश्रयों के अग्रणी श्रावकों ने मालिक बन कर भढारों पर कब्जा कर लिया। यदि ग्रन्थों की सुरक्षा और मरम्मत की होती तो अच्छा होता परन्तु कई अभागे कार्यकर्ताओंने उन्हें बेच दिया। कइयों ने बेचा तो नहीं परन्तु योग्य सम्हाल के अभाव में ये ग्रन्थ भंडारे में रहे रहे जीर्ण-शीर्ण-विदीर्ण हो गये। - मुनीश्वर की भावना भागम प्रन्यो की ऐसी अवदशा से मुनीश्वर को बहुत ही दुःख हुआ । उनको भगवान की वाणी को रक्षा के लिए बहुत चिंता होने लगी। वे सोचते, हे स्वामि ! तुम्हारी वाणी को किस प्रकार बचाऊँ । इस के बिना दुनिया का कल्याण कौन करेगा ! इस कलिकाल में मोहादि विषधरों का विष कौन दूर करेगा ? _ "क्या इन आगमे को मुद्रित करवा दूं ? यह अनुचित होगा न ! छपाई में प्रूफ रद्दी में जाएँगे। अमूल्य आगम पाणी का द्रव्य से मेलतोल होगा। अयोग्य भात्माओ के हाथ पड़ने से अनर्थ होने की संभावना है। ये पामर आत्मा रक्षक साधन को भक्षक बना देंगे। उनके लिए अमृत जहर बन जाएगा। भागों के प्रति ओ श्रद्धा और पूज्वभाव है उसमें कमी होगी। दूसरी ओर यदि भागम प्रन्थों को मुद्रित नहीं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আলমগনুষি किया जाता तो भव्यात्माओं के उद्धार का रहा-सहा साधन भी लुप्त - होगा । लेखनकारों की संख्या घटती जा रही है, जो हैं से मी प्रभारी और अनभ्यस्त । अतः लेखनकार्य कठिन होता जाता है । मार्थिक दृष्टि से भी मुद्रण के सामने हस्तलेख की पद्धति टिक नहीं सकती । . छपवाने में भी भनेक समस्याएँ हैं, और न छपवाने में भी बहुत है । हे जगद्गुरु । जगत्पते ! मैं क्या करूँ और क्या न करूं ? हे भगवन् । तुम्हारे मुख से प्रसूत अमूल्य वचनों के संग्रह-रूप आग को अनिवार्य परिस्थितियों के कारण मुद्रित करवाने में जो अपराध हो उसे क्षमा करना । मैं अपने लिए कुछ नहीं कर रहा हूँ, परन्तु भविष्य में आनेवाले अन्धकार को रोकने के लिए यह कार्य कर रहा हूँ । इसमें जो भूल हो जाय उसे क्षमा करना । आगम-प्रन्योद्धार की बात अभी अनोखी चैत्य-परिपाटी चल रही थी। इसी अरसे में एक मंगलमय दिन व्याख्यान के बीच मुनीश्वर ने इस का जिक्र किया। 'हे पुण्यशालियो ! हम सब वीतराग परमात्मा के दर्शन को निकले हैं, क्यों कि हम सब संसार-समुद्र को पार करना चाहते हैं। भव-सागर तरने के साधन बहुत ही सुरक्षापूर्ण माने जाते हैं। उनमें से एक तो यह चैत्यपरिपाटी है जिसका अमल हम लोग आजकल रोज कर रहे हैं। परन्तु दसरा एक साधन और है जो प्रथम साधन से सापेक्षतया बढ़ चढ़ कर है। जिन चैत्य से संसार तरा जाता है परन्तु यह बात बताता कौन है ? जिनवाणी। जिनवाणी का संग्रह है जिनागम। श्री जिनचैत्य-परिपाटी के साथ जिनागम को याद करना चाहिए। जिनेश्वर की आज्ञा उन में है। उस भाज्ञा का पालन करना Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- आगमधरसरि • धर्म है। हमने जिनचैत्य परिपाटी की आज्ञा का पालन किया परन्तु जिनागमों का ? ___"आज हमारे अज्ञान और अकर्मण्यता के कारण पूज्य आगमों की कैसी दुर्दशा हो रही है इस के लिए भी एक महत्त्व का कार्य कर लेना आवश्यक हैं। आज अनिवार्य परिस्थितियों को लक्ष में रखते हुए आगों का मुद्रित करवाना अनिवार्य हो गया है। पूजनीय श्रमण संघ की स्मरण शक्ति एवं लेखन शक्ति कम हो गई है, अतः - मुद्रण करवा लेना अनिवार्य है। "मुद्रण पद्धति की अपेक्षा लेखन पद्धति बहुत निर्दोष और उत्तम है। लेखन से भी स्मरण उत्तमोत्तम है, परन्तु भवसर्पिणी काल के प्रताप से मुद्रण में दोष होते हुए भी उसका आश्रय लेना पड़ता है । यह तो न्यावहारिक बात है कि जहा लाभ अधिक हो वहाँ थोड़ा सा नुकसान गौण बन जाता है । अतः विशेष लाभ के कारण आगमप्रन्थों का मुद्रण कराना आवश्यक हो गया है । इस के लिए योग्य अवसर पर भावना रखना ।" पूज्य मुनीश्वर की यह विशेषता थी कि वे किसी काम के लिए बहुत दबान डालने की शैली में कुछ नहीं कहते थे । संक्षेप में उतना ही कहते जिस से सब को अपने कर्तव्य का ज्ञान हो जाय । श्रोताओं को कितना करना चाहिए यह उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर था । एक लाख रुपये मुनीश्वर की सुधारस के समान वाणी सुन कर श्रोताजन मंत्रमुग्ध हो गये । व्याख्यान पूर्ण हुआ । पूज्य पाद मुनीश्वर 'सर्वमंगल...' बोलने वाले ही थे कि एक पुण्यवान ने खड़े हो कर विनम्रतापूर्वक कहा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमधरसरि "पूज्यवर मुनिराज के उपदेश से हमारे संघ की आंखें खुली हैं। हमें नया मार्गदर्शन तथा नूतन प्रकाश मिलता रहा है । फलतः हम अपना कर्तव्य समझने लगे हैं। हम अपना संपूर्ण जीवन जिनशासन को समर्पित करने में असमर्थ हैं क्योंकि अर्थ और काम की लालसाएँ अभी पूर्णतया नष्ट नहीं हुई हैं फिर भी पूज्य मुनिराज के बताये हुए. मार्ग में भी हम यथाशक्ति पुण्य कार्य करेंगे। इस पुनीत अवसर पर मैं अपने पिताजी के स्मरणार्थ सिर्फ एक लाख पूजनीय भागों एवं प्राचीन धर्मशास्त्रों के मुद्रण-कार्य के लिए देता हूँ। मेरी प्रार्थना है कि सूरत का श्री जैन संघ हमारी यह तुच्छ रकम स्वीकार कर हमें उपकृत करे। यह एक लाख रुपयों का दान विक्रम संवत् १९६४ के वर्ष का है । आज अर्थात् संवत् २०२८ में उसका मूल्यांकन करे तो करीब साढ़े बारह लाख का दान करे और जिसने सं. १९६४ में एक लाख का दान किया हो उन दोनों का दान समान है। आज रुपये का साढ़े बारह गुना अवमूल्यन हुआ है। आगमोद्धारक एक संस्था की स्थापना की गई । उदारमूर्ति श्री गुलाबचंदभाई तथा उनके परिवार ने अपने पिता की स्मृति में एक लाख रुपये दान दिथे । अतः श्री संघने उनके पिता की याद में उक्त संस्था के साथ उनका नाम जोड़ कर उस संस्था का नाम 'शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड' रखा। इस संस्था के द्वारा एवं 'भागमोदय समिति' नामक संस्था के द्वारा मुनिराज ने अनेक आगमप्रन्थ तथा चरित्र प्रकाशित करवाये। श्रद्धावान् श्रावक संघ ने आर्थिक सहायता दी परन्तु इस से मुनिराज का काम कई गुना बढ़ गया। भंडारों के तहखाने में धरी हुई हस्त-प्रतिया प्राप्त करना कठिन था। बड़ी मुश्किल से कुछ मिलीं । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सूरि उनमें से कुछ अशुद्ध थीं, कुछ अत्यंत अशुद्ध । कुछ की लिखावट अच्छी थी तो कुछ के अक्षर मक्खी की टाँग जैसे । कुछ पेथियाँ पूर्ण थी तो कई नष्ट भ्रष्ट, पानी में भीग कर मुड़ी हुई थीं। कुछ ग्रन्थों के पृष्ठ आपस में चिपक गये थे । इन चिपके हुए पन्नों को अलग करने की भी समस्या थी । इस भगीरथ कार्य में कितना श्रम, कितना धैर्य, कितनी कुशलता, कितनी तत्परता चाहिए इसका अनुमान तो पूज्य आगमेोद्धारक महाराज को यह कार्य करते देखने से ही हो सकता था । यह कार्य वास्तव में बहुत ही कठिन और वैज्ञानिक को कोई आविष्कार करने अथवा कोई निकालने में जो श्रम करना पड़ता है बैसा ही श्रम अधिक श्रम इस कार्य में हुआ । पूज्य मुनीश्वर आप को भूल जाते । ऐसे अगाध और अविरत आगम अंधकार से प्रकाश में आए हैं । इस अटपटा था। किसी अज्ञात प्रदेश खोज अथवा उस से भी कार्य में अपने परिश्रम के अन्त में जब आगमे की छपाई शुरू हुई तब कुछ मुनिवर इस प्रवृत्ति को बुरी मानकर तो नहीं परन्तु हमारे चरित्र नायक मुनिराज की 'आगमे । द्वारक' के रूप में बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को देख कर ईष्यावश विरोध करने लगे । परन्तु खास खूबी की बात तो यह है कि विरोध के नेतृत्व का झंडा उठानेवाले ही आगमों की छपी हुई प्रतियाँ सबसे अधिक संख्या में खरीद लेते थे । इस तरह अशोमन विरोध के कारण मुनीश्वर "आगमेाद्धारक” के रूप में जग - प्रसिद्ध हुए, गुणीजनों की वाणीने स्वयं उन्हें आगमेोद्वारक का पद दे दिया | यह आगमोद्धारक का पद उन्हें विधिवत् नाण-स्थापना पूर्वक दिया गया है। ऐसी बात नहीं है, परन्तु आगमों का प्रकाश में लाने और उन्हें शुद्ध करने का भगीरथ कार्य करने के फलस्वरूप उनका “आगमे । द्धारक" नाम गुण पर आधारित स्वयंसिद्ध हुआ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवा अध्याय मोहमयी में निर्माही हेमन्त के पश्चात् शिशिर और पतझड़ की ऋतु आती है। जब पूज्य मुनीश्वर के विहार की घोषणा हुई तो सूरत में पतझड़ का सा धुंधला वातावरण हो गया। लोक-हृदय में अरमानों के पत्ते झड़ने लगे। सूरत-वासी सोचने लगे कि सन्त के बिना वसन्त उजाड़ मालूम होगा। पृ. आगमोद्धारक को रोकने के अनेक प्रयत्न किये गये, परन्तु यदि मुनीश्वर रुक जाएँ तो अतिबद्ध विहारी कैसे कहला सकते हैं ? मुनीश्वर श्री आगमाद्धारक ने विहार किया। सूरत की जनता अपने कंठ के हार को जाते देख कर उदास हो गई। . मोहमयी -- मुंबादेवी पर से शहर का नाम 'मुंबई' हुआ। (हिन्दी में इन्हें 'बम्बादेवी' और 'बंबई' कहते हैं ।) इस शहर की रचना इतनी आकर्षक है कि वहाँ आनेवाले का वहाँ से लौटने को मन नहीं करता। वहाँ पर पंचरंगी लोग मेलजोल से रहते हैं। उनकी रग रग में रंगराग भरा हुआ है। जहाँ जैन जाते है वहाँ व्यापार फूलता-फलता है ऐसा अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। इस नगर में व्यापार खूब तेजी से चलता है, अतः इस नगरी का 'मोहमयी' नाम सार्थक है। मुनीश्वर श्री भागमोद्धारक जी ने सोचा कि बंबई के लोग और विशेषतः वहाँ के जैन लोग यदि रंगराग के रंग में रंग जाएँगे तो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आगमघरसरि उनका यह रंग कौन उतारेगा ! वैराग्य का रंग कौन लगाएगा ? अतः बम्बई चलें। विहार भारंभ हुआ, बीच के गांवों और शहरों का उद्धार करते हुए आगमोद्धारकजी बम्बईवासियों का उद्धार करने बम्बई पधारे। वहाँ की स्वागत-यात्रा की तो बात न पूछिये । वसन्त के भागमन पर बन-निकुज जिस प्रकार नव-पल्लवो, नव कुसुमो तथा कोकिल-कंठके मधुरस्वरों से उसका स्वागत करते हैं वैसे इन सन्त महात्मा के पधारने पर मोहमयी के मानवांने हार्दिक स्वागत किया। लालबाग लालबाग का विशाल उपाश्रय और उसमें आगमोद्धारक की अमोघ देशना ! उपाश्रय खंड अखंड मानव-समूह से भरने लगा। शान्ति और स्वस्थता भी प्रशंसनीय थी । विद्वान् भऔर श्रद्धालु, छोटे और बड़े सब आते, वाणी सुनते, जितना हृदय में भरा जाय उतना भरते, पान कर सकते उतना करते और पुनः दूसरे दिन दौड़ते आते थे। कोई आमंत्रण की राह नहीं देखता था । बैठने को जगह मिल पाए तो बडे भाग । आगमाद्धारक जी यही पर अधूरे फिर मी मधुर नाम से सुख्यात हुए । सब उन्हें 'सागरजी महाराज' कहने लगे। इस छोटे प्यारे मामने बम्बई की जनता पर अनोखा जादू कर दिया । 'सागरजी' 'सागरजी' बोलते हुए लोग हर्ष-विह्वल हो जाते । शिखरजी आन्दोलन ऐसा मालूम होता है कि यूरोपवासी गोरी चमडीवालेोने भारत के सभी धर्मों का भ्रष्ट करने की प्रतिज्ञा ली होगी। उन रोगों की ४७५ वर्षों की नीति-रीति पर से अवश्य ऐसा अनुमान होता है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसरि उदार नीति तथा कूट नीति के आधार पर उन्हें कई जगह सफलता भी मिली, फिर भी आर्य संस्कृति के केन्द्रस्थान भारत में उनका सोचा हुआ पूरा नहीं हुआ। हा, उन्हों ने कहीं कहीं तोड़फोड़ की थी । और परोक्ष ढंग से और भी बहुत सी तोडफेोड़ की योजनाए गुप्त रूप से जारी थीं। - सफेद प्रजा के कुछ सत्ताधीश लोगेाने शिखरजी तीर्थ की शस्यश्यामला और दिन को सूर्य की किरणों से अलिप्त रह सकने वाली पवित्र भूमि पर अपने राक्षसी शौक और शिकार की सुविधा के लिए आवास बनाने की घोषणा की । यूरोपीय लोगों के रहने के लिए आवास बनाना तो गौण था, वस्तुतः इसके पीछे धर्म-स्थान और पवित्र यात्राधामों के पर्वतों को भ्रष्ट करने की निंदनीय वृत्ति छिपी हुई थी। पूज्य आगमोद्धारक इस रहस्य को जान गए । उन्होंने बम्बई में इस प्रश्न पर आन्दोलन : शुरू करने का विचार किया । उचित समय देख कर बम्बईवासियों की तन्द्रा दूर करनेवाले व्याख्यानों की झड़ी प्रारंभ कर दी, जिससे सब का प्रमाद दूर होने लगा। — राजनीतिक आन्दोलन शुरू करना आसान है परन्तु धार्मिक आन्दोलन शुरू करना सीधी चढ़ाई जैसा कष्ट-साध्य है। राजनीतिक भान्दोलन में कई लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थ, महत्त्वाकांक्षाएँ और सत्ताकी भूख छिपी होती है, परन्तु धार्मिक मान्दोलन में ऐसे किसी तत्व के लिए स्थान न होने के कारण यह आन्दोलन अधिक कठिन होता है। ऐसे आन्दोलनका नेतृत्व पू. भागमोद्धारक जीने अंगीकार किया। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि सिंह गर्जना - परम-पवित्र शिखरजी तीर्थ की पवित्रता सुरक्षित रहे इस हेतु से एक विशाल सभा का आयोजन किया गया। पूज्य आगमाद्वारश्रीने इस सभा में बड़ी जोशीली भाषामें भाषण दिया जिसका मुख्य विषय था तीर्थ-रक्षा । "पुण्यशालियो ! आज हमारे लिए भारी संकट की स्थिति उत्पन्न हुई है । इस अवसर पर हमारे जैनस्वकी-हमारे चैतन्य की परीक्षा होगी भाप लेोग जानते होंगे कि राज्य-सत्ताने ऐसी नीति घोषित की है कि 'यूरोपियन लोग किसी भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।' महारानी विक्टोरियाने भी ऐसा ढिंढोरा पिटवाया है, फिर भी यह कूटनीतिज्ञ प्रजा श्री शिखरजी पर्वत पर आवास बांधने का इरादा रखती है । यह बात प्रसिद्ध हो चुकी है। 1. "अाज बिखरजी पर्वत की बारी है तो कल श्री सिद्धाचलजी पर्वत की बारी भाएगी। परसों और किसी पर्वत की। फलतः हमारे पवित्र तीर्थस्थान अपवित्रता में परिणत कर दिए जाएँगे, शांतिके स्थान पर अशांति फैलेगी। ___"भाज यदि हम लोग समता या शांतिके नाम पर सहन कर लेंगे तो कल ये लोग आप के हाथ में से पूजाकी कटारी भी छीन लेंगे। एक खतरा अनेक खतरों को जन्म देता है । हम लेग अभी से नहीं घेतेंगे तो बाद में चेतने का कोई अर्थ नहीं होगा। ___"यदि आपकी रगेम जैन धर्म की भावना का लहू बहता हो, यदि आपमें पुरुषत्व हो, यदि आप वीर के पुत्र है तो जागिये, ब्रिटिश से कह दीजिए 'तुम लोगोंने हमें कुचल डालने के लिए ऐसे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमधरसरि उपाय करना तय किया है परन्तु हमें यह मंजूर नहीं है । अब हम जाग्रत हैं। ___'तुम लोगेांने हमारा धन लूटा है, अब हमारा धर्म लूटने चले हो लेकिन खबरदार ! हम अपने तन, मन और धन को कुर्बान करके भी अपने धर्म और धर्म-स्थानों की रक्षा करेंगे । जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं तब तक तुम अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकोगे।' "सुदर्शन के साथ अन्याय करनेवाले राजाको आखिर झुकना पड़ा था । साध्वीजी का शील भंग करने का इच्छुक लुटेरा राजा... गर्द भिल्ल मृत्यु के मुख में जा गिरा था। ___"धर्म-भ्रष्ट करने के इरादे से हमारे धर्म-स्थान अथवा पवित्र पर्वतों पर जो हस्तक्षेप हो रहा है से हमें नहीं ही सहना चाहिए । आप लोग कटिबद्ध हो कर अहिंसक लड़ाई के द्वारा ब्रिटिश सल्तनतको दिखा दीजिए कि हम अभी जिन्दा हैं। हमने हाथों में चूडिया नहीं पहनी हैं। यदि आप शासन रक्षा के लिए मर मिटेंगे तो इस भव में भी कल्याण है और परभव में भी कल्याण है ।" ___पन्यासप्रवर मुनिराज श्री आगमोद्धारकजी के व्याख्यान हर रोज होने लगे। उनकी ओजस्विनी विद्युत्-जिह्वा से निकला हुआ एक एक शब्द हर किसीको उत्तेजित कर देता था । उनकी सभा में सरकार की ओर से गुप्तचर रखे जाते थे । कई भद्र जीवों को भय रहता था कि मुनिराज पर वारंट आएगा । इसलिए बड़े बड़े जैन अप्रणियोने आकर उन्हें समझानेका प्रयत्न किया तब पूज्य मुनिराजने कहा, "मैं कुछ झूठ नहीं कह रहा हूँ। मुझे राज्य के साथ कोई दुश्मनी नहीं है, परन्तु धर्म तथा धार्मिक स्थलों पर जो कदम उठाए जा रहे हैं उन से मेरा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मागमधरसूरि विरोध है। ऐसा विरोध करना शाम की भाज्ञा है। मैं कोई अपराध नहीं कर रहा हूँ।" ...... इस में से एक विराट शक्ति पैदा हुई और पवित्र गिरिराज श्री विखरजी पर आवास बनाने की योजना ब्रिटिशरों को विवश होकर छोड़ देनी पड़ी। पूज्य आगमोद्धारक महोदय तथा अन्य स्थानो के श्री संघ की सलाह से श्री आणदजी कल्याणजी की पेढ़ी ने 'श्री शिखरजी पर्वत' खरीद लिया। पूज्य आगमाद्धारक महाराज साहब के नेतृत्व में एकत्रित जैनेकि संघबल का ही यह परिणाम था । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा अध्याथ अन्तरिक्षजी के किनारे 'साधु तो चलता भला ।' मोहमयो नगरी में अनेको के माह को क्षीण बना कर चातुर्मास पूर्ण होने पर पूज्य आगमाद्धारकरी ने विहार किया। यह विहार अनोखा था। चतुर्विध संघ के साथ तीर्थ यात्रा को जाते हुए जन-समूह से शोभित यह विहार था। इस विहार में निष्कांचन भी थे और धनकुबेर भी थे, विद्वान् थे और अल्पमति भी थे, त्यागी और रागी, नामी-अनामी, बच्चे, जवान, बड़े बूढे सब तरह के लोग थे। ये सब एक बात में समान थे। सब को छह 'री' पालते हुए यात्रा करने की अभिलाषा एक-सी थी। सब नंगे पैरे चलते थे। इस संघ के संघपति श्रीयुत् धर्मात्मा अभेचंद लीलाचंद झवेरी थे। कहाँ जा रहे थे? ये सब मेक्षिनगर के लिए रवाना हुए सार्थ के लोग थे, तीर्थधाम अन्तरिक्षजी जा रहे थे, जहाँ पुरुषादानीय पार्श्वनाथ भगवान की अर्धपद्मासनयुक्त घनश्याम मूर्ति बिराजमान थो। इतिहास कहता है कि महाराजा. श्री रावण ने यह प्रतिमा बनवाई थी। एक घुड़सवार नीचे से गुजर सके इतनी यह जमीन में विना सहारे अधर में उठी हुई थी। चारों ओर कहीं कोई भालंबन नहीं था। परन्तु पतित कालके प्रभाव से अब एक काना पृथ्वी को छु Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि गया है। हाँ, एक कोने को छोड़ कर सभी ओर से एक अंग पोछने का पर नीचे से निकल सके उतनी जगह बाकी है। आगामी २५-५० वर्षों बाद तो इतना भी शेष रहेगा या नहीं यह शंकास्पद है। ___इस तीर्थ की यात्रा के लिए आता हुआ पाद-विहारी संघ तीर्थ की तलहटी में पहुँचा। संघ के पहुंचने से पहले कलिकाल ने एक भयानक उपसर्ग को वहां भेज दिया था। संघ को कल्पना भी नहीं थी कि शान्ति के धाम रूप तीर्थ स्थान में दुष्टे के द्वारा अशांति की भग्नि प्रज्वलित की जाएगी। - दिगंबरों का दंगल पाद-विहारी संघ के हृदय में उम्र राज आनन्द . था। तीर्थप्रवेश की स्वागतयात्रा चल रही थी। पूज्य मुनीश्वर श्री आगमाद्धारकजी को लेने तथा उनके दर्शनार्थ अनेक आगन्तुक इस स्वागतयात्रा में शामिल हुए थे। संघ के साथ एक कलामय रथाकार जिनमदिर था। यह जंगम मंदिर इस लिए साथ रखा गया था कि बीच के स्थानों पर धर्म-प्रेमी मात्माओंको प्रभु के दर्शन का विरह न सहना पडे और भगवान् की भक्ति हो सके। स्वागतयात्रा जिनमदिर के पटांगण में पहुँची। जब जंगम काष्ठ मंदिर के भगवान को पूजन-विधि के लिए जिनमदिर में ले जाया जाने लगा तब दिगंबर सम्प्रदाय के वस्त्रधारी धावकोंने इसका विरोध किया--"यह प्रतिमा मंदिर में नहीं ले जाने दी जाएगी।" Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसरि पूज्य आगमोद्धारक महाराज ने कहा, "यह हमारा मंदिर है अतः हम भगवान को अंदर ले जाने के हकदार है। यदि हमारा अधिकार न हो तो हम प्रतिमाजी को अन्दर नहीं ले जाना चाहते । यदि आप लोग ऐसा लिखित सबूत दिखा सके कि हमारा अधिकार नहीं है तो हम अपना आग्रह छोड देंगे। दिग बरे के अग्रणी यह कहते हुए बाहर गये कि "हमारे पास लिखित सबूत है और हम उसे बताने को तैयार हैं। वे लोग लिखित आधार के बदले गुंडों को ले आये। अचानक भयानक . आक्रमण कर दिया गया । विवेकहीन दिगंबरा ने तीर्थंकर की प्रतिमा और पूज्य साधु भगवंतों की मर्यादा की भी रक्षा नहीं की। नंगों से मर्यादा की आशा रखना वेश्याओं से शील की आशा रखने के समान है। इन विवेकहीनेने पूज्य भागमोद्धारक जी को भी नहीं छोड़ा। उन पर बड़े जोरों की चोट की गई। पूज्य श्री को बचाने की कोशिश करनेवालों में से किसी का सिर फूटा, किसीका हाथ टूटा। कई बेहोश हो कर गिर पड़ें । तीर्थ-भूमि धर्म प्रेमियों के रक्त से लाल हो गई। आखिर सरकारकी कुमुक आ पहुँची। कई लोगों को गिरफ्तार किया गया। मामला अदालत में पहुंचा। उदारता का उदधि . आगमाद्धारजी तो बिलकुल शान्त, सस्मित वदन, स्वाध्याय-रत बैठे हुए थे। दिगंबरों ने अपने बचाव के लिए पूज्य श्री के खिलाफ जुर्मनामा पेश किया था। पूज्य आगमोद्धारकजी क्षमा और संयम की मूर्ति थे। ये महापुरुष तो अपराधी को क्षमा करना ही जानते थे, दंड की बात क्या, विचार तक नहीं था। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ____ आगमधरसूरि न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने विनम्रता पूर्वक पूछा-- "दिगंबर लेाग आपको कसूरवार कहते हैं। आपको यह वैमनस्य और दंगा फैलानेवाला बताते हैं । आप इस सम्बन्ध में क्या कहना चाहते है !" - पूज्यश्रीने उत्तर दिया-"हमने या हमारे प्राबकोंने ऐसा कोई बर्ताव नहीं किया है जिससे वैमनस्य या दंगा हो। हम तीर्थ यात्रियोंके रूप में आये हैं। मन्दिर हमारा है। हम अपने भगवान की पूजाविधि के लिए उन्हें मन्दिर में ले जा रहे थे तब हमें रोका गया। इतना ही नहीं, हम पर घृणित आक्रमण किया गया। हमारे भगवान की आशातना की। ऐसे समय मैंने धर्मगुरु के रूप में जो करना चाहिए वही किया है। केवल अपने भगवान की मूर्ति की सुरक्षा के लिए बात की थी।" दिगंबरा के वकीलने प्रश्न पूछा- "आपको भी विरोधी लोगेांने मारा था-क्या यह सच है ! आप को मारनेवाले कौन कौन थे। .. "मुझे जो मार पड़ी है वह पीठ पर पड़ी है। यह अनुमान किया जा सकता है कि मुझे मारनेवाले दिगांबर बंधु थे, परन्तु यह निर्णय तो नहीं हो सकता कि अमुक निश्चित व्यक्तिने मारा है। फिर साधु के रूप में हमें शास्त्रों की आज्ञा है कि हम किसी के विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकते। हमें क्षमापूर्वक मार या कोई भी परेशानी सहन कर लेनी चाहिए। अतः मैं हृदय से भी नहीं चाहता कि मुझे मारनेवाला दंडित हो या दुःखी हो। " न्यायाधीश सेवक बन गये .. आगमोद्धारकजी के शब्दों का जादूका सा असर हुमा । वस्तुतः यह प्रभाव शब्दों का नहीं परन्तु क्षमागुण का था। पूज्य श्री की Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि निष्कलुष वाणी, सत्यनिष्ठा, क्षमा, विद्वत्ता, सौम्यता, दृढ़ता भादि गुण देख कर मुख्य न्यायाधीश तो पूज्यश्री के सेवक बन गये। कई बार वे समय निकाल कर पू. आगमाद्धारकजी की सेवा में उपस्थित होते और ज्ञान की प्राप्ति करते थे। ऐसी थी गुणों की विजय । पूज्य भागमादारकची पर निर्दय आक्रमण के कारण जैन संघों में खलबली मच गई। दिगंबरेने न्यायालय में झूठे आक्षेप पेश किए थे। कई वकीलों की धारणा थी कि इन शिकायतों और गवाहियों पर से महाराज साहब दोषी साबित होंगे और उन्हें सात साल सख्त कैद की सजा होगी । इस अनुमानका का एक और भी कारण था जो महत्त्वपूर्ण था । पूज्य श्री हर एक बात सच ही कहते थे। वकील तो भूल से भी सच बोलने की अनुमति नहीं देते, सलाह भी नहीं देते। परन्तु इस महापुरुष से ऐसी झूठ बोलने की आशा कैसे रख सकते हैं ? इन कारणों से बचाव पक्ष के वकील भी हताश हो गए थे। उनका जड़ कानून उनके कान में 'सात साल की सख्त कैद' की ही बात कहता था। ऐसी बातें सुनकर किसी को भी चक्कर आजाए परन्तु हमारे चरित्रनायक महापुरुष ऐसे प्रसंग में भी पूर्णतया स्वस्थचित रहे । धैर्य की चरम सीमा ___ आज आकाश में उदित सूर्यका मुख गभीर था । पृथ्वी पर जैन संघों के मुख भी गंभीर थे । आज अपराह में मुकदमे का फैसला होनेवाला था । 'सात साल की सख्त कैद' की अफवाह ने वातावरणको उदास बना दिया था । सब लोग न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोगमधरसूरि ... पूज्य आगमाद्धारक महादय के मुख पर वही परम शांति, वही अपूर्व भाव विलास कर रहा था । वाचना का समय हुभा । गुरुदेवने अपने शिष्यों को आगम-वाचना देना आरंभ किया। श्रावक भी आये। एक गुरुदेवके सिवा अन्य सब के चित्त डापाडाल थे। शिष्यांका वाचना में मन नहीं लगता था। इसी बीच एक वकील ने पूछा - "श्रीमान् ! अब अदालत का निर्णय आने ही वाला है, और कई लोगों की धारणा है कि आप को सात साल की कैद होगी। भापने भी यह सुना ही है। फिर भी आज आप आगमवाचना दे पाते हैं। क्या आप के हृदय में लेश भी उग्रता, उत्कंठा या उत्सुकता नहीं है ! हमें बेचैनी हो रही है और आप को क्यों कुछ नहीं होता ? - श्री भागमोद्धारक गुरुजीने कहा-"भाग्यवान् ! एक दिन मरना है इस लिए क्या अभी से स्मशान में जा कर बैठना चाहिए। फैसला तो जो होना होगा से होगा। अभी से उसकी चिंता करके क्यों परेशान हो! न्यायालय का नेक निर्णय न्यायालय के न्यायाधीश ने सुन्दर, योग्य और न्यायपुरःसर निर्णय दिया "श्वेताम्बर मूर्तिपूर्जक तपागच्छ के धर्मगुरु लोकप्रिय पन्यास प्रवर श्री आनंदसागरजी गणीन्द्र श्री ने अपने धर्म की रक्षा के लिए जो करणीय था वही किया है। न्यायालय के न्यायाधीशों को श्रीमान् महाराज साहब का कार्य कानून की दृष्टि से अथवा भारतीय समाजव्यवस्था की दृष्टि से तनिक भी अनुचित नहीं प्रतीत होता । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरमरि ७५ पूज्य महात्मा पर दिगंबर सम्प्रदाय के धर्माध लोगों ने हमला किया सेो अत्यन्त अयोग्य व्यवहार है । तदुपरान्त एक सत्यप्रिय धर्मगुरु पर जो वस्तुतः अपना कर्तव्य-पालन कर रहे थे, आरोप लगा कर जुर्मनामा दाखिल किया जो कि बिल्कुल झूठा साबित हुआ है। इन्होंने इस तरह न्यायालय को झूठे आक्षेप पर कार्यवाही करने को कह कर गलत राह दिखाने का निदनीय कृत्य किया है। ___इस मुकदमे की कार्रवाई में वादी, प्रतिवादी, और दोनों पक्षे के गवाह सभी झूठे हैं। सब वास्तविकता -को-छिपा रहे थे। केवल इन महात्माजीश्री आनन्द सागरजी महाराज ने सत्य हकीकत प्रस्तुत की है और हमने इनके वचन को सत्य माना है। पुनः एक बार हम निश्चित तौर पर कहते हैं कि एक महात्मा पुरुष को मुख्य आरोपी के रूप में जो पेश किया वह भी अत्यन्त अनुचित कृत्य है । ये महात्मा सर्वथा सम्पूर्णतः मिषि हैं।" आनन्द! आनन्द !! आनन्द !!! यह नेक निर्णय सुनकर अन्तरिक्षजी के प्रांगण में उमड़ा हुआ जन-समुदाय आनन्द-विभोर हो गया। जगह जगह के जैन-संघ भातुरता पूर्वक निर्णय की राह देख रहे थे। उन्हें तार-टेलिफेान से खबर दी गई। समाचार पत्रों में भी ये समाचार बड़े अक्षरे में प्रकाशित हुए । सब ओर आनंद ही आनद छा गया । पूज्यश्री के अप्रतिम गुणों के कारण अधिकारी वर्ग के अग्रणी उनकी ओर आकर्षित हुए, कई उनके भक्त हो गये । . इस प्रसंगने पूज्य भागमाद्धारकरी की सच्ची साधुता और विद्वता को बाहर प्रकट कर दिखाया । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवा अध्याय आगम-वाचनाएँ शास्त्रों से ज्ञात होता है कि अनन्त-लब्धि-निधान श्री गौतम स्वामीजी पाँचसौ मुनियों को वाचना देते थे। इस तरह प्रत्येक गणधर महाराज अपने अपने शिष्यादि मुनिवरें। को वाचना देते थे। युग प्रधान श्री भद्रबाहु स्वामीजी पाँच सौ मुनियों को वाचना देते थे। उनमें से एक आर्य स्थूलभद्रजी भी थे। इस के बाद आर्य वन स्वामीजी आर्य रक्षितजी आदि सुनियों को वाचना देते थे। वाचना देने की एक रूढ परंपरा थी। वाचना से ज्ञान-आगमज्ञान मिलता था। भागम की पुस्तकों की तब आवश्यकता नहीं थी। वे महात्मा बुद्धिशाली थे। आगमज्ञान उन्हें कंठस्थ रहता था। अकाल विषमकाल के कारण बारह बारह वर्ष के भीषण अकाल इस भूतल पर एक पर एक आते गये। पशुओं की लाशों के ढेर लग गये। घास और पानी गायब हो गया। गृहस्थ अन्न और जल के बिना तड़प कर मरने लगे। मुर्दो के ढेर लग गये जिन्हें कोई जलानेवाला न रहा। चीलों और गिद्धों को खूब भक्ष्य मिला। नदी नाले सूख गये। कुँओं का पानी बहुत नीचे उतर गया। धनवानों का धन घटा, बुद्धिमानी की बुद्धि कुंठित हो गई। सब माल-असबाब बिक गया। मुट्ठीभर अनाज मिलना कठिन हो गया। हड़ियों के ढेर लग गए। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि मगर उजड गए। गाँव स्मशान बने । घर सूने हो गये। ऐसी स्थिति आई कि कोई किसी की सम्हाल नहीं ले सकता था । इ ७७ ऐसी विषम परिस्थिति में मुनियों की क्या स्थिति ? अकाल का विकराल काल मुनियों का भी प्रास करने लगा। बड़े बड़े ज्ञानी कालकवलित हो गये । वाचनाएँ बन्द हुई, स्वाध्याय गया, गुरुगम बन्द हुआ, कंठस्थ था सेा भूला जाने लगा तो नये ज्ञान कीं बात ही कहाँ ? साधु लोग स्वरक्षा के लिए किसी भी प्रदेश की ओर निकल पड़े । अकाल के भीषण तांडव ने सब कुछ तहस नहस कर डाला | पुनः पनपा बारह वर्ष बाद पुनः वर्षा रानीका आगमन हुआ, पृथ्वी शस्यश्यामला बनी, लेाग पुनः स्थापित हुए । जेा मुनिराज बच्चे थे वे एकत्रित हुए । उत्तरभूमि के मुनि मथुरा में एकत्रित हुए, वहाँ वाचनाचार्य श्री स्कंदिलाचार्य थे- यह वाचना 'माथुरी वाचना' कहलाई । दक्षिण के मुनि सौराष्ट्र के वल्लभी गाँव में एकत्रित हुए । वहाँ बाचनाचार्य श्री देवर्धिगणी क्षमाश्रमण थे । यह वाचना 'वल्लभी वाचना' के नाम से प्रसिद्ध हुई । सबको जो याद था सेा एकत्र किया गया। जहाँ मेद होता वहाँ 'केबली - गम्य' कह कर भेद पाठ भी प्रस्तुत किये गये । उस समय आगमों का पुस्तकारूढ किया गया जिससे फिर भूल न जाएँ अथवा अकाल में इतना भी मिट न जाए । इस तरह बाचनाएँ पल्लवित हुई । पू. आ. श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी, पू. आ. श्री अभयदेव सूरीश्वरजी, पु. आ. श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी, पू. आ. श्री मलधारी हेमचंद्र सूरीश्वरजी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ आगमधरस्ति पू. आ. श्री शांतिसूरीश्वरजी, पू. भा. श्री मुनिसुन्दरसूरीश्वरजी, पृ. आ. श्री हीरविजयसूरीश्वरजी, पू. उपा. श्री धर्मसागरजी गणी, पू. उपा. श्री यशोविजयजी गणी, पू. उपा. श्री विनयविजयजी गणी तक न्यूनाधिक प्रमाण में वाचनाएँ चली। उसके बाद उत्तर गुणों में शिथिलता आई, यतिवर्ग का युग आया। इस युग में मंत्र और वैयक बढ़ा, वाचनाओं पर लक्ष नहीं रहा। सब अन्धकार की ओर घिसटने लगे। वाचना गई, ज्ञान गया और परंपरापद्धति घटी। पुनः स्थापना विक्रम संवत् १९७१ में पू. आगमाद्धारकरी ने उक्त परंपरा की स्मृति कर उसकी पुनः स्थापना की-आगमवाचनाओं का प्रारंभ किया। . अहमदाबाद के श्री संघने मुनि भगवतों को आगमवाचना का लाभ लेने की बिनती की। अनेक बुद्धिमान साधु महात्मा पधारे, विदुषी साध्विया पधारी, पूज्य आगमज्ञानदाता आगमाद्धारक श्री पधारे । श्रावक यह जानकर कि हमारी पुण्यभूमि पर आगम वासनाएँ होने का अपूर्व लाभ मिलेगा, आनंदित और कृतकृत्य हुए । पूज्य आगमोद्धारकरी हाथ में आगमकी प्रति लिए हुए पूर्वाभि मुख बिराजमान होते हैं, तीन और साधु-साध्वी योग्य रीति से बैठे हैं, इन सब के हाथों में पाठ्य-आगम की प्रतिया हैं, श्रावक और श्राविकाएँ भी सुनने आए हुए हैं । जब मंगलाचरण बोल कर पूज्य आगमोद्धारकश्रीने "सुर्य मे आउस! तेण भगवया एवमक्खाय" कह कर वाचना का प्रारंभ किया. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसूति तब पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामीजी मार्य श्री जम्बु स्वामी भादि मुनि प्रवरों को वाचना दे रहे हों, ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ । .... आगमवाचनादाता के कंठ में माधुर्य था, आवाज़ में मेघ-ध्वनि थी, भाषा में उदात्त, अनुदात्त, खरित, घोष, महाघोष, लय मात्रा आदि की स्पष्टता थी । नाद गंभीर था । श्रोता. वर्गको भागम की एक एक पंक्ति पुनः पुनः सुनने की इच्छा होती । आगम की व्याख्या, सहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालमा और प्रत्यावस्थान सहित शास्त्रीय पद्धति से होती थी। जैसे चन्द्र की चादनी उच्च नीच का भेद न कर उने को प्रकाश और शीतलता देती है वैसे ये महापुरुष स्वगच्छ और परगच्छ का भेद किये बिना सबको शुद्ध हृदय से वाचना देते हैं। पूज्यश्री “वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना रखते थे। उनकी दृष्टि में निंदक और पूजक समान थे। कनक और पाषाण में उनकी समान बुद्धि थी । इन व्यापक गुणों के कारण उनकी बाचना में भाते हुए किसी को संकोच नहीं होता था। उस समय जितने मुनि थे उनमें से अधिकांश बाचना लेने आते थे, और जो नहीं आ सके थे उन्हें न आ सकने का खेद था। इस वाचना से दो सौ से अधिक मुनियों और सौ से अधिक महत्तरा भादि साध्वियों ने लाभ उठाया था। कुल सात वाचनाएँ हुई थी। एक बाचना छ: महिने चलती थी। इनमें से एक वाचना पाटणमें, एक अहमदावादने, दो सूरत में, एक पालीताणामें, एक कपड़वंजमें और एक रतलाम में हुई। इनमें Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आगमघर सूरि श्री दशवैकालिक सूत्र, श्री अनुयोगद्वार सूत्र, श्री आवश्यक सूत्र, श्री उत्तराध्ययन सूत्र, श्री विशेषावश्यक सूत्र, श्री स्थानांग सूत्र, श्री औपपातिक सूत्र, श्री आचारांग सूत्र, श्रीं नंदी सूत्र, श्री भगवती सूत्र श्री ओघनियुक्ति तथा श्री पिंडनियुक्ति की बाचनाएँ हुई। ये वाचनाएँ श्री देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की वाचनाओं की याद दिलाती थीं । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवा अध्याय आचार्य पदवी सूरत में सूरिपद अंतरिक्षजी तीर्थ की विजय के बाद पूज्यपाद भागमोद्वारकजी महाराजने विहार करते हुए पुन: सूरत में पदार्पण किया। सूरत की स्वागत यात्रा पहले से भी अधिक दर्शनीय, अधिक आकर्षक और भावमय थी। __ वर्षों से सूरत के जैन संघ की एक यह शुभ कामना थी कि हमें अपने नगर में पूज्य भागमाद्वारकश्री को भाचार्यपद देने का पुण्य प्राप्त हो तो कितना अच्छा ! इस के लिए आवश्यक प्रयास वे कब से कर ही रहे थे, अब उन प्रयासों में और वृद्धि हुई। पूज्यपाद भागमाद्धारकजी आचार्य पद पर आरूढ होना चाहते हों ऐसी बात बिल्कुल नहीं थी, परन्तु देशकाल की स्थिति और संयोगों को देखते हुए भाचार्य-पद ग्रहण करना अनिवार्य' था। आचार्य होने का अर्थ था एक उत्तरदायित्वपूर्ण मौर जोखिमभरे पद को ग्रहण करना। यदि शास्त्रोक्त विधि के अनुसार इस पद का पालन किया जाय तो तीर्थ कर नाम कर्म बाँध सकता है और इस के प्रति बेवफा बने तो नरक के द्वार खुल जाएँ। सरत के श्रावकों को यह ज्ञात हुआ.कि पूज्य भागमोदारकजी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ आगमधरसरि को आचार्य-पद अर्पण करने की विधि हमारे नगर में होने वाली है। इस से उनके हृदय आनन्द-विभोर हो कर नाच उठे। सूरत के संघ में विवेक और बृद्धिमत्ता थी, उस में शासन की शोभा बढाने के कार्य करने की सूझ बूझ भी थो, परन्तु अशुभ के उदय के कारण संघ में फूट की छोटी सी चिनगारी भयानक दावानल उत्पन्न कर सकती है, विनाश का तांडव मचा सकती है। पूज्य आगमाद्वारकश्रीजी को इस का पता था, अतः उन्होंने कहा कि सूरत सूरिपद का उत्सव तो उमंग के साथ मनाए और हृदय में द्वेष की आग धधकती रहे यह कैसे चल सकता है ? महाराजश्रोने सूरत संघ के अप्रगण्य पुण्यात्माओं को बुला कर कूट की आग के विषय में बात की। सूरत सूरिपद-प्रदान के उत्सव का लाभ खाना नहीं चाहता था, अतः चर्चा-विचारणा के बाद सबने अपने अपने मतभेद भुला दिए और सब पूज्यश्री के पदवी-प्रदान महोत्सव में आनन्द-पूर्वक सम्मिलित हुए। पदवी दान के आठ दिन पहले से जिनमदिरों में उत्सव शुरू हुआ। प्रतिदिन प्रातःकाल कुमारिकाएँ धवलमंगल गीत गाती; दोपहर को जिनमंदिरों में राग-रागिनियों के साथ पूजा भणाई जाती, रात को भावनाएँ होती और चौक में नगर की श्रद्धावती सुश्राविकाएँ गरबे गाती थीं। रथ-यात्रा पदवीदान के एक दिन पहले रथयात्रा-जलयात्रा थी। वह सुरत के जिन रजिमार्गों से निकलने वाली थी उन सभी मांगों को वजा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमघरसरि पताका, अशोक के पत्तों के तोरण, कमान आदि से सजाया गया था। जगह जगह सुन्दर कमखाव की कमाने विशेष आकर्षक दिखाई देती थीं। ___मार्ग में थोड़ी थोड़ी दूरी पर शक्कर के जल की व्यवस्था थी। उसमें कालीमिर्च, दालचीनी, लौंग, जायफल तथा केसर आदि का सानुपातिक मिश्रण किया गया था जिस से किसी को लू न लगे और मार्ग का ताप और श्रम दूर हो जाय । .. शुभ चौघडिये में रथ यात्रा का प्रारंभ हुआ। सब से भागे पारस्य देश के सुधा-धवल अश्वों पर नगाड़े थे, हवा से बात करनेवाली सहस्र लघुपताका मांडित इन्द्र ध्वजा थी। उसके बाद प्राम्य-बाय-समूह था । घुड़सवारों की पंक्ति सबका ध्यान आकर्षित करती थी। उसके पीछे पदाति संघ सेवको की दीर्घ श्रेणी पद-पद्धति-पूर्वक चल रही थी। आधुनिक वाय-यंत्रोंका समूह (बैंड) सुन्दर स्वरोका कूजन कर रहा था। महापताका-समूह आया तब लोग ऊँचे देखने लगे । रास खेलती हुई कुमारिकाका वृन्द निकला, उसके बाद सजे धजे वाहनेका समूह या । पाश्चात्य वाथ-समूह श्रवणप्रिय सुर सुनाता था । हस्तिदल सब के नेत्रोंको अपनी ओर आकर्षित कर रहा था । सरकारी बैंड की मधुर ध्वनि सबको मनमोहक लगती थी । उसके पीछे पूज्य प्रवर थी अपने शिष्यादि परिवार के साथ समितिपूर्वक चल रहे थे। उनके पीछे संघ के धर्मप्रिय श्रावक लोग थे । उनके पश्चात् तीर्थं कर परमात्माकी प्रतिमासे युक्त सोने-चांदी से जड़ा हुआ दिव्य कलामय तीन शिखरोवाला महारथ आया । उसके पीछे पूज्य साध्वी-संघ था, और अन्त में नगर की महिलाएँ प्रभु-गुण गाती चल रही थीं, मानों पूज्यपादश्री के पदवी दान-प्रसंग पर स्वर्ग से देवियाँ उतर आई हो । सबके आखिर में प्रामरक्षक दल था। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કૈંક आगमधरसूरि इस रथयात्राका देखने के लिए राजमागों पर जनसमूहं उमड रहा था । आवासों की अट्टालिकाओं और गवाक्षों से भी लोग इस रथयात्रा को देख रहे थे । आसपास के गांवों के लोग भी देखने आए थे । शांति के सेनानी को आचार्य पद प्रदान के निमित्त आयोजित इस रथ - यात्रा में अशांति की कोई संभावना नहीं थी तो भी राज्य की ओर से अपने कर्तव्य - पालन की दृष्टि से सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया गया था । शुभ घड़ी में शुरू हुई रथयात्रा अमृत घड़ी में पूर्ण हुई अतः आज भी यह यात्रा अमृत है-स्मृति में आती है । अमृत पान करने के कारण अभी भी जीवित है । पदवी-पदान सूर्य देव का रथ आकाश आनन्द प्रवाह भी बढ़ता आज परम प्रिय धर्मगुरू का पदवी देने का शुभ दिन था । लोग सूर्योदय से पहले ही उठ चुके थे। ज्यों ज्यों मार्ग पर अग्रसर होता था लोक हृदय का जा रहा था । पदवी - दान के लिए ध्वजा, पताका तेोरण आदि से सुशोभित विशाल मंडप ( शामियाना ) बनाया गया था । सुगंधित धूप तथा गुलाब जल के छिडकाव से वातावरण निर्मल सुगंधमय एवं शीतल बना हुआ था । नगरका नरनारी - वृन्द बहुमूल्य और आकर्षक वस्त्राभूषणों से सज धज कर आने लगा। थोड़े से समय में सारा मंडप मानव - समूह से भर गया । - मिथ्यात्व - तिमिर - भास्कर, तपगच्छ - गंगन - दिवाकर मुनिप्रवर श्री मुक्ति विजयजी महाराजश्री ( मूलचंदजी ) के शिष्य रत्न Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सूरि आबाल ब्रह्मचारी परम पूज्य तपोनिष्ठ सूरिशेखर आचार्य महाराज श्री कमल सूरीश्वरजी महाराज आचार्य-पद-प्रदान - विधि करवाने वाले थे । जब उन्होंने पूज्य आगमे । द्धारकश्री के साथ उक्त पटांगण में पदार्पण किया तब वहाँ उपस्थित समस्त जन-समूहने विनय-पूर्वक खड़े होकर दानां पूज्य महात्माओंका जयजयकार किया । ८५ पटांगण में एक कलामय काष्ठ मंच बनाया गया था । पूज्य पाद आचार्य देवश्री कमल सूरीश्वरजी महाराज उस पर बिराजमान हुए । अन्य पूज्यवर भी यथा - योग्य स्थानों पर बैठ गए । लाभ घड़ो चन्द्र स्वर में पदवी प्रदान की क्रिया शुरू हुई । रजत समवसरण पर विराजित चतुर्मुख तीर्थकर परमात्मा की प्रतिमाओं के समक्ष यह मंगलविधि प्रारंभ हुई । सर्व प्रथम नंदी की विधि की गई । समस्त जमसमूह आतुर नयनों से यह विधि देख रहा था । नंदी - विधि के बाद बंदनक, कायात्सर्ग, सात खमासमणे, सात आदेश, बृहद् नंदी सूत्र - श्रवण आदि विधियाँ हुई । चतुर्मुख भगवान् के सामने श्री नवकार महामंत्र पढ़ कर पूज्य पाद आचार्य भगवंत विजयकमल सुरीश्वरजी महाराजने अपने वरद हस्त में सूरिमंत्र - वर्धमान विद्यामंत्र आदि से अभिमंत्रित वास ग्रहण किया, यह वास पूज्य पं. श्री आनन्दसागरजी गणीन्द्र के मस्तक पर डाला, फिर मुनीश्वर आनंदसागरजी गणीन्द्र श्री नवकार गिनकर तीन प्रदक्षिणा देने लगे । इस समय उन पर चतुर्विध संघ वासक्षेप कर रहा था । जय घोषकी ध्वनि और प्रतिध्वनि गूँज रही थी। कुछ उदार पुण्यवान ने Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “मागमधरसरि वासचूर्ण में खरे अखंड माती मिलाये थे तो कई भाग्यशालियोंने सोने चादी के फूल मिलाये थे। इस समय आगमोद्धारकजी चन्दन चूर्ण चर्चित ज्यानस्थ मूर्ति सहश दिखाई दे रहे थे। यह वासचूर्ण-निक्षेप विधि और प्रदक्षिणा-विधि तीन बार को गई। अन्य विधि-विधान पूर्ण होने पर पूज्यपाद आचार्य वर श्री कमल सूरीश्वरजी महाराजने वासचूर्ण हाथ में लेकर मंत्र पढ़ना आरंभ किया। पटांगन में सम्पूर्ण नीरवता छाई हुई थी। नामाभिधानपूर्वक पदअर्पण की मुख्य विधि शुरू हुई। पूज्य श्री अर्धनिमीलितनयन कुछ गुन गुना रहे थे । 'ॐ ह्रो' जैसे उच्चारणांका अस्पष्ट खयाल आता था । क्षणभरमें उनके नेत्र खुले। उन्होंने गंभीर ध्वनि में कहा- "आज से भापको आचार्य पदवी दी जाती है, और आपका नाम 'आचार्य श्री आनन्द सागर सूरि' रखा जाता है ।" यह विधि तीन बार की गई । तत्पश्चात् गुरुमंत्र देने की विधि शुरू हुई । आगमोद्धारक श्री के कान में गुरुमंत्र दिया गया। इस अवसर पर भाचार्यशेखर कमलसूरीश्वजी महाराज बहुत आनन्दित थे। सुयोग्य सुपात्र को गुरुमंत्र देनेका सौभाग्य प्राप्त करने के आध्यात्मिक आनन्द की रेखाएँ उनके मुख-मंडल पर उभर रही थी। शेष विधि करने के बाद उपवासका पच्चक्खान लिया। पद प्रदान विधि के बाद पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजय कमल सूरीश्वरजी महाराज ने बोधमय आशीर्वचन कहे । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सूरि आशीर्वचन "पुण्यवाना ! आज सूरत के आंगन में एक प्रतिभासंपन्न तथा शासन - प्रभावक पुरुष को आचार्य - पदवी दी गई है। सूरत शहर का सौभाग्य है कि ऐसे पुण्य-प्रसंग का लाभ उसे मिला है । E "पं. श्री आनन्द सागरजी गणि 'आगमेाद्धारक' नाम से सुख्याति - प्राप्त हैं ! अब उन्हें शास्त्रीय आचार्य पद प्राप्त हुआ है । उनसे कहना चाहता हूँ कि 'आप इस पद को सुन्दर ढंग से निभाएँ, शासन को आलोकित करें । आप में अद्भुत गुण है । आप शक्ति - सम्पन्न हैं । आपने लोगोंका बहुत प्रेम - सम्पादन भी किया है, परन्तु अब से आप पर एक और बड़ी जिम्मेदारी आ रही है, शासन में दिखाई देता है उसे दूर करने का सतत प्रयत्न करना | आज जो अंधकार "मेरा पूर्ण विश्वास है कि आपको आचार्य पदका या लेोकेषणा का मोह नहीं है । साथ ही आप कई बार शासन के लिए स्पष्ट वक्ता बन कर लोगों की स्वफुगी अंगीकार करते हैं, परन्तु आपके सिवा और किसी में इस समय ऐसी हिम्मत और उत्साह के दर्शन नहीं है। ते । आपके बहुत से भक्त होते हुए भी आपको भक्तों की ममता नहीं है । " आज पूज्य वर्ग में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने मान सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए भाषकोंकी झूठी प्रशंसा, आदर, विनय आदि करते हैं, श्रावकों को खुश रखने की वृत्ति रखते हैं । परन्तु आप ऐसे दुर्गुण से मुक्त हैं, और सदा मुक्त ही रहेंगे ऐसी मुझे श्रद्धा है । " आप अपनी शक्तियों का अधिक से अधिक लाभ शासन को देते रहें । आज आपकी पंक्ति में आ सके ऐसा कोई नहीं है । आप मुझसे Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अधिक शक्तिशाली है', यह स्वीकार करते हुए मुझे आनन्द होता है। ज्याद क्या कहूँ! आप एक आदर्श प्रभावक आचार्य बनें यही शुभ कामना।" शास्त्रीय परंपरा है कि आचाय-पद दाता के उपदेशके बाद पद-ग्रहण कर्ता को भी कुछ बोलना चाहिए। अतएव पूज्य नूतन आचार्य आनन्द सागरसूरिजी आशीर्वचन के उत्तर के रूप में अपनी निर्मल संवेदनशील वाणीमें कुछ शब्द बोले.. आशीर्वचन का उत्तर “भाग्यशालियो ! पूज्य-प्रवरश्रीने मुझे जो पद दिया और आप सबने मिलकर दिलाया, अतः आपके हृदय आनन्द से पूर्ण है यह बात आपके प्रफुल्लित मुखो से प्रकट हो रही है । वस्तुतः आप तो मुझे यह पद दे कर कार्य पूरा होने का सन्तोष मानते हैं परन्तु मेरे सिर पर आज से नये उत्तरदायित्व का भार आया है। यदि इस भारका अच्छी तरह वहन हो सके तो यह कर्मो के बोझ को हल्का कर देता है, और इससे तीर्थकर नाम कम बँधता है । मैं इस पदके लिए कितना योग्य हूँ, यह तो ज्ञानी ही जानते हैं। फिर भी पूज्य प्रवरश्री ने मुझे यह पद दिया और मैंने लिया है, यही अभिलाषा रखता हूँ कि मेरा मन सदा शासन सेवा के कार्यों में रत रहे; मैं इस पदका, तीर्थकर परमात्मा द्वारा स्थापित संघका नम्र सेवक बना रहूँ। "पू. उपा. धर्मसागरजी गणी, पू. उपा. श्री यशो वियजजी ग., पू. उपा. विनय विजयजी ग. आदि पूज्यगण मुझसे बहुत बड़े थे, फिर Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि ८५ मी इन महानुभावाने पदवी ग्रहण नहीं की यह उनकी महत्ता और निःस्पृहता थी । मैं भी यह पद लेना नहीं चाहता था, तथापि वर्तमान परिस्थितियां ऐसी हैं कि इसमें पदवी लेना अनिवार्य बन गया, अतः स्वीकार करना पड़ा है । जो जो सामान्य शक्तियाँ मुझे मिली है उनका हो सके उतना उपयोग शासन सेवा में करता रहा हूँ । अब भी यही चाहता हूँ कि अपनी शक्तियांका शासन के कार्य में उपयोग करने की मेरी भावना बनी रहे । देवगुरु के आशीर्वाद जिनशासन की सेवा के कार्यो में मुझे बल दें यहीं मंगल कामना है ।" · इसके बाद ‘सर्व मंगल - विधि हुई । सब लोग बाजे-गाजे के साथ जिनम ंदिर गये । इस तरह मंगल-प्रसंग की पूर्णाहुति हुई । एक धर्मराजका राज्याभिषेक हुआ । यह विक्रम संवत १९७४ की वैशाख शुक्ला दशमी का शुभ दिन था । अनाथों के नाथ पदवी - प्रदान प्रसंग पूर्ण होने के बाद पूज्य-प्रवर के पद पंकज बम्बई की ओर उठे । सूरत की जनता ने भव्य विदा दी परन्तु हृदय में शोक के साथ | महात्माका वियोग अनिवार्य है फिर भी दुःखदायक है । उस वर्ष कई प्रदेशों में वर्षा नहीं हुई । अतः पृथ्वी पर अकाल की छाया उतर पड़ी। इस प्रसंग का दुःख कम करने के लिए बहुत भाग्यवान बम्बई के धनिकों से उदार चंदा इकट्ठा कर रहे थे । पूज्यश्री को यह बात ज्ञात हुई । अकाल में मरते हुए पशुओं का रक्षक कौन ? बेचारे मूक प्राणी कसाई की छुरी के शिकार है। जाते थे। कई मनुष्यों की दाने दाने Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मघरसरि के लाले पड़े थे। पूज्य भागमाद्धारकजी ने यह प्रश्न अपने हाथमें लिया। जिस कार्य को अन्य लोग अगाध परिश्रम से भी नहीं कर सके वही पूज्य श्री के पुण्य प्रताप से अल्प प्रयास से होने लगा। लाखों रुपये इकट्ठे हुए और उचित परिमाण में सहायता दी जा सकी। पूज्यश्रीको जन-समूह में 'अनाथों के नाथ' के रूप में ख्याति मिली। फिर विहार का क्रम शुरू हुआ, सूरत में पुनर्प दार्पण हुआ। सूरत तो मानों आगमोद्वारकजी की राजधानी थी। बम्बई और सूरत बहुत बार आना जाना हुआ। फिर भी उन्हें कहीं की आसक्ति नहीं हुई। अपने साधुओं के लिए उन्हेांने ज्ञानमंदिर के बहाने मठ नहीं स्थापित किया। पूज्य श्री मालिकी के ज्ञानमंदिर बना कर शिथिलाचार को पोपने की वृत्ति के विरोधी थे। धनपति भक्तों का समूह पा कर भी वे सदा अनासक्त बने रहे। पुस्तकें और पुस्तकालय इस शासनरत्न महापुरुष के पास कई ग्रन्थ आते थे। मारवाड़ आदि से हस्तलेख लिखनेवालों तथा यतियों की ओर से कई प्रन्ध बिकने के लिए आते थे। उनमें से योग्य पुस्तकों का योग्य मूल्य धावकों से दिलवा कर पूज्य श्री. शासन परंपरा के लिए उन्हें अनासक्त भाव से रख लेते। श्वेताम्बर पक्षीय श्रावक संघ प्राचीन प्रन्यों या नये मुद्रित प्रन्थों के संग्रह तथा संरक्षण में बिल्कुल कारा है यह कहना अवास्तविक नहीं होगा। उसे सोने चादी की आँगी, हीरो के मुकुट, चादी और साने के गट्ठों की रक्षा करने में ही कुशलता हासिल है । व्यापारी जो ठहरे। आगमोद्धारक श्री ने बहुत सारे प्रत्य एकत्रित किए। इन प्रन्यों को Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ अमा करनेवाले निर्ग्रन्थ ने सोचा कि इन प्रन्थों की कोई सार्वजनीन व्यवस्था हो तो कितना अच्छा। उन्होंने सूरत के श्री संघ के सामने अपना यह शुभ विचार प्रकट किया। सूरत-सघने इस महानिर्ग्रन्थ मुनिराज से महाग्रन्थ लेकर उन्हें सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित रखने के हेतु एक सुन्दर विशाल भवन बनाया। इस भवन के साथ महानिर्ग्रन्थ का नाम जोड़ा गया। आज भी वह विशाल पुस्तकालय 'श्री जैनानन्द पुस्तकालय' के नाम से सुप्रसिद्ध है। सूरत के जैन, जैनेतर, सरकारी, प्रजाकीय विविध पुस्तकालयों में इस पुस्तकालय का अग्र स्थान है । इसमें केवल जैन-प्रन्थ ही है। ऐसा नहीं है, परन्तु यहाँ हरएक धर्म के हस्तलिखित एवं मुद्रित प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी, अप्रेजी आदि अनेक भाषाओं के प्रन्थों का विशिष्ट और सुन्दर संग्रह है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय मध्य भारत के शैलाना - नरेश को प्रतिबोध -- मालवा की ओर पूज्यपाद आगमाद्धारक आचार्य श्री विहार करते हुए मालवा की ओर पधारे । इस प्रदेश में शैलाना एक स्वतन्त्र रियासत थी । पूज्य पादश्री विहार करते करते इस राज्य में पधारे । उपाश्रय में एक दिन उनका व्याख्यान हुआ । महाराजश्री शैलाना-मरेश को महामंत्री से खबर मिली कि गुजरात प्रदेश से कोई महात्मा पुरुष पधारे हैं, और वे बड़े त्यागी, निःस्पृही तथा विद्वान् हैं अतः नरेश को उनका वन्दन करने जाने की इच्छा हुई । दूसरे रोज अपने मंत्रीमंडल - सहित वन्दनार्थ गये । वहाँ उन्होंने पूज्य श्रीको वन्दनादि करने के पश्चात् अपने महल में स्थित हॉल में व्याख्यान देने की प्रार्थना की। पूज्यश्रीने आध्यात्मिक लाभ देख कर यह बात मंजूर की । दूसरे दिन राजमहल के हॉल में व्याख्यान था अतः राजकीय अधिकारी, स्थानीय विद्वान् और धनवान् लोग भी पधारे । शैलाना नरेश भी पधारे । पूज्यश्रीने व्याख्यान दिया, जो शैलाना नरेश को बहुत ही पसंद आया । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि व्याख्यान हर रोज नियमित होने लगा। शैलाना नरेश भी राजकाज में से चार घडी समय निकाल कर व्याख्यान में आने लगे और पूज्यश्री जब तक शैलाना रहे तब तक नियमित अखंड लाभ लिया । . इसके अतिरिक्त अन्य समय में भी शैलाना नरेश पूज्यश्री आगम।द्धारकजी के साथ आर्य संस्कृति, राज्यधर्म, नीति धर्म, राजाका कर्तव्य, आत्मा, परभव, (पुनजन्म), पुण्य, पाप, मोक्ष, पाश्चात्य संस्कृति, जैनदर्शन वेदांत दर्शन, बौद्धदर्शन आदि अनेक विषयों पर गहन चर्चाविचारणा मी करते थे। जब शैलाना नरेश पूज्यश्रीके पास धर्मोपदेश सुनने या चर्चा के लिए आते तब उनका व्यवहार एक विनयशील शिष्य रत्न के समान होता था । धीरे धीरे वे आर्य धर्म और आर्य संस्कृति के ऐसे भक्त बन गये जैसे कि सतयुग के धर्मावतारी राजा हे।। शैलाना-नरेश का जीवन भी आदर्श बन गया। पूज्यपाद आगाद्वारक श्री के ससग से उनमें जीवदयाका अखड निर्झर बहने लगाजीवदया का प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ते हुए उत्कृष्ट कोटि पर पहुँचा । उन्होंने अपने राज्य के सभी गांवों में 'अमारि पडह' घोषित किया । अमयदानका यह सर्वश्रेष्ठ कार्य करके शैलाना नरेश श्री दिलीपसिंहजी स्वनामधन्य हो गये, और आगमाद्धारकजी भी अद्वितीय प्रभावक आचार्य बने । ...' उस समय से आगमोद्धारकश्रीजी के नाम के पूर्व 'शैलाना-नरेशप्रतिबोधक' बिरुद जुड़ गया । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसूरि पूर्व भारत उत्तर प्रदेश में प्रयाण चातुर्मास समाप्ति के बाद मालवा देश में धर्म-प्रभावना करते हुए कुछ मास कल्प किये। आगे बढ़ते हुए उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया । इन प्रदेशों में जिनकल्याणक-भूमिया थी । इन तीर्थ-स्वरूप भूमियों की यात्रा करते करते आगे बढ़ रहे थे। इन प्रदेशों में जैनों के घर कम थे, और जो थोड़े से थे उनमें भी धर्म के संस्कार विशेष नहीं दिखाई पडते थे । पूज्य आगमाद्धारकश्री हर एक स्थान पर यथाशक्ति संस्कार के बीज बोते हुए कानपुर पधारे। कानपुर अहमदाबाद के जैसा महानगर था । वहा लंबे अरसे से थोड़ी संख्या में जैन लोग रह रहे थे। उन्होंने एक सुन्दर जिन मन्दिर बनवाया था जो ‘काँचका जैन मन्दिर' इस नाम से सुख्यात था । यह। जन एवं जैनेतर दर्शनार्थ आते थे । कुछ दिन कानपुर में रहकर पूज्य प्रवर श्री लखनऊ शहर पधारे । वहाँ थोड़े दिन रह कर बनारस की ओर विहार प्रारंभ किया । हिन्दू विश्वविद्यालय में पूज्य आगमाद्धारकरी ने विद्याधाम वाराणसी-नगर में पदार्पण किया। सुन्दर स्वागत-पूर्वक उनका उपाश्रय में प्रवेश हुआ । दोपहर को हिन्दु विश्व विद्यालय के विद्वान् पधारे । पूज्य आगमोद्धारकश्रीजी अप्रतिम विद्वान् हैं, ऐसी ख्याति इन विद्वानांने बहुत पहले से सुन रखी थी। अतः उनकी विद्वता से लाभ उठाने और नई Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গাহি शैली, नवा ज्ञान प्राप्त करने के हेतु उन्हों ने पूज्य श्री से प्रार्थना की "आप हमारे विद्यालय में पधार कर स्वाद्वाद' विषय पर संस्कृत भाषामें व्याख्यान देने की कृपा करें।" - पूज्य आगमेद्वारकत्रीने उनकी बिनती स्वीकार कर ली। नियते समय पर विद्यालय में पधारे। पंडितों ने हार्दिक स्वागत किया, और उच्च व्यासपीठ पर बिठाया। पूज्यश्रीने नमस्कार महामंत्र पढ़ कर व्याख्यान प्रारंभ किया। गंगा नदी के अखंड स्रोत की तरह पूज्यश्री संस्कृत में धारा प्रवाह बोलते रहे। उच्चतर संस्कृत के प्रयोगों से युक्त उनकी अस्खलित वाग्धारा जारी रही। एक व्याख्यान पूर्ण हुआ। विद्यालय के विद्वानों को बहुत सरस लगा। उन्होंने और दो व्याख्यान के लिए बिनती की, साथ ही कहा, "आप कृपया सरल संस्कृत में बोले तो अच्छा रहेगा; आपकी तेजस्वी संस्कृत भाषा समज्ञने में हम जैसे को भी देर लगती है।" दूसरे दो व्याख्यान भी 'स्थाद्वाद' पर ही हुए, परन्तु उनकी भाषा सरल संस्कृत कर दी गई। विद्यालय के विद्वान सोचने लगे कि इन महात्माने बनारस में अध्ययन नहीं किया है, इन के यहा संस्कृत दैनिक व्यवहार की भाषा नहीं है, फिर भी हमें समझने में कठिन मालूम होती है वह इन्हें बोलने में सरल लगती है। कितनी विद्वत्ता है ? साक्षात् बृहस्पति के अवतार प्रतीत होते हैं। शिष्यों को भी आश्चर्य हुआ कि पूज्य गुरुदेवश्री संस्कृत में इतना सुन्दर बोल सकते हैं। ऐसी वाग्धारा बहा सकते हैं। हमें तो Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ माग्रमधरसूरि आज ही ज्ञात हुआ। ऐषी बेजोड़ विद्वता होते हुए भी पूज्य भागमाद्धारकजी जहां तहाँ विद्वत्ता का प्रदर्शन करने के लिए संस्कृत नहीं बोलते थे। सारा व्यवहार प्रचलित देश्य भाषाओं में ही करते ये। इस गांभीर्य का ज्ञान सर्व प्रथम हिन्दु विश्व विद्यालय में ही हुआ। बंगला विहार पूज्यपाद आगमाद्धारक श्री ने सोचा कि बंगाल की ओर मो विहार करमा आवश्यक है। यदि बहा रहनेवाले और व्यापार के लिए जानेवाले नये जैनों में जैनत्व के धार्मिक संस्कार नहीं रहेंगे तो बड़ी कठिनाई होगी। बंगाल में पाश्चात्य संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव था। बंगालकी जनता बहुत ही बुद्धिशाली परन्तु आलसी थी। अंग्रेजी शिक्षा की मात्रा वहाँ अधिक थी। वहाँ बसनेवाले जैन जमींदारों और राजाओं जैसे थे। यति लोग वाहन का उपयोग करते थे। अतः वे लोग वहाँ जाते और धर्म के कुछ संस्कार देते थे, परन्तु ये यति लाग कंचन का खुल्ल खुल्ला स्वीकार करते और अपने पास रखते थे। इतना ही नहीं, उनके कामिनी का संग भी न्यूनाधिक मात्रा में होता था। फलतः जैसी स्वच्छ उज्जवल छाप पड़नी चाहिए वैसो उस वर्ग की नहीं पड़ सकती थी। कलकत्ते में रहनेवाले मरुधरवासी एवं गुर्जरवासी जेना में से कइयों ने मरुधर और गुजरात में पूज्य भागमे द्वारकत्री के दर्शन किए थे, तथा समाचारपत्रों के माध्यम से पूज्यत्री की ख्याति उक्त प्रदेश में व्यापक बन गई थी। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधrefr कलकत्ता वासियों को ज्ञात हुआ कि पूज्य आगमेोद्धारकजी बिहार प्रान्त को अपने चरणकमलों से पावन कर रहे हैं । अत: जैनों का एक प्रतिनिधि मंडल उन्हें कलकत्ता पधारने की बिनती करने आया और पूज्यश्री से कहने लगा-' - "हे पूज्य गुरुदेव ! बंगाल में जैम लोग धर्म दृष्टि से कंगाल होते जा रहे हैं, और परधर्माभिमुख हो रहे हैं । आप वहाँ पधार कर उद्धार कीजिए।" इस तरह वहाँ का अक्षरश: चित्र प्रस्तुत किया । पूज्यश्री ने तुरन्त ही 'क्षेत्र स्पर्शना' शब्द के द्वारा आने की सम्मति प्रकट कीं । दूसरे दिन वहाँ के दैनिक समाचार पत्रों में बड़े बड़े अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुए । समाचारों का सार जैन धर्म के अद्वितीय अप्रतिम विद्वान्, महासमर्थ त्यागी, धर्म धुरंधर, आगमोद्धारक आचार्य महाराज श्री श्री श्री १००८ श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजा अपने शिष्य समूह सहित बिहार प्रान्त में विचरण कर रहे हैं, और अब पद - विहार करते हुए पूज्य श्री बंगाल प्रान्त में पधारेंगे। धीरे धीरे चातुर्मास से पहले कलकत्ते में पदार्पण करेंगे । हरएक गाँव में इन महापुरुष के व्याख्यान हो रहे हैं । उनके दर्शनार्थ मानव समूह उमड़ पड़ता है । ये महात्मा पक्के जैन धर्मी हेाते हुए भी समदर्शी महापुरुष हैं । उनमें साम्प्रदायिक कठमुल्लापन बिल्कुल नहीं है । किसी पर रागद्वेष न रखना उनका स्वभाव है । इन महात्माजी के दर्शन से पतित पावन बन जाता है, नास्तिक आस्तिक बन जाता हैं, मानव महामानव बन जाता है। अतः बंगाल की समग्र जनता को महात्मा के दर्शन, वन्दन का लाभ अवश्य लेना चाहिए ।' Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि समाचारे से बगल की जैन - जैनेतर जनता में आकर्षण और आनन्द की वृद्धि हुई । पूज्यश्री के प्रति पूज्यभाव बढ़ा । कलकत्ते में उनके स्वागत की सतत तैयारियाँ होने लगीं । कलकत्ते में प्रवेश एक महामंगलकारी प्रभातकाल में पूज्य प्रवर आगमोद्धारक श्रीने कलकत्ते की भूमि पर चरण रखे। दूर देश से एक महात्मा पधारे हैं यह जान कर और लोगों के मुख से सुनकर अनेक बंगवासी पूज्यश्री के दर्शनार्थ, उमड़ने लगे । बादशाही ठाटबाट के साथ विशाल स्वागतयात्रा निकली। इस स्वागत यात्राकी सजधज कलकत्ते के कार्तिकी पूर्णिमा के जलूस जैसी थी । यह एक अपूर्व गुरुप्रवेश - यात्रा थी । यह प्रवेशयात्रा जिनमंदिर पहुँची । बाहर चौगान में विशाल ' पटावास' बनाया गया था । वहाँ व्याख्यान दिया गया । हर रोज व्याख्यान में विशाल जन-संख्या आती थी अत: वह पटावास रहने दिया गया और उसी में हर रोज व्याख्यान होता था । P ९८ पूज्यश्रीको विचार आया कि नगर महान् है परन्तु उसके अनुरूप एक भी उपाश्रय नहीं है । उचित अवसर पाकर पूज्यपादश्रीने व्याख्यान में उपाश्रय के सम्बन्ध में बात कर इस विषय में कुछ करने के लिए धर्मभाषा में समझाया । उसी समय श्रोताओं की ओर से एक लाख रुपये के उदार वचन मिले । } जैन हिन्दी साहित्य इस प्रान्त के जैन हिन्दी भाषा से अधिक परिचित थे । उन्हें गुज़राती भाषा ठीक अनुकूल नहीं आती थी । पूज्यश्री शुद्ध सरल हिन्दी में व्याख्यान देते थे जिससे श्रोतागण आसानी से समझ सकते थे । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि जैन ग्रन्थ संस्कृत तथा प्राकृत में थे । कुछ प्रन्थों पर टिप्पणियाँ, भाषानुवाद, भावानुवाद आदि थे परन्तु वे सब गुजराती में थे । हिन्दी भाषा में कोई विशिष्ट धार्मिक साहित्य नहीं था । पूज्यश्री का मालूम हुआ कि हिन्दीभाषियों के लिए हिन्दी प्रन्थों की आवश्यकता है । इस शहर के अनुरूप एक ग्रन्थ-भंडार की भी आवश्यकता है । इस हेतु कुछ करना होगा । सुयेाग्य समय पर व्याख्यान में इस के सम्बन्ध में उपदेश दिया । पूज्यपादश्री की बाणी अमोघ थी। उनकी बात का अमल हुआ और 'श्री मणिविजयजी जैन ज्ञान-भंडार' की स्थापना हुई । साथ ही हिन्दी साहित्य के लिए भी येाग्य व्यवस्था की गई । पिछली पाँच-छः शताब्दियों में बंगाल में जितनी धर्मान्नति नहीं हुई थी उतनी पूज्यश्री प्रताप से हुई । तपागच्छाधिपति आचार्य - प्रवर सूरि सम्राट श्रीविजयहीर सूरीश्वरजी महाराज एक महान् शासन - प्रभावक आचार्य थे । उन्हें ने अकबर जैसे- सम्राट का बोध देकर प्रभावना करवाई । वे महापुरुष बंगाल में पधारे होते तो अनेक शासन-प्रभावना के कार्य करवा सकते, परन्तु 'क्षेत्र स्पर्शना' के अभाव में वहाँ नहीं जा सके । वह लाभ ये सूरि सम्राट दे सके हैं । अतः पाँच-छः सदियों की समयावधि में सबसे अधिक लाभ हमारे चरित्र नायक ने दिया है इस में जरा भी सन्देह नहीं है । मुर्शिदाबाद का सौभाग्य धन, धान्य और वैभव की दृष्टि से मुशिक्षवाद समृद्ध था । यहाँ बहुत से धनाढ्य रहते थे। आज भी वहाँ कई ऐसे बड़े मकान हैं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भागमधरसूरि जिनमें तीनसौ मनुष्यों का विशाल परिवार आसानी से रह सकता है। इन मकानों पर से संयुक्त परिवार प्रथा का एवं घर के वैभव और ऐक्यका अनुमान लगाया जा सकता है - इस नगरमें मुख्य श्रेष्ठिवय श्री विजयसिंहजी दुधेडिया थे। श्रीयुत् विजयसिंहजी दुधेड़िया का श्रेष्ठिवर्य कहा जाय या राजा कहा जाय यह प्रश्न उठ सकता है क्यों कि पुण्य के प्रभाव से उन्हें जो ऐश्वर्य प्राप्त था वह राजा से भी बढ़ कर था। वे विशाल जमीन के मालिक थे, उनकी छोटी सी सेना थी, बहत से हाथी घोड़े भी। नौकर-चाकरी की तो गिनती नहीं । अतः ऐश्वर्य की दृष्टि से नरेश थे, और लोग भी नरेश कहते थे। फिर भी विधिवत् राज्याभिषेक नहीं हुआ था अतः हम भी उन्हें एक विशिष्ट श्रेष्ठी माने यही अधिक वास्तविक होगा। . इस महान् ऋद्धिशाली सेठने पूज्यपादश्रीके गुणों से आकर्षित होकर उनका भव्य स्वागत किया । जैसे धर्म-नरेश स्वदेह से आगमन कर रहे है और उनकी प्रवेश-यात्रा निकल रही है। ऐसा भव्य कलामय दृश्य था, अथवा दशहरे के दिन दरबार की जो प्रभावशाली शोभाबात्रा निकलती है उसके समान यह प्रवेश यात्रा दर्शनीय थी। उस समय गरीबों को दान भी दिया गया था । एक भव्य दीक्षा-महोत्सव पूज्य प्रवर आगमोद्धारकश्रीजी के पुनीत चरणों में दीक्षा लेने की सूरत के दे। सज्जनों की. अदम्य आकांक्षा थी। पूज्यपादश्रीका फिलहाल सुरत में आगमन संभव नहीं था और ये दोनों सज्जन दीक्षा में Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसूरि विलंब सहन नहीं कर सकते थे। झवेरचंदभाई और देवचंदभाई-इन दोनोंको संसार में एक दिन बिताना भी विष समान लगता था । अब तक अनेक भाग्यवान संसार की ममता त्याग कर संयम मार्ग का सुतरां स्वीकार कर पूज्य पादश्रीके चरणों में आ बसे थे। परन्तु ये दो दीक्षाएँ बंगाल में हुई जहाँ पहले कभी दीक्षा-उत्सव हुआ हो यह जानने के लिए इतिहास के पृष्ठ फिराने पडें ऐसा है; अतः कुछ विस्तृत विवरण देना समीचीन होगा। संघ का आनंद श्री अजीमगंज जैन संघ एवं राय बहादुर श्री दुधेडियाजी को यह जाम कर अत्यन्त हर्ष हुआ कि ये दोनों सज्जन दीक्षा लेने के शुभाशय से सूरत से यहाँ पूज्यपादश्री के पास आए हैं। भतः पूज्यपादश्री से विनय पूर्वक कहा-"गुरुदेव ! इन दोनों पुण्यवानों को कृपया हमारे शहर में दीक्षा दीजिए और दीक्षा का महोत्सव करने का सौभाग्य हमें प्रदान कीजिए । बंगाल में ऐसा प्रसंग मनाया गया हो इसकी जानकारी हमें नहीं हैं । पुनः कब अबसर मिलेगा से हम नहीं जान सकते । अतः गुरुदेव ! आप हम पर कृपावृष्टि कर दीक्षा-उत्सव का लाभ हमें लेने दीजिए। पूज्य भागमोद्धारजीने श्री अजीमगज जैन संघ एवं रायबहादुर श्री विजयसिंहजी की प्रार्थना स्वीकार की । _ ज्योतिषी बुलाये गये, मुहुर्त निकाला गया। दीक्षा के लिए विक्रम संवत् १९८१ भाषाढ शुक्ला पंचमी का दिन निश्चित हुआ। जेठ वदी (भाषाढ वदी) त्रयोदशी से महोत्सव का शुभारम्भ हुआ। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आगमधर सूरि सूरत से भी संगीतकार प्रभु-भक्ति के लिए वधारे थे। महोत्सव के साथ संघ भक्ति में भोजन तो होता ही है । यह भक्ति ऐसी विशिष्ट थी कि राय बहादुर श्री विजयसिंहजी स्वयं अपने स्वामि-बंधुओं का प्रेम पूर्वक परे।सते थे । वर्षी दान-य - यात्रा दीक्षा के शुभ दिन से एक दिन पहले वर्षीदान का जलूस निकला । इस प्रसंग में बाहर से आये हुए बहुत से धर्म प्रेमी सम्मिलित हुए । बरसी - दान के जलूस में छः हाथी, दो सौ सैनिकों की पलटन, पचास निशान तथा अन्य भी साज़ सरंजाम था । कोई राजकुमार दीक्षा लेने जा रहे है। ऐसा रमणीय दृश्य था । यह वर्षीदान - यात्रा 'राम बाग' उद्यान पहुँची । वहा चैत्यवंदनादि कर के यह कार्य पूर्ण हुआ । दूसरे दिन के प्रातःकाल से वातावरण दिव्य बनता गया । रामबाग - उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे चतुर्मुख प्रभु के समक्ष उन दोनों बन्धुओं का दीक्षा दी गई ! दोनों के मुख पर त्याग का आनन्द लहरें ले रहा था । पूज्य प्रवर श्री का चातुर्मास भी अजीमगं जमे हुआ। वहाँ बंगाल और बिहार प्रान्तों के जैन तीर्थों के तीर्थोद्धार तथा सुरक्षा के लिए योग्य प्रबंध किया गया । विहार प्रभावशाली चातुर्मास पूर्ण होने पर पूज्य आगमेाद्धारकश्री ने बंगदेश से विहार किया, और बिहार प्रान्त की यात्राएँ कीं । यहाँ के Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसुरि १.३ तीर्थों के उद्धार और सुरक्षा के लिए भी उचित कार्यवाही करते हुए पूज्य श्री मरुधर-भूमि में गये। वहा सादड़ी नगर में चातुर्मास किया। बंगाल से यही आते हुए मार्ग के गांवों में मूर्तिपूजा न माननेवाले के साथ चर्चा होती, दिगंबरे के साथ भी चर्चा होती थी। उस में विजय पताका फहराते हुए सादड़ी नगर पधारे थे। यहाँ के भाग्यवान् श्रावकों ने एक 'महा उपधान तप' कराया था जो मारवाड़ में अद्वितीय माना गया था। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय दिगंबरों का उपद्रव अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्वेतांबर और दिगंबर - जैन धर्म के जब से ये देा विभाग हुए तब से जैन धर्म की अवनति होती रही है, यद्यपि बीच बीचमें कई बार उन्नति भी हुई है जो कि सोये हुओं को जाप्रत करे ऐसी होती थी, परन्तु आगे बढ़ानेवाली नहीं । मेवाड़ के महान् तीर्थ श्री केशरियाजीका झगड़ा कई वर्षो से चला आ रहा है वर्तमान में भी ऐसा नहीं कह सकते कि झगड़ा पूर्णत: मिट गया है । यहाँ की श्री ऋषभदेव भगवान की मूर्ति श्वेताम्बर और दिगंबर ये दा विभाग बनने से पहले की है । इस कारण दिगंबर लोग इस मंदिर और मूर्तिका अधिकार अपने हाथ में लेना चाहते थे जब कि वर्षो से इसका अधिकार और व्यवस्था श्वेतांबर सम्हालते थे । श्वेतांबरों की शारीरिक और प्रादेशिक शक्ति घटने पर दिगंबर लोग इस पर अपना हक जमाने का निंदनीय प्रयास किया करते थे । इस जिनमंदिर का ध्वज-दंड जीर्ण हो गया था अतः जीर्णोद्वार कर नया चढ़ाना था, परन्तु वक्र और जड़ दिगंबर लोग किसी तरह यह काम नहीं करने देते थे । आखिर पूज्य आगमेाद्धारकीने अनेक विक्षेपों के बीच उपसर्ग सहन करके यह कार्य सम्पन्न किया, और वहाँ भी शासन - ज्योति जगमगाती रखी । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमधररि गुजरात की भूमि पर पूज्यपाद भागमोद्धारक भाचार्य महाराज विचरण करते करते मायणी पधारे। विक्रमकी वीसवीं शताब्दी का समय जबरदस्त क्रान्ति का युग कहा जा सकता है । यूरोपीय कूटनीतिज्ञोने कूटनीतिके प्रयोग कभी के शुरू कर दिये थे। उन्होंने मुसलमानों को मीतर से उकसा कर उनके द्वारा मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने के प्रयत्न करवाये। दूसरी ओर वे पादरियों तथा मिशने के द्वारा सत्ता और धन के जोर से इसाई धर्म का प्रचार करवाते थे। इन दोनों के बीच जैन और वैदिक धर्मका ह्वास किया जा रहा था । कतिपय माय-संस्कृति के रक्षक विद्यावानों को इस कुटिल चाल का पता लग गया । फलतः 'हिन्द महासभा नामक संस्था स्थापित हुई।----- विचित्र हवा ___ दूसरी ओर यूरोपीय कुटनीतिज्ञों ने धर्म-सुधार की एक विषली वायु पैदा की थी। देश के बहुत से युवक उस से आकर्षित हो चुके थे। जैन युवक भी इस विषली हवा से अलिप्त नहीं रह सके, उन पर इस वायु का असर हुआ। परिणामतः यह वर्ग देवद्रव्य, बालदीक्षा, दीक्षाप्रतिबंध, मदिर, मूर्ति, ज्ञान, उपधान, उद्यापन, उत्सव, साधर्मिक वात्सल्य आदि के सम्बन्ध में शास्त्रीय बातों को र धकेल . कर मनमानी बातें करने लगा। ऐसी विचारधारा धारण करनेवाले और जैन -- कुल में जन्म ले कर जैन शासन को डगमगाने वाले लोगों की एक. मडली एकत्रित Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाममघरसरि हुई । उसने अपना नाम 'जैन श्वेतांबर कान्फरम्स' रखा। इस सुन्दर नाम को देख कर बहुत से अनजान जाल में फंस गये। इस संस्थाने धर्म शास्त्रों के विरुद्ध हो कर दीक्षा-प्रतिबन्ध' विषयक प्रस्ताव पारित किया। - 'ऐसे समय क्या किया जाय ! इस विषय पर पूज्यपाद भागमाद्वारकजी बहुत विचार मग्न रहते थे। इसी बीच श्री सूरत जैन संघ के नेताओंने अपने नगर को पावन करने पधारने की उनसे विनती की। पूज्यपाद श्री ने इसे स्वीकार किया। सूरत पधारे । सूरत में आप का शुभागमन पन्द्रह वर्ष की लम्बी अवधि के बाद हो रहा था अतः सूरत के जैन ने उनका बहुत उष्मापूर्ण स्वागत किया। संस्थात्रयम् पूज्य आगमोद्धारकश्री के सहयोग तथा मार्गदर्शन में देश-विरतिधर्म भाराधक-समाज' 'यंगमेन सोसाइटी' तथा 'नवपद आराधक समाज' नामक तीन सस्थाएँ कार्य करने लमी। 'देश विरतिधर्म आराधक समाज' का सूरत में बड़ा महत्वपूर्ण अधिवेशन हुआ। राय बहादुर श्री विजयसिंहजी दुधेडिया उसके चेतनामय, परम श्रद्धापरायण अध्यक्ष थे। वे सुप्रसिद्ध तो थे ही, धनकुबेर एवं विद्यावारिधि भी थे। उनके अजीमगंज के महल में उनका अपना स्वतन्त्र ज्ञान भंडार था, जिसमें करीब पचीस हजार से अधिक पुस्तके थीं। ऐसे समर्थ आजस्वी महानुभाष अधिवेशन के अध्यक्ष-पद पर सुशोभित थे। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगमधर सूरि १०७ कॉन्फरन्स परिवर्तनवादी, स्वच्छन्दी, भौतिकवादी संस्था थी । गुणधर्म वाले व्यक्तियों को वह अपने अध्यक्ष भी इसी तरह के भौतिक बनाती थी, और इस तरह शासन की इमारत की नींव हिला डालने का प्रयत्न करती रहती थी । उसके विरुद्ध उपर्युक्त तीने! संस्थाओंने जबरदस्त मोर्चा लिया । सभाएँ की गई और उनमें दीक्षा आदि विषयों पर शास्त्रीय प्रस्ताव स्वीकृत किये गये । परन्तु कॉन्फरन्स की शक्तिने संघकी सुरक्षित एकता का नाश किया। संघ के दो विभाग बन गये, एक परंपरा प्रेमी शास्त्रीय वर्ग और दूसरा भौतिकवादी अशास्त्रीय वर्ग | शास्त्रीय तत्त्वां तथा शास्त्रीय श्री आगमे । द्धारकजी के द्वारा इस अवसर पर श्री संघ को नियमों की जानकारी मिले, साथ ही चर्चास्पद बातों का विश्लेषण भी जानने पवित्र आशय से 'सिद्धचक्र' नामक पाक्षिक पत्र शुरू हुआ । और समझने को मिले इस नाटक न टिका बम्बई के कुछ सुधारक लोग साधु संस्था और पवित्र दीक्षा को बदनाम करने के अनेक प्रयत्न करते थे । इसलिए उन्होंने 'नवयुग नाटक समाज' नामक एक निम्न कोटि की नाटक कंपनी बनाई। इस कंपनी ने 'अयोग्य दीक्षा' नामक नाटक अभिनीत करने का विज्ञापन किया । यह नाटक एकदम कल्पित था, साधु संस्था को नीचा दिखाने और बदनाम करने की मलिनतम भावना से ही इसका आयोजन किया गया था। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८ प्रागमधरसरि पूज्यपाद भागमोद्धारकजी ने ये समाचार जानकर नाटक कंपनी के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया। सुधारकों ने बहुत सामना किया परन्तु पूज्यनी के आन्दोलन के सामने उनकी एक न चली। इस तरह उक्त नाटक के जन्मोत्सव से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। इस चर्चा-प्रकरण की अवधि में महाराजश्री के चातुर्मास सूरत तपाई में हुए। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय रक्षक से भक्षक तीर्थ शिरोमणि सिद्धाचलजी के शिखर पर बिराजमान अलबेले आदीश्वर भगवानकी यात्रा करने के लिए दूर निकट से अनेक यात्री आते है। उनमें धनवान भी होते हैं और गरीब भी; परन्तु सबके मन में भगवान से भेंट करने की धर्म-भावना होने के कारण अमीर गरीब का कोई भेद नहीं होता। अप्सराओं के समान सुन्दर सौभाग्यवती किया सुन्दर बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर दादा के दर्शन करने जाती है और दर्शन करके धन्य हो जाती है। कई धन कुबेर के समान धनवान् लोग दिव्य राजसी वैभव के साथ बडी उमंग से दादाके दरबार में दरबारी की अदा के साथ जाते हैं और दादा को वंदन करके वापस लौटते हैं। पालीताणाका राजा यह दृश्य देखता है। पतित-पावन, शरणागत बत्सल परमात्माके दर्शन करने जानेवाले तथा दर्शन करके लौटनेवाले हर्ष भरे यात्रियोंके समूह को देख कर अपने आपको एवं अपने नगरको कृतकृत्य समझने के बदले यह राजा मुगलाई खयालों में उलझ जाता है। राजा के अराजक विचार राजाने सेाचा, "दर दरके धनाच्य लोग मेरे गाँव में होकर ही यात्राको जा सकते हैं। अन्य तरह से जाना उनके लिए बहुत कठिन Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आगमधरसूरि है । ये लोग मुझे सीधी तरह धन नहीं देंगे । इन पर टैक्स लगाने से ही धन मिलेगा | टैक्स न देनेवालेको पर्वत की सीढ़ी पर कदम ही नहीं रखने दूँगा । पालीताणा शहरका मैं मालिक हूँ आखिर ।” इस राजाने धन के लाभ से सूचना प्रचारित की यात्री मुझे अर्ध- सुवर्णमुद्रा देगा, उसके बाद ही यात्रा "सबसे पहले कर सकेगा । " धर्म-विरोधी धर्मांध मुसलमान राजाओं ने आर्यो के तीर्थो की यात्रा करनेवाले यात्रियों पर टैक्स लगाया था जिसे 'जजिया' कहते थे । यह टैक्स मुसलमान राजाओं पर काला कलंक माना जाता था । बुद्धिमान बादशाह अकबर ने अपने पुरोगामियों के कलंक को धोने के लिए परमपूज्य आचार्य देव श्री विजयहीर सूरीश्वरजी महाराज उपदेश से 'जज़िया' उठा लिया था । परन्तु धनलोलुप पालीताणानरेश ने यह टैक्स फिर से शुरू करने की जो घोषणा की मुस्लिम बादशाहों ने हटा दिया था । जैन श्रावक संघों ने इस राजा के अन्यायपूर्ण टैक्स का नम्रता पूर्वक विरोध किया । श्रमण-संघ के नायक आचार्य देवों ने राजा का शान्ति पूर्वक बहुत बहुत समझाया। इस कार्य में पूज्य आगमेाद्धारकश्री का बहुत बड़ा हाथ था । आगमोद्धारकभी का समझाना 'क्षत्रियकुल भूषण राजाओं के वंश में उत्पन्न हे राजा ! यात्रियों पर टैक्स लगाना तुम्हें शोभा नहीं देता । तुम अपने पूर्वजों की कीर्ति को कलंकित न करे।। यह राज्य कोई बिरासत में मिली हुई Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसरि पूँजो नहीं है। संघने तुम्हारे पूर्वजों को इस तीर्थ की रक्षा के लिए नियुक्त किया था, और तुम्हारे वंशजों के कुटुंबे के योग क्षेम के हेतु इन गांवों की आय के अमुक अधिकार दिये थे। आज तो तुम इन गांवों के मालिक बन बैठे हो। फिर इतने से सन्तुष्ट न हो कर तुम तीर्थ-यात्रियों पर टैक्स लगाने की इच्छा रखते हो ! ऐ राजा! समझदार बना, नहीं तो तुम्हारी प्रजा और जैन संघ तुम्हारे अन्याय की हँसी उडाएंगे; तुम्हारा नाम, तुम्हारा यश, तुम्हारा वर्चस्व क्षीण होगा। जरा अच्छे बना और समझो। निष्ठुर उत्तर कामान्धे| और मदान्धों का हृदय विवेकहीन हो जाता है। यह राजा मदान्ध बना अतः उसमें विवेकहीनता माई। राजाने कहा, "सवा हजार स्वर्ण मुद्राएँ हर माह या पन्द्रह हजार स्वर्ग मुद्राएँ पर कई देंगे तो ही तीर्थ यात्रा के लिए ऊपर जा सकेगे, अन्यथा नहीं।" . यात्रा-बन्द का ऐलान राजा के दुराग्रह के कारण जैन संघ को शत्रुजय गिरिराजकी पवित्र यात्राको जाना बन्द करना पड़ा। दिन बीतने लगे, परन्तु पाषाण हृदय राजा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । पालीताणाका राजा ब्रिटिश साम्राज्य का मांडलिक गजा था । उसके विरुद्ध सर्वोच्च अदालत में मुकदमा दायर किया गया । सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश यूरोपीय व्यक्ति थे; और यूरोपीय व्यक्ति अर्थात् दो बिल्लियों का फैसला करनेवाला कूटनीतिज्ञ बन्दर-फिर भी विनाशक विषम कालकी बलिहारी है कि इच्छा न होते हुए भी ऐसे कूटनीतिक से Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ मागमघरसरि - न्याय मागने जाना पड़ता है। काल के प्रभाव से जैन संघ को भी उनका श्रेय लेना पड़ा। न्यायालय का न्याय! सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया, “जैन लेाग पालीताणा के ठाकुर को प्रतिवर्ष चार हजार सुवर्ण मुदाएँ दे। राज्य की सुरक्षा के लिए अर्थतन्त्र का सशक्त होना जरूरी है, और प्रजा के पास से धन लिए बिना राजाओं से राज्य-सुरक्षा नहीं हो सकती । अतः हम 'टैक्स' को आवश्यक मानते हैं। . । यद्यपि राजाओं को अपनी प्रजा से उचित अनुपात में और दुःख न पहुँचे उतना धन टैक्स द्वारा लेना चाहिए, तथापि जैन धर्म के भनुयायियों के अल्प संख्याबल को देखते हुए उनसे पन्द्रह हजार स्वर्ण मुद्राएँ लेना ज्यादती है, कुछ हद तक भन्याय पूर्ण है, अतः हम केवल चार हजार सुवर्ण मुद्राएँ प्रतिवर्ष लेनेका अधिकार पालीताणा नरेश को देते हैं, और इस अधिकार को हम मान्य करते हैं।" - इस निर्णय से जैन संघ को हर्ष भी हुमा और विषाद भी। हर्ष इस लिए कि पन्द्रह हज़ार के स्थान पर चार हजार सुवर्ण मुद्राएँ देनी होगी । विषाद इस लिए कि धर्म में हस्तक्षेप करनेवाली प्रथा धार्मिकों पर लादी जानेका प्रारंभ हुआ। अन्य राज्य भी इसका अनुकरण करेंगे । इससे धर्म विषयक व्यक्ति-स्वान्थ्य लुप्त हो जानेका भय सबारे लिए मस्तक पर नंगी तलवार की तरह लटकता रहा और तीर्थ यात्रियों की संख्या में कमी आनेका भय भी उपस्थित हुआ। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि ११६ स्थायी निधि जिन-शासन के योगक्षेम के हित-चिंतक पू० आगमाद्धारकजी को चिंता होने लगी कि इस राजाको प्रति वर्ष चार हजार स्वर्ण-मुद्राएँ कहा से दी जाएँगी ? साथ ही यह भी चिंता हुई कि मध्यम वर्ग तथा गरीबों के लिए यह तीर्थयात्रा लगभग बन्द हो जाएगी ऐसे विचारों के अन्तमें उन्होंने इस विषय में कुछ उद्यम करनेका मनमें दृढ निश्चय कर लिया। . पूज्श्रीने उपर्युक्त हेतु से अहमदाबादके चातुर्मास में व्याख्यान के बीच संघके सामने स्थायी निधि के लिए योजना पेश की जिस निधि के सूद में से राजाको चार हजार स्वर्ण मुद्राएँ मिला करें। श्री संघने शासन के सरताज के वचनोंका हृदय पूर्वक सहर्ष स्वागत किया-"आपकी वाणी हमारे लिए आज्ञा ही है आप जैसा कहें वैसा करने को हम सहर्ष तत्पर हैं।" पूज्यश्री ने कहा, "आपको अपनी शक्ति के अनुसार काम करना है । राजाका अन्याय स्पष्ट है, परन्तु कलिकालमें धर्म प्रेमियों को धर्म के लिए ऐसा बहुत कुछ सहन करना पड़ता है मध्यम वर्ग के जैन लोग यात्रा के पवित्र लाभ से वंचित न रह जाएँ ऐसी व्यवस्था करना श्री संघ के सम्पन्न पुण्यवानोंका परम कर्तव्य है; और आपको यह कर्तव्य उचित ढंग से पालना चाहिये । अहमदाबाद के श्री संघने चार लाख रुपयों की निधि एकत्रित की और भारत भर के जैन संघ के सम्पन्न लोगों को इच्छानुसार लाभ , Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आगमधरसूरि लेने की विनती प्रकाशित की। सभी सघाने इस विनतीका सहर्ष स्वागत किया, और इस फंड को बारह लाख रुपयों से भर दिया । यह विशाल फंड श्री आनंदजी कल्याणजी की पेढ़ीको दिया गया । उस पेढ़ीने उक्त रकम अन्य व्यापारी प्रतिष्ठानों में रेकी । उसके ब्याज में आती हुई चारहजार स्वर्ण - मुद्राएँ राजा की धनलोलुपता की तृप्ति के लिए दी जाने लगीं । कानून हटा पर कलंक न मिटा प्रकृति के अटल न्याय के सामने यह असंभव है कि धर्मार्थद्रव्य को हड़पने वाले सुख से जी सकें । पालीताणा - नरेशका राज्य चला गया । राजा गये, रानी गई, और राजकुमारी गई । पर टैक्स लगानेवालों का वंश सामान्य परन्तु उक्त कलंक की कालिमा आज भी आज तीर्थ जनता का अंश बन गया है, यथावत् रही है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवा अध्याय देवद्रव्य की रक्षा गौरांग जाति की नीति बाहर गोरी और भीतर काली आंग्ल जाति के कूटनीतिज्ञोंने भारत अथवा भारत के बाहर यदि कोई मुख्य कार्य किया है तो वह प्रत्येक आर्य धर्म की भावनाओं के मूल बीजो को नष्ट करनेका राक्षसी कुकृत्य ही किया है। आंग्ल जाति के पास बुद्धि थी, और दूरदेशी भी जिसका उपयोग उसने प्रत्येक धर्म में घुसकर सुधारके बहाने जहरीली परन्तु उन्मादभरी हवा फैलाने में किया। यह एक ठोस सत्य है कि उसने इन शक्तियों का प्रयोग केवल अपने देश के हित में और अन्य देशांकी जनता के बाह्य एवं आन्तरिक शोषण में किया । इतिहास गवाह है कि आंग्ल कूटनीतिज्ञोंने हमारे ही धर्म के अनुयायी युवकों से देवद्रव्य के विरुद्ध आन्दोलनका श्री गणेश करवाया और उसके लिए अजीबो गरीब दलीलें खोज निकाली। भ्रान्तिपूर्ण दलीलें "आज जैन लोग दुःखी हैं। उनके उद्धार के लिए यह द्रव्य खर्च किया जाय तो उसमें क्या पाप है ? जैन रहेंगे तो ही जैनधर्म रहेगा । भगवान् तो वीतराग हैं, उन्हें धन से क्या मतलब ? आज देवमंदिरों में अगणित द्रव्य है, से किस काम का ? जैनों का दिया Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आगमधर मूरि हुआ धन जैन खाएँ इसमें क्या पाप है ? भगवान् हमारे पिता हैं । हम उनकी सन्तान हैं। पिता की पूंजीका उपभोग करने में सन्तान का क्या पाप लगता है ?" इस आन्दोलनका नेतृत्व आचार्य धर्मसूरिजी (काशीवाले) ने किया था । उन्हें शास्त्रों की अपेक्षा अपनी ख्याति अधिक प्रिय थी । वे गुरुकुलवास से दूर थें । यह आन्दोलन कइयों का प्रिय लगा । इसका प्रतिकार कौन करे ? प्रतिकार पूज्य प्रवर आगमेोद्धारकजीने उक्त आन्दोलनका सामना करने का आह्वान किया। उन्होंने शास्त्रीय पद्धति पूर्वक अच्छी तरह सख्त सामना किया । शास्त्रीय पाठों तथा व्यावहारिक तर्कों से सब समझाया । देवद्रव्य इकट्ठा कर के उसे दुःखी जैनों को बाँट देने से उद्धार हो जाएगा - यह मान्यता अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है । जो सच्चे दु:खी जैन है वे तो इस देवद्रव्य का स्पर्श भी नहीं करेंगे, और उन्हें यह द्रव्य दिया भी नहीं जा सकता । "आज हम जो जिनमंदिर देख रहे हैं वे पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित देवद्रव्य की व्यवस्था के परिणाम हैं। साथ ही प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जिन के पेट में या बाह्य उपयोग में देवद्रव्य लगा है वै दुःखी दिखाई देते हैं । यदि सारा गाँव इस कार्य में सम्मिलित है। तो सारा गाँव दुःखी पाया जाता है। जो जैन लोग देवद्द्रव्य से बनाये गये मकानों में किराये पर रहते हैं और उचित पर्याप्त किराया नहीं देते उनमें से भी अधिकांश दुःखी दिखाई देते हैं । इतना होते हुए Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सूर ११७ भी देवद्रव्य का उपयोग करने का कहना जैने का दुःखी बनाने के बराबर है । ऐसे कहनेवाले लोग जैनों के हित के विरोधी हैं । इस समय आणंदजी कल्याणजी की पेढ़ी, श्री गोड़ीजी जैन मंदिर या इन के जैसी दस-बीस पेढ़ियों के पास कुछ अधिक धन होगा परन्तु ये पेढ़ियाँ जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए रुपये देती हैं, जिससे जैन संस्कृति के धाम रूप जैन मंदिर आज मौजूद हैं । जब देवद्रव्य जैसी कोई व्यवस्था नहीं होगी तब आबू, राणकपुर, कुंभारियाजी जैसे मंदिर भी नहीं रहेंगे । दक्षिण भारत में दिगंबर जैने। के तथा शैवों के विशाल मंदिर थे, परन्तु उन के यहाँ देवद्रव्य जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी । फलतः वे मंदिर नष्ट हो गये । इन मंदिरों में आया हुआ द्रव्य पूजारी, पांडे, महंत आदि अपने लिए उपयोग में लेने लगे, अतः इन मंदिरों के खण्डहर ही बच रहे । यदि हमारे यहाँ भी देवद्रव्य की ऐसी दशा कर दें तो सौ वर्ष बाद इने गिने मंदिर ही बचे रहेंगे । ト जैन संघ में देवद्रव्य के सिवा और भी अनेक फंड विविध प्रकार से किये जाते हैं, जिनका अन्य प्रकार से स्वैच्छिक उपयोग हो हो सकता है । आजकल की शिक्षा अथवा आजकल के गुरुकुल, आश्रम, बोर्डिंग हाउस आदि वस्तुतः घर्मरहित हैं, या उन्होंने धर्म के सामान्य अंशों का सम्हाल रखा है । ऐसी संस्थाओं का भी जैन लोग अच्छी रकमे दान करते हैं । इन रकमों का जोड़ किया देवद्रव्य की रकम से कहीं बढ़ कर होगा । जाय तो वह Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भागमधरसरि देवद्रव्य अर्थात् 'देव का द्रव्य'- यह तो बालिश मस्तिष्क की . उपनायी हुई बात है। शास्त्रों तथा वैयाकरणों ने इसकी व्याख्या "देवाय अर्पितम्" इस प्रकार की है। अर्थात् देवों को भक्ति-पूर्वक अर्पण किया हुआ द्रव्य से देवद्रव्य । अर्पण का तात्पर्य ? हमने किसी का काई वस्तु दे दी, उस के बाद क्या यह कहा जा सकता है कि वह वस्तु हमारे अधिकार की है ? किसी को भोजन करने बिठाकर थाली परोस दी, फिर उसे वापस ले लेना, क्या इसे अपण करना कह सकते हैं ! या इसे अपमान करना कहेंगे ? किसीने कोई वस्तु दूसरे को अपण की । उस के बाद उसके पास 'जा कर वापस माँगे और कहे कि मेरा हक है तो क्या वह वस्तु उसे नियमानुसार मिल सकती है ? . देव अर्थात् पिता; हम उनके पुत्र हैं। पिता की पूंजी का पुत्र उपभोग करे तो इस में पाप नहीं है। यह तो मूखों का तर्क है। देवद्रव्य पवित्र है। हम से उसका उपयोग हो ही नहीं सकता। हमारी माता हमारे पिता की पूंजी है, परन्तु हमारे लिए वह पवित्र है, उपकारक है, भक्ति योग्य है, फिर भी वह भोग्य नहीं है। "यदि काई मूर्ख अपनी मा को भी स्त्री की तरह भाग्य माने तो क्या यह बात आप स्वीकार करेंगे ? नहीं हरगिज़ नहीं। उसी तरह देवद्रव्य पूज्य है, और देव के लिए उस का उचित ढंग से व्यय किया जा सकता है, परन्तु वह हमारे लिए भाग्य नहीं ही है।" Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि ११९ इस तरह अनेक उदाहरण और तर्क दे कर पूज्य श्री ने सब का समझाया | सभी सुविहित आचार्यों ने इस बात को स्वीकार किया, और इस प्रकरण का बहुमान्य अन्त आया । जिन लोगों ने इस बात का स्वीकार नहीं किया वे संघ से दूर जा गिरे। ये महापुरुष आगमोद्धारक कहलाते हैं, परन्तु इन्हें शासनाद्धारक मानें तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । इस महात्माने शासनसुरक्षा एवं शासन-प्रभावना के अनेक कार्य किये हैं । आज बहुत से गाँवों में सरचार्ज का अजगर प्रविष्ट हो गया है, कई स्थानों में प्रविष्ट होने का मौका ताक रहा है। परन्तु आगे चल कर यह अजगर कहीं देवद्रव्य को भी निगल न जाय, इस बात की सावधानी बरतनी होगी । कालान्तर में सरचार्ज ९० प्रतिशत और देवद्रव्य १० प्रतिशत होगा । उसके बाद तो सर चार्जरूपी अजगर देवद्रव्य पर पूर्ण अधिकार जमा लेगा, अतः सावधान रहना परभावश्यक है । . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवा अध्याय मुनि-सम्मेलन सम्मेलन का उद्देश्य आध्यात्मिक दृष्टि से पतनोन्मुख काल में भार्य संस्कृति तथा जैन धर्म पर मिथ्यामतियों के भाक्रमण होते ही आये हैं, इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उसी तरह जब भौतिक वातावरण नदी की बाढ़ की सी तेजी से बढ़ रहा है। तब जैन धर्म प्राप्त किये हुए आत्मा भी उसमें बह आते हैं और पूर्व-परंपरा से चले भाते हुए भगवान द्वारा प्रदर्शित नियमों में स्वच्छन्दता या रियायत चाहने लगते हो तो वह भी आश्चर्यजनक नहीं है। जैन धर्म के अनुयायी गृहस्थ-वर्ग की यह स्थिति हो तब साधुवर्ग उसका इलाज करता है। परन्तु साधुवर्ग में मतमेद, मनस्विता महं, लेोकेषणा आदि बढ़े, और उसमें से शाम के अर्थ और भावार्थ को तोड़ने मरोड़ने की प्रक्रिया शुरू हो जाए तब रक्षक कौन ! भगवान् का शासन इक्कीस हजार वर्ष तक अविच्छिन्न रूप से चलनेवाला है अतः आत्मानुलक्षी तथा जगजीव-हितैषी मुनिप्रवर एवं सुश्रावक अल्प संख्या में ही सही परन्तु सदा विद्यमान होते हैं। प्रस्तुत समय में मुनिवर्ग एवं गृहस्थवर्ग में कुछ विषयों में विषमता मालूम हो रही थी। देवद्रव्य, पालदीक्षा, मालारोपण, बाहर से आते Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधर सरि १२१ हुए उपद्रव्य आदि के विषय में क्या किया जाय ? इस हेतु से एकता की परम आवश्यकता भी । पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री विजयने मिसूरीश्वरजी महाराज, पूज्य आगमोद्धारक श्रीजी आदि आचार्य भगवतों का एवं श्री राजनगर अहमदाबाद के नगरसेठ श्री कस्तुरभाई मणिलाल आदि सुश्रावके का सभी मुनिवरें का एक स्थान पर एक मुनि सम्मेलन आयोजित करने का विचार आया करता था । इस विचारधारावाले महानुभावों ने विचार कर मुनिसम्मेलन कराने का निर्णय किया । प्रारूप का हल इस कार्य का नेतृत्व श्री कस्तुरभाई मणिलाल ने किया । उन्होंने बड़े बड़े आचार्यों से मिलकर उनकी सम्मति तथा आशीर्वाद प्राप्त किये । वे उन्हें आमंत्रण-पत्रिका का प्रारूप बताते और साथ ही अहमदाबाद पधारने की बिनती कर आते। अब तक सभी आचार्यो ने मुनि- सम्मेलन करने में सहमति प्रकट की और अहमदाबाद आने के विषय में आशास्पद भाव प्रकट किया । आखिर में पूज्य आगमोद्धारक श्रीके पास पुनः गये । उन्हें आमंत्रण पत्रिका का प्रारूप पहले नहीं बताया था से। अब बताया और अहमदाबाद पधारने की प्रार्थना की। पूज्य आगमे। द्वारक श्री ने प्रारूप पढ़ कर तुरन्त कहा कि यह प्रारूप ठीक नहीं है । नगर सेठ विचार में पड़ गये । कहने लगे, "महोदय । सभी आचार्यों से पढ़वा कर यहाँ लाया हूँ, सब ने इसे मान्य रखा है " Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मागमधरसरि - पूज्य भागमाद्धारकश्रोने कहा, "होगा। परन्तु आपने इस में लिखा है कि "हमारे राजनगर के श्री संघने मुनिसम्मेलन करना निश्चित किया है, अतः आप सब पूजनीयों को मुनिवरों के साथ यहाँ पधारनेका अनुरोध है ।" इस इबारत में मुनियों पर श्रावक संघकी आज्ञाका बोध होता है, अतः इसमें औचित्य नहीं लगता । आपको भी यह उचित मालूम होता है ? आमत्रण-पत्रिका में ऐसा लिखना चाहिए कि श्रमण संघने मुमिसम्मेलन करना निश्चित किया है, अतः हम अहमदाबाद के संघ की ओर से निवेदन करते हैं कि हमारे अहमदाबाद की भूमि पर सम्मेलन कीजिये ।” नगरसेठ चतुर एवं दीर्घ दृष्टिवाले सुश्रावक थे अतः तुरन्त समझ गये। प्रारूप में सुधार किया गया, आमत्रणपत्रिकाएँ छषवाई गई और प्रत्येक स्थान पर पहुंचाई गई। .. अहमदाबाद का हर्ष. .. - यह पत्रिका पढ़ कर राजनगर के श्री संघ को अपार हर्ष हो रहा था । 'मुनिप्रवर विहार करके धीरे धीरे अहमदाबाद पधारने लगे । नियत समय पर बहुत सारे मुनिमहाराज भा पहुँचे थे। ..... पू. भागमाद्धारकश्रीजी के आगमन के पूर्व आचार्य देव श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज पधारे थे। जब पूज्य आगमोद्धारकश्री पधारनेवाले थे तब पूज्य आचार्य देव श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजने उन्हें लेनेके लिए अपने शिष्यों को-आचार्य विजयोदयसूरिजी आदि साधु भगवंतों को-सुतरिया बिल्डींग के बाहर सड़क पर अगवानी के लिए भेजा था । ज्योंही · आगमाद्धारकधी सुतरिया बिल्डींग के पास पहुँचे त्यांही आचार्यदेव श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज उन्हें लेने Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १२३ बाहर पधारे और कहा "आप को तो यहाँ मेरे साथ ही उतरना है, आगे नहीं जाना है। पूज्य आगमाद्धारकरीजीने इसे स्वीकार किया। उन्होंने कहा, "आप बड़े हैं, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं ऐसा नहीं हूँ कि आपकी शुभ भावना की अवहेलना करूँ ! हमें शासन-हित का लक्षमें रख कर कार्य करना है।" इन दोनों आचार्यों के एक स्थान पर उतरने के समाचार जान कर सजनगर की गली गली के श्रावकों में आनन्द की लहर दौड़ गई। नगर-प्रवेश पूज्य आचार्य देवश्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज और पूच्य आगमोद्धारक आचार्य देव श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज का प्रवेशोत्सव साथ में ही हुआ। उस प्रवेश-यात्रा का दृश्य ऐसा मनमोहक था मान दो राजाओं का एक साथ प्रवेश हो रहा है।। दोनों महापुरुष अपने विशाल समुदाय के साथ अहमदाबाद के पांजरापोल के उपाश्रय में उतरे। मूर्तिपूजक श्वेतांबर जैनसंघ के कुल मिला कर चारसौ से अधिक मुनिवर इस सम्मेलन में उपस्थित हुए थे। सम्मेलन नगरसेठ के अहाते में मंगलमय दिन को संमेलन का शुभारम्प हुजा । शास्त्रीय चर्चाएँ होने लगी। यह मूर्तिपूजक श्वेतांबर जैन संघका सम्मेलन था, गच्छ की बात इसमें गौण थी। तपगच्छ, खरतरगच्छ, पायचंदगच्छ, अंचलगच्छ के मुनिबराने इसमें भाग लिया था। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १२४ आगमघरसरि ... यदि चारसौसे अधिक मुनिवर बोले और विचार-विनिमय करें तो कब पूरा हो ? अतः सत्तर मुनि नियुक्त किये गये । उनमें से उनतीस मुनियों की समिति बनी । फिर चार विचारक मुनियों की प्रवर समिति धनी । इन सब के विचार विनिमय के अन्त में पूज्य नौ आचार्य जो कुछ सर्वानुमति से निर्णय करें उसे सब मुनिवर माने, और सब अपने अपने गच्छ में स्वीकृत करावे-ऐसा तय पाया । निर्णीत किये गये विषयों पर नौ आचाय विचार करते थे, उसका एक सर्वमान्य निर्णय किया जाता, और निर्णय पर सभी नौ आचार्यों के स्वीकृति सूचक हस्ताक्षर किये जाते । भंग और रंग स्वप्न द्रव्य विषयक प्रस्ताव के लिए पूज्य आचार्यदेव नेमिसूरीश्वरजी तथा पूज्य आगमाद्धारकजी सहमत थे। परन्तु यह सभी श्वेतांबर गच्छेांके मुनियोका समेलन था, और तपागच्छ के सिवा अन्य कुछ गच्छों की स्वप्न द्रव्य विषयक मान्यता भिन्न थी, साथ ही तपागच्छ के भी काई मुनि भिन्न मान्यता रखते थे । फलत : इस विषयका निर्णय नहीं हो सका । इस कारण तपागच्छ के आचार्यश्री विजयसिद्धिसूरिजी महाराज सम्मेलन में से बीच में ही उठ कर चले गये । परिणामतः राजनगर में हो हल्ला मच गया । लोगों में जोर शोर से आलोचना होने लगी कि इन दो आचार्यों के कारण सम्मेलन भंग होने ही जा रहा है । अतः दूसरे आचार्य भी विहार करने का विचार करने लगे । इस कारण से पूज्य आगमाद्वारक श्री का अत्यन्त दुःख हुआ । उन्होंने सोचा, “यदि सम्मेलन इस तरह कुछ भी कार्य सम्पन्न किये Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १२५ बिना उठ जाएगा तो साधु-संस्था का गौरव नष्ट होगा । शासन के कोई काम नहीं बनेंगे और जो काम बनेंगे उनमें भी आप नहीं आएगी । पू. आगम द्वारकश्रीने पू. आचार्य श्री सिद्धिसूरिजी से मिलकर उनसे शासन की खातिर आग्रह छोड़ देने को कहा । यह भी कहा कि इस में शासन की हेठी होंगी । आचार्य दानसूरिजी को भी बुलाकर समझाया । आखिर दोनों मान गये, और पुनः सम्मेलन आरंभ हुआ । इस बार बहुत ही सचाई और स्पष्टता से विचार विनिमय हुआ, सर्वगच्छ - मान्य प्रस्ताव पारित हुए और बहुत ही आनन्द के साथ इस मुनि सम्मेलन की पूर्णाहुति हुई । विक्रम संवत् १९७० के इस मुनि सम्मेलन में यदि पूज्य आगमेोद्वारकजी न होते ते। यह सम्मेलन न हो पाता और यदि है। भी पाता तो सही सलामत पूर्ण तो नहीं होता । ममत्वहीनता सम्मेलन के प्रस्तावों पर नौ आचार्यों ने हस्ताक्षर किये है; उन में पूज्य आगमेाद्धारकश्री पदवी पर्याय की दृष्टि से दूसरे नंबर के आचार्य थे, फिर भी प्रस्तावों के नीचे अपने हस्ताक्षरें। में मात्र 'आनन्दसागर' शब्द ही लिखा है । वे स्वयं कभी अपने को 'आचार्य' नहीं लिखते थे । उन्होंने दो सौ से अधिक ग्रन्थों का सम्पादन किया है, अनेक मये प्रन्थों की रचना की है, परन्तु उनमें भी 'आनन्द सागरसूरि' तक नहीं लिखा, केवल 'आनन्दसागर' ही लिखते थे | मात्र केसरियाजी तीर्थ के ध्वजदंड की प्रतिष्ठा और आगममंदिरे। के शिलालेख में' 'आचार्य' शब्द का प्रयोग किया है । ऐसी थी महापुरुष की ममत्वहीनता ( अनासक्ति ) । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवा अध्याय बडौदा रियासत का कलंक नगर और नगर के राजा बडोदा वर्तमान समय का एक सुन्दर नगर है । यहाँ की भौतिक शोभा बढ़ी आकर्षक है । इस का श्रेय बडोदा- नरेश श्रीमान् सयाजीराव गायकवाड का है । श्रीमान् सयाजीराव बुद्धिशाली और प्रजावत्सल वे वासना, विलास, वैभव, वारुणी एवं वारांगना के रहते थे । परन्तु राजा थे, मोह में लिपटे भारत जैसे आर्यदेश में उनका जन्म हुआ था । परन्तु उनका लालन-पालन अनार्य संस्कृति अथवा भौतिक परंपरा के अनुसार हुआ था। वे यूरोप में बहुत रहे थे । और उन्हें वहाँ बहुत अच्छा लगता था । पाश्चात्य लोगों के सहचार के कारण उनके जीवन में से आध्यात्मिकता नष्ट हो चुकी थी, या अत्यन्त अल्प रही थी । उनकी यह अभिलाषा थी कि उनकी रियाया शिक्षा प्राप्त करे और सुखी बने परन्तु उनका ज्ञान इस जन्म तक ही सीमित था और प्रजा को भौतिक सुख प्राप्त हो इतनी ही उनकी इच्छा थी । अध्यात्म-सम्बन्धी बातों के नाम पर उनके जीवन में केवल शून्य ही था । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १२५ भौतिक रंग में रंगे हुए: इस राजा को औरों की प्रेरणा से ऐसा विश्वास हो गया कि त्याग धर्म सुखमय... धर्म नहीं है.। खास कर कलियुग में तो इसकी आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी बड़ी उम्र के लोग उसे चाहे तो भले ही ग्रहण करें, परन्तु मेरे राज्य के छोटी उम्र के बालकों को संन्यासी संन्यास दें या जैन साधु जैन-दीक्षा दें यह कैसे चल सकता है ?. उन बेचारों ने स्त्री का, मुख नहीं देखा, विलास नहीं भोगा संसार-सुख का स्वाद नहीं, चखा, ऐसे को त्याग-मार्ग पर उठा ले जाना अन्याय है। मैं अपने राज्य में यह अन्याय नहीं चलने दूंगा। इस हेतु से बाल-संन्यास-दीक्षा प्रति बन्धक कानून बनाना चाहिए। इन विचारों के फल स्वरूप "बाल संन्यास दीक्षा प्रतिबन्धक कानून" को लागू करने के पहले अपने राज्य के गजेट में ये समाचार प्रकाशित कर सर्व-साधारण के सामने रखे।. .. विरोध का विरोध का झझावात को भारत वर्ष की आय प्रजाका अध्यात्म-प्रेम जाग उठा । बडादानरेश के नाम विरोध-दर्शक पत्र, तार और सौंदेशे की झड़ी लग गई। हैं। भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का उन्मूलन करने की वृत्तिवाला भी एक सुधारक वर्ग भारत में विद्यमान था। इन लोगोंने इस कानून के प्रति अपना आदर व्यक्त किया, इतना ही नहीं अपितु बाल दीक्षा को एक अत्याचार के रूप में बदनाम करना शुरू किया। साधु-स्था को बदनाम करना इन सुधारकों के लिए एक प्रकार का मजेदार खेल था। ऐसे विरोध में इन्हें बहुत आनन्द मिलता था। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरहि आधुनिक सभ्यता वीतराग परमात्मा के शासन के प्रति वफादार रहनेवाले वर्गने इस कानून का घोर विरोध किया । पूज्यवर आगमोद्धारकजीने इस कानून को लागू होने से रोकने के लिए अथाह प्रयत्न किया । राजा के साथ पत्रव्यवहार हुआ । राजाने प्रत्यक्ष मिलने के लिए बुलाया । एक दिन निश्चित किया। इस रोज मैं आप से मिलूंगा आप बडादा पधारें ।' ऐसा लिखित पत्र पूज्यश्री को मिला । . पूज्यप्रवर उस समय विहार में थे । राजाने निकट का समय दिया जिससे पूज्य श्री बडादा न पहुँच सके । फिर भी जैन शासनके लिए सर्वस्व समर्पित करनेवाले पूज्य श्री पचीस-पचीस मील प्रतिदिन का लम्बा विहार करते हुए समय पर बडोदा भा पहुँचे । ... राजाने मिलने को कहा था फिर भी वे पूज्य श्री से नहीं मिले, इतना ही नहीं ये विलासी राजा बडोदा छोड महाबलेश्वरका आनन्द लेने चले गये। सत्ता के मदमें चूर राजाने संघ के नेताओं की एक न सुनी। साधुओं की उपेक्षा की, पूज्य आचार्यों की भी अवहेलना की-यहाँ तक कि जैनशासन के कर्णधारसम पू. आगमाद्धारकजी की भी परवाह न की। शास्त्रों में उल्लिखित सरस्वती-साध्वीजी को उठा ले जानेवाले राजा गर्द मिल्ल के छोटे भाई के रूप में श्रीमान् सयाजीराव को माने तो इस में क्या उन्न हो सकता है ? अरे ! बीच का मुगलकाल सुन्दरी नारी को उठा ले जाने का युग था, परन्तु 'बाल संन्यास दीक्षा प्रतिबन्ध' का युग श्रीमान् सयाजीराव की देन है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १२९ समझाने के प्रयत्न त्यागधर्म का अवरोधक कानून बनाने की उमंग रखनेवाले राजा को अपना मुँह पूज्य प्रवरश्री को बताने में लाज लगती होगी ऐसा मान ले तो भी पूज्यश्री उनके महामंत्री से मिले और शास्त्रीय एवं सामाजिक विवरणों से दीक्षा की महत्ता समझाने का प्रयत्न किया; मुँह के मीठे मत्री हा-हा-हा कहते रहे और अधर्म-मूलक कानून अपने राज्य पर लाद दिया। ___ बालदीक्षा की उपयोगिता दीक्षा अर्थात् भौतिक विषयजन्य सुख के साधनों का स्वेच्छापूर्वक सर्वांशतः त्याग। ____ इस शरीर के द्वारा आत्महित की साधना की दृष्टि से शरीरनिर्वाह के लिए पौद्गलिक साधनों का अनिवार्य उपयोग करना पड़ता है, फिर भी इन साधनों के उपभोग में सुख की कल्पना या खोन नहीं करनी होती। इह लोक तथा परगक में भौतिक सुख मिले ऐसी इच्छा करना भी विहित नहीं। . दीक्षा का मुख्य उद्देश्य शुद्ध आत्मस्वरूप की सम्पूर्ण और शाश्वत स्थिति प्राप्त करना है। इस तरह का शिक्षित आत्मा जब भवान्तर में जाता है और जब साधारण परन्तु स्वच्छ समझवाला बनता है तब पूर्वजन्म के संस्कारों के बीजकों के कारण छः सात वर्ष की अवस्था में भी सर्व त्याग की भावनावाला बनता है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघरसूरि : यदि अत्यन्त महापुण्य का सुयोग हों तो वह बाल्यास्था में भी अपनी देह पर व्यावहारिक अधिकार रखनेवाले अपने मातापिता की सहमति मिलने पर त्याग - धर्म का सर्वाशतः स्वीकार कर सकता है, अर्थात् दीक्षा ले सकता है । १३० अपनानेवाला भाग्यशाली ऐसी बाल्यावस्था में त्याग धर्म का मार्म मात्मा आध्यात्मिक अध्ययन बहुत सुन्दर और विपुल प्रमाण में कर सकता है । उसकी शक्तियोंका विकास आध्यात्मिक दिशा में होता जाता है. और इस प्रकार उसे दुनिया के अन्य आत्माओं पर उपकार करने की शक्ति प्राप्त होती है। यह शक्ति, अध्यात्म शक्ति, परिपक्व आयु के बाद प्राप्त करना असम्भव नहीं तो दुःसाध्य तो अवश्य 1 भारत की प्राणप्रिय आध्यात्म-संस्कृति का बीज बाल - संन्यास और बाल-दीक्षा में निहित है । यही कारण हैं कि जो बस्तु यूरोप के वृद्धों असंभव मालूम होती है वह भारत के बालकों के लिए शक्य एवं सरल मलिम होती है। लिए 97 अतिमुक्तकुमार, जंबुस्वामी, वज्रस्वामी, हेमचन्द्राचार्य शुकदेवजी, सन्त ज्ञानेश्वर, शंकराचार्यजी आदि पुरुष बाल दीक्षित और बाल संन्यासी थे, अंतः वे भारतीय आध्यात्मिक क्षेत्र में भाग्य विधाता बन सके थे । 4 भारत में आध्यात्म-संस्कृति को जीवंत रखने के लिए बाल- दीक्षा और बाल संन्यास अनिवार्य है । क्या बोलक में बुद्धि नहीं होती !.. मी शक्ति के लिए कोई विशिष्ट उम्र होनी ही चाहिए ऐसा निर्णय कोई बुद्धिमान् नहीं दे सकता । दीक्षा और संन्यास के विरोधी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सूि लोग तथा श्रीमान् सयाजीराव यह मत उम्र तक सच्ची समझदारी नहीं आती । १३१ रखते थे कि अट्ठारह वर्ष की अदि ऐसा ही है तो एक बालक (१) चौदह वर्ष का एस. एस. सी. में पहला नंबर लाता है और दूसरा पचीस वर्ष का युवक आठवीं बार परीक्षा देकर भी अनुत्तीर्ण होता है। इन दोनों में से किसकी बुद्धि अधिक मानी जाय ? (२) चौदह वर्ष की उम्र में खून या चोरीका संगीन अपराध किया हो तो उसे पूरी सजा मिलती है, और सरकार यह मानती है कि अपराध वुद्धिपूर्वक किया गया है । दीक्षा के विषय में नासमझ मानना यह कहाँ का न्याय है ? (३) स्वराज्य - प्राप्ति के राजनैतिक आन्दोलन में अट्ठारह वर्ष के भीतर तक की उम्रवालों का भी फाँसी कारावास की सजा दी गई है । वहाँ 'बालक ने समझ के प्रति अपराध किया है' ऐसा माना जाता है तब में उसे नासमझ ठहराया जाता है सेा किस नीति के आधार पर ? सात वर्ष से अथवा भयंकर बूझ कर राज्य दीक्षा के विषय (४) सात साल की उम्रवाला रेलगाड़ी में खतरे की जंजीर खींचे तो गुनाह समझ कर उसे दंड दिया जाता है । (५) ग्यारह वर्ष से अधिक उम्र का लड़का आधी टिकट पर सफर करे तो उसे दंड़ होता है नादान समझ कर माफ नहीं किया जाता ! (६) छोटी उम्र वाले सभी नासमझ होते हैं और बड़ी उम्रवाले सभी समझदार, ऐसा कोई नियम प्रकृति ने नहीं बना रखा है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ भागमधरसरि . (७) कई बार छोटे विद्यार्थियों में जो सुझबूझ और समझने की शक्ति होती है वह जीवन के छोर पर पहुँचे हुए सत्तर साल के बूढे में भी नहीं होती। . परन्तु श्रीमान् सयाजीराव ऐसी बात सुनने-समझने को तैयार नहीं थे। एक बार वेश्याओं की सभा हुई। उस में इस विषय पर विचार विमर्श होनेवाला था कि “सतियों का सम्मान की दृष्टि से और हमें अपमान की दृष्टि से देखा जाता है, इस के लिए हमें क्या करना चाहिए।" विचार-विनिमय के अन्त में वेश्याओं का अपमानपूर्ण दृष्टि का शिकार न होना पड़े, और उनका सम्मान सुरक्षित रहे इस हेतु निम्नलिखित मनोरंजक प्रस्ताव सर्वानुमति से पारित किया गया--- "संसार की सभी सती स्त्रियों से हमारा आग्रहपूर्ण अनुरोध है कि आज से आप भी सतीत्त को न बचाएँ और हमारी तरह से सर्वत्र स्वतन्त्रता पूर्वक घूमे-फिरें और आनन्द लूटें। आप के ऐसा करने से जगत की जनता हमारे प्रति घृणा करना बन्द करेगी और नारी-जगत पर आप का बडा उपकार माना जाएगा। साथ ही यह भी माना जाएगा कि हमारे नारी-समाज में समानता स्थापित हुई है।" गायकवाड़ो सरकार ने अपनी विधानसभा में जो विधेयक पारित कराया वह उपर्युक्त प्रस्ताव के ढंग का है। विक्रम संवत् २००४ में श्रीमान् गायकवाड़ सरकार का राज्य गया, उनके सब हक गये, साथ ही जालिम कानून भी गया, परन्तु जालिम कानून का काला दाग आज भी कायम रह गया है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारहवा अध्याय आगम - मंदिर तन्मयता मुनिवरों के अधिनायकत्व के प्रतीक रूप पवित्र आचार्य-पदवी प्राप्त होने पर भी पूज्य आगमोद्धारकजी जब आगो का संशोधन करने बैठते और प्राचीन, जीर्ण, धूलिघूसर आगम-प्रतियों के अर्धविगलित पृष्ठ फिराने लगते तब उसमें एक अदम्य उत्साही नवयुवक साधु की तरह ओतप्रोत हो जाते थे। उस समय यदि कोई अनजामा आगन्तुक पूज्यश्री की प्रतिभा की ख्याति मुन कर दर्शन-वन्दनार्थ अनायास आ जाय तो कल्पना नहीं कर सकता था कि ये पू० भागमाद्धारक जी हैं या एक उत्साही सेवक साधु है। - पूज्यश्री इस कार्य में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि उन्हें आगन्तुक का ध्यान ही न भाता । जब सहज भाव से या किसी कारणवशात् ऊँची निगाह करते तभी आनेवाले पुण्यवान् पर ध्यान जाता। एक बार पूज्यश्री को किसी प्राचीन भंडार की कुछ ताडपत्र की तथा कुछ कागज पर लिखी प्रतियाँ मिली। ये पोथिया अत्यन्त जीर्ण शीर्ण अवस्था में थी। उनके अधिक समय टिकने की भाशा नहीं थी। इन में ५०० से १००० वर्ष पुरानी पाथिया थी। पूज्य श्री हन सब प्रतियों का पूज्यभाव से बहुत ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते थे, साथ ही मन-ही-मन कुछ अगम्य वस्तुका विचार करते थे। ... Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आगमधररि प्रशस्त-विषाद अपने पूज्य तरण-तारण आगों की ऐसी हालत देख उनके नेत्र अश्रपूर्ण हो गये। हृदय फफक उठा। बुद्धि तर्कवितर्क में उतर पड़ी। आज अथाह परिश्रम से अनेक पाथिया प्राप्त कर शक्य प्रमाण में शुद्धीकरण कर, जहाँ अर्थभेद मालूम हो वही पाठान्तर प्रस्तुत कर जो आगम और धार्मिक ग्रन्थ मुद्रित किये जा रहे हैं, क्या उनकी भी कालान्तर मे यही दशा होगी ? - ताडपत्र हजार वर्ष तक टिकते हैं, काश्मीरी हाथों से बनाये हुए कागज की आयु पाँच सौ से सात सौ वर्ष तक की होती है। यह यांत्रिक कागज और मुद्रण से मुद्रित लेख तो केवल सौ वर्ष तक ही टिक सकता है। ताड़पत्र अदृश्य होते जा रहे हैं। हस्त-उद्योग से बने हुए कागज बहुत महंगे और अलभ्य होते जा रहे हैं। इस स्थिति में हमारे पूजनीय आगम हजारों वर्ष बाद के श्री संघ को कहाँ से प्राप्त होंगे ! भविष्य के साधु भगवते के पढ़ने को मिले और श्रावक-श्राविकाओं को दर्शन एवं श्रवण का लाभ प्राप्त हो इस हेतु क्या करना चाहिए ? - गुरुदेव का हृदय इस तरह के पावन एवं सर्वजन हितकारी विचारों से भर गया । ऐसे विचार कई कई बार आया करते । निस्संदेह काई यह जान नहीं सकता था कि पूज्यश्री कौनसा महत्त्व का विचार कर - महापुरुषों की एक विशेषता होती है, उन्हीं विचारों को बाहर प्रस्तुत करना जिनका कार्य रूप में परिणत होना संभव हो । और उन विचारों को प्रस्तुत न करना जिनका अमल संभव न हो । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागमधर सुरि १३५. बे महान् पवित्र पुरुष भी अपने विचारों के मूर्तिमान् होने की बात सेाचते थे, और उनके सिद्ध होने के समय की धेर्य पूर्वक राह देख रहे थे । सुप्रभातम् शिलान्यास विधिका शुभ दिन था । प्रातः लाल गुलाल बिछाया । सहस्ररश्मि सविता ने एक जिनमंदिर के काळ अरुणने आकाश में आज के प्रभात को अपने स्वर्ण किरणों से मढ़ दिया । वदनी महिलाओं ने अपने कारकोंने गंभीर ध्वनि में पूज्य आगम द्वारक महाराज रहे थे । शिलान्यास-भूमि प्रभात गीत गायें गये । मंगल वाद्य बज उठे । नगर की सरोजकोकिल कंठ से मधुर गीत गाये । क्रिया मन्त्रोच्चार किया । ऐसे मंगल मुहूर्त में जिनमंदिर के शिलान्यास विधि- प्रसंग में जा निकट आई । गुरुदेव हाथ में वास - चूर्ण ले निक्षेप कर रहे थे तभी एक धन्य व्यक्ति कर सूरिमंत्र गिनकर वास के नाम से अंकित ताम्रपत्र शिला के पास स्थापित होते हुए उन्होंने देखा । वासनिक्षेप कर के वापस आए । P. उनके मुख पर सात्त्विक आनन्द छा गया। कई दिनों से मन में जो विचार चल रहा था, जिसके कार्यान्वय के लिए मनोमन्थन हो रहा था, उसका बहुत ही सुन्दर हल आज के छेदे से दिखनेवाले मंगलप्रसंग में मिल गया । 'ताम्रपत्र पर लेख लिखना लिखना क्यों संभव नहीं । अवश्य संभव है ।' संभव है तो आगम उस दिन के खनूठे आनहद का लाभ तो जुन समय केवल पूज्य - पाद आचार्य भगवंत श्री आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराजने ही किया ! Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अगमधरसूरि यह बात अभी तो उनकी मनेाभूमि में ही कल्लोल कर रही थी। बाहर भाये बिना अन्य किसी को कैसे ज्ञात हो ? पाषाण प्रतर का विचार सम्पूर्ण आगमों को ताम्रपत्र पर लिखने का विचार जैसे आने बढ़ता गया वैसे आगमोद्धारकजी के मन में नये विचारोंका स्फुरण हुआ। महाराजा खारवेल और सम्राटू सम्प्रति के शिलालेख, कई राजाओं की आज्ञाएँ शिलाओं पर खुदी हुई है, दो हजार वर्ष बीतने पर भी ये विलाएँ सुन्दर स्थिति में प्राप्त होती है अत: शिला-प्रतर पर आगम खुदवाये जाएँ तो कैसा । अद्वितीय विचार पूज्यपाद आगमोद्धारकश्रोका यह विचार इस अवसर्पिणी काल में सबसे पहला मालूत होता है। नीलमणि, गोमेदक, प्रवाल, स्फटिक आदि रत्नों की प्रतिमाएँ बनी थी। अर्जुन, जांबुनद, पीताभ सुवर्ण की मूर्तियाँ बनी, रजत और पंच धातुओं की मूर्तिया बनाई गई, अनेक प्रकारके पाषाण-खंडों में से प्रतिमाएँ बनाई गई थी। कसोटी, काष्ठ, चंदन, हाथीदात आदि की मूर्तिया बनी थी । विविध प्रकार की स्याही से, सोने चांदी की रोशनाई से भी आगम प्रन्थ लिखे गये थे फिर भी पाषाण-आगम मदिर अथवा ताम्रपत्र आगम मदिर का उल्लेख शास्त्र के पृष्ठों में अथवा इतिहास के वर्णने में लिखा हुआ नहीं मिलता। - आगम दीघजीवी हो और उनके द्वारा भविष्य के भव्य जीवों को जिनवाणी की प्राप्ति हो सके इस हेतु से आगम मंदिर बनवाने का Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १३७ विचार एक स्वतन्त्र एवं अपूर्व विचार था। यह एक नूतन और दिव्य प्रेरणा थी। प्रथम संगमरमर के शशिधवल स्वच्छ सुन्दर पाषाण-प्रतरों पर आगम खुदवाना उपयुक्त प्रतीत हुआ। पवित्र भूमि _____ जहाँ आत्मसिद्धि की साधना आसानी से होती है ऐसे सिद्धगिरि की उपत्यका में स्थित पादलिप्तपुर में पूज्यपाद आगमोद्धारकश्रीजी चातुर्मास रहे हुए थे। हर रोज गिरिराज की स्पर्श ना करने तलहटी जाते थे। एक बार तलहटी की स्पर्श ना कर लौटते हुए उनकी निगाह बायीं ओर की भूमि पर गई । शुभ संकल्प की सिद्धि का रमणीय दृश्य मन में चमक उठा । 'इस भूमि पर आगम मंदिर बने तो अच्छा ।' __यह अनादि सिद्ध सिद्धान्त है कि पुण्यवान् जो विचार करते हैं वह सिद्ध होता है । पूज्यपादश्रीने उचित अवसर पा कर यह बात भाग्यशाली श्रद्धासंपन्न श्रावकों के सम्मुख प्रकट की। शनैः शनैः इस बातका सक्रिय अमोघ प्रचार हुआ । पुण्यवान् आगमोद्धारकश्री की भावना का भाग्यशालियों ने भक्तिभावपूर्वक आदर किया और उसे कार्यान्वित किया । रेखाचित्र निर्णय - सुशिल्पियों को आमन्त्रण मेजे गए । सब को रेखाचित्र विषयक मार्गदर्शन दिया गया । बहुत से शिल्पकार रेखाचित्र के काम में जुट गए । दूसरे महीने से बहुत से रेखाचित्र प्रस्तुत हुए । पूज्य आगमद्वारकत्रीने उन रेखाचित्रों का सूक्ष्म-निरीक्षण किया, और उनकी. दृष्टि एक रेखाचित्र पर स्थिर हो गई । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रमधरस्ति चार द्वार, अतुर्मुख भगवन्त, विशाल गर्भगृह, पैंतालिस देव कुलिकाएँ, पाच मेक आकृतिया, पैंतालिस चतुर्मुख जिनबिम्ब, दीवारों पर पैंतालीस आगम, गगनचुम्बी मूलशिखर; पैंतालिस का सुन्दर सुमेल था। जब पुण्यवान् शिल्पकार भानुश करभाई ने रेखाचित्रका आरम्भ किया था तब उनकी उंगलियों के पोरों पर दिव्य शक्तिने वास किया हो ऐसा प्रतीत होता था । यह दिव्य शक्ति अपनी इच्छानुसार उंगलियोंको चलनेकी प्रेरणा देती थी, और सफेद कागज पर रेखाएँ अंकित होती. जाती थीं। इस सुशिल्पी को शिल्प शास्त्रका ज्ञान तो था ही परन्तु शिल्पशास्त्र में अभी तक इस रेखाचित्रका समावेश नहीं हुआ मा । फिर भी यह रेखाचित्र झास्त्रविशुद्ध था। पूज्य आगमाद्धारकजीने रेखाचित्र देखकर हर्ष प्रकट किया । कार्यारंभ - सलहटी के पास की भूमि राज्य से मांगी गई । राजाने बोडी कीमत में और देर किये बिना भूमि दे दी। ज्योतिषियों के बुलाकर ज्योतिष दिखाया गया । क्रमशः भूमिशोधन, भूमिखनन, शिलास्थापन, द्वार-शाख-स्थापन आदि क्रियाएँ प्रशस्त मुहुतों में शीघ्रता से होने लगी। मकराना से संगमरमर आया, 'ध्रांगध्रा की खान और तिवरीका पत्थर आया। पालीताना काईचत् स्याम पत्थर भी काम में लाया मला। कुम्हार की गली से ईंटें लाई गई, सोनगढ़ी चूना भावा। शत्रुजयी मी ही रेती भाई । मरुधर और गुर्जर प्रदेश के शिल्पी भागे । सैंकडों कारीगर और हमारी सेवक काम करने लगे। लाखों रुपयों का व्यय शुरू हुआ। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १३९ कुछ ही महीनों में गगनचुम्बी विशाल मंदिरका निर्माण हो गया । मयनाकर्षक संगमरमर के प्रतरों पर पैंतालीस आगम लिखे गये । उन्हें राली से रंगा गया । और शुभ मुहूर्त एवं मंगल घड़ी में उन्हें दीवार पर लगाया गया । पैंतालिस देवकुलिकाओ के चतुर्मुख बिंब बने। इसके साथ अद्भुत सिद्धचक्र गणधर मंदिर की स्थापना हुई थी । उसमें वर्तमान अवसर्पिणी काल के समस्त तीर्थकर भगवानों के सभी गणधर प्रभुओं के बिम्बों की स्थापना होनेवाली थी । इन बिंबों तथा और भी बाहर से आये हुए अनेक जिनबिंबों की अंजनशलाका विधि- प्राणप्रतिष्ठा विधि - अधिवासना विधि पूज्यपाद आगमेाद्धारकश्री के पुण्यमय पावन करकमलों से नेवाली थी । महोत्सव का प्रारंभ महामंदिर का उत्सव भी महान् था । उसकी शोभा के अनुरूप तेरह दिनों का महोत्सव शुरू हुआ । सर्वत्र भावभीनी आमंत्रण - पत्रिकाएँ पहुँच गई थी । देश - देश के, गाँव गाँव के भाग्यशाली आने लगे । कई पुण्यशाली धनिक अपने धनका पवित्र कार्य में उपयोग करने की भावना से आए थे । वे धन व्यय करके भक्ति-लाभ लेना चाहते थे । मध्यम वर्ग के लोग प्रभुभक्ति देखने और उसके द्वारा धन्य होने आये थे । ये महानुभाव अनुमोदन का लाभ खाना नहीं चाहते थे । पूज्य साधु-साध्वी-वर्ग भी बडी संख्या में उपस्थित हुआ था । यहाँ पधारे हुए सभी महानुभाव अपने आपको धन्य मानते थे। उन्हें प्रभुका उत्सव देखने के अपने पुण्यका आनन्द था । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. आगमधरसरि अयोध्यानगरी की रचना इस धारणा से कि इस महोत्सव में सम्मिलित होने बहुत से पुण्यशाली आएँगे ही, पटमय अयोध्या नगरी की रचना की गई थी। इस महामदिर के मूलनायक भगवान आदीश्वर परमात्मा थे अतः इस मानवनिर्मित पटमय नगरीका नाम 'अयोध्या' रखा गया था । इस नगरी की रचना अयोध्या की याद दिलाती थी। हजारों की संख्या में पंक्तिबद्ध छोटी छौलदारिया थी। बीचमें बड़ी छौलदारिया श्री। कुछ विशाल तंबू भी ताने गये थे। उत्सव मनाने के लिए अतिविशाल पटांगन बनाया गया था। महा पटमंडप चीनाशुकवस्त्र से सुशोमित था उसे ध्वजा, पताका, तोरण, आदि सुशोभनों से राजमहल सा बनाया गया था । उसमें मेर पर्वत, समवसरण आदि की हूबहू रचना की गई थी। वहा श्रीपाल महाराजा और मयणा सुन्दरी महारानी के जीवन प्रसंग दर्शानेवाले चित्र भी देखनेको मिलते थे। कुम्भ स्थापन माघ सुदी दशमी रविवार को जलयात्रा जलूस था । माघ सुदी सोमवती एकादशी के शुभ दिनको कुम्भ स्थापना द्वारा उत्सव का मंगलाचरण हुआ। साथ साथ अखंड दीप स्थापन, जवारारोपण, विजय स्तम्भ स्थापन विधि की गई । दोपहर को पूजाएँ और रातको भावनाएँ होने लगीं। दूर दूर के प्रतिष्ठित संगीतकार भक्तिरस जमाने आ पहुंचे थे। अन्य दिनों में दशदिक्पाल पूजन, नवप्रह पूजन, नयावर्त पूजन, अष्टमंगल पूजन, अधिष्ठायक पूजन आदि विधिविधान किये गये । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरमूरि १४१ च्यवन कल्याणक च्यवनादि कल्याणक-समारोह के लिए नाभिराजा का चीनांशुमंडित राजप्रासाद बनाया गया था। उसकी रचना सुन्दर राजमहल को भी मात करती थी । आज च्यवन कल्याणक-विधि थी, अतः उक्त मानवसर्जित पट-राजमहल के भीतर हजारों प्रेक्षक उपस्थित हुए थे। - चिनांशु-राजमहल में रेशमी गलीचों का बमा शयनागार था। सभी प्रेक्षकों की नजर उसकी ओर थी। उसमें हलका सा बँधेरा था । छोटे छोटे रत्नदीप हलका प्रकाश बिखराते थे। उस प्रकाश में नीलम के पलंग पर सोई हुई राजरानी दिखाई देती थी। उसके नेत्र हलकी सी नींद के भार से मुंदे हुए कमल-से दीखते थे। उनके मुख पर मधुर निद्रा-दर्शक हलकी-सी मुसकान दिखाई देती थी। रत्नदीप की किरणे मुख पर पड़ने से वह मुसकान स्पष्ट दिखती थी। पटांगन में नौरव शान्ति थी। इतने में आकाश से एक प्रकाश पुंज उतर भाया और महारानी भरुदेवा की कुक्षि में स्थिर हुआ। ____ इस के साथ आकाश में से ऐरावत हाथी उतरा। संगीतकारों ने सौम्य स्वर में 'पहेले गजवर दीठे।' यह गीत शुरू किया। वीणाने अपना पंचम सुर मिलाया। तत्पश्चात् मत्त वृषभराज पधारे, केसरी सिंह और लक्ष्मीजी आई। क्रमशः माता को चौदह स्वप्न आये। ... जब चौदह स्वप्न पूरे हुए तब श्रोता-दर्शकों को पता चला कि धूम्रावरण के शयनागार में सोई हुई नारी तीर्थ कर की अभिमन्त्रित माता हैं। - माता ने अपने पतिदेव के पास स्वप्नों का वर्णन किया। प्रतिदेवने स्वप्न-फल कहा। यह आदीश्वर भगवान का युग था। उस समय Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मागमधरसरि ज्योतिषी नहीं थे। ज्योतिषी हो तो उन्हें आमंत्रण दिया जाता है। ज्योतिषी फलादेश कहते हैं। वे फलादेश में बताते हैं कि, 'परम तारक तीर्थ कर अथवा चक्रवर्ती राजाका जन्म होगा।' ... उसके बाद च्यवन कल्याणक का जलूस निकला । जन्म कल्याणक __ अब जन्म कल्याणक मनाने का दिन आया । राजभवन लोगों की भीड से भर गया । सब लोग स्थिर बन कर जन्म विधि देखने को आतुर हो रहे थे तभी पूज्य आगमदारकश्रीने मंत्रोच्चार किया और क्रियाकारकाने सुवर्ण-कुम्भ में से भगवान को बाहर लिया। उस समय राजमहल जय ध्वनि के साथ एकाकार हो गया । उसी वक्त सबसे पहले छप्पन दिक् कुमारी देविया जन्मोत्सव का लाभ लेने आ पहुँची। ये छप्पन कुमारिया मानवलोक के नररत्नों की पुत्रिया थी। यौवन के द्वार पर खड़ी थीं। रूप में रति और कंठ में किन्नरी के समान ये कमलनयना कन्यकाएँ जब झांझर की झंकार करती हुई प्रमु का जन्मोत्सव करने आई तब पटांगन का जनसमूह सोचता ही रह गया कि ये छप्पन कुमारिकाएँ देवलोक से आई हैं या मानवलाक से ? छप्पन कुमारिकाओने कदलि के तीन घर बनाये । सूतिकर्म, शुचिकर्म भादि करके समवेत स्वर में गीत गाये । गरबा, नृत्य आदि किये । प्रेक्षक वर्ग सब कुछ एकाग्रचित हो कर देख रहा था । इतने में छप्पन दिक् कुमारियाँ गायब हो गई। मानव-इन्द्र का सिंहासन डोल उठा । अवधिज्ञान का उपयोग कर प्रभु जन्म के समाचार जाने । हरिणगमेषी को बुलाकर उससे प्रभु जन्मोत्सव में पधारने की उद्घोषणा करने को कहा। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १४३ मानव शक्रेन्द्र की आज्ञा प्राप्त कर मानव हरिणैगमेषी देव ने सुघोषा घंटा के नाद से प्रत्येक देवलोक के सभी देव को शुभ समाचार, दिवे और कहा कि-"इन्द्र महाराजा मेरु पर्वत पर प्रभु-जन्मोत्सव करने पधारते हैं, आप मी लाभ लेने पधारें । तत्पश्चात मानव लोक के नरदेव भगवान् को उस मप में बनाये गये मेरु पर्वत पर ले गये । देवताओंने स्वयं मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक किया था। यहा मानव भी देव प्रतीत होते थे, और प्रेक्षक वर्ग को ऐसा अनुभव हो रहा था मानों स्वयं मेरु पर्वत पर हो; वे भूल ही गये कि वे पालीताना की भूमि पर हैं। इसके बाद प्रियंवदा परिचारिकाने महाराजा श्रीनाभि कुलकर को बधाई दी । उन्होंने भी राज्याचित जन्म-महोत्सव किया । फिर जन्म कल्याणकका जलूस निकला । .. , विवाह-विधि और राज्याभिषेक भगवानने युवावस्था में पदार्पण किया । सुनन्दा भार सुमंगला के साथ उनकी विवाह हुआ । यहाँ तो धातु के भगवान में, चादी की सुनन्दा 'और' सुमंगला थी। ऋषभदेव भगवान् की विवाह विधि में पुरोहित-पुरोहिंतामी का कार्य इन्द्र-इन्द्राणीने किया था। यहाँ पर मानव इन्द्र-इन्द्राणीने यह कार्य किया । बरांत सजाई गई। दोनों पक्ष के लोग विवाह मडप में आये । वर की परछन-विधि हुई, गीत गाये गये । वर-कन्या को विवाहःदी के मागे बिठाया गया। अग्मिदी के समक्ष इन्द्रमै 'ॐ वरकन्यता: दीर्घायुमवतु शुम मवतुं ऋद्धि वृद्धि कल्याण भवतु स्वाहा' आदि मंत्र बोल कर विवाह करवाया। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ भागमधरसूरि तत्पश्चात् राज्याभिषेक विधि प्रारंभ हुई। उस में राजा, महामंत्री, सेनापति, नगररक्षक, और नगर सेठ-इन पाँचों की स्थापना हुई। यह दृश्य देखकर लोगों को प्राचीन राज्य की सुव्यवस्था का अनुमान होता था। इन दृश्यों को देखने के लिए अब मंढप छोटा पड़ने लगा। दीक्षा कल्याणक - भगवान ने राज्य आदि का बँटवारा उचित रीति से किया। अब नौ लोकान्तिक देव आकर भगवान् से शासन की स्थापना करने की प्रार्थना करते हैं। भगवान उस रोज से वार्षिक (बरसी) दान देते हैं। इस अयोध्या नगरी से भगवान का वर्षीदान का जलूस निकलता है। एक महापुण्यवान महानुभाव भगवान को ले कर श्याम गजराज पर बैठे हैं। वे भाग्यशाली सज्जन भगवान की ओर से सोने, चांदी, तांबे के सिक्कों का खुले हाथों दान करते हैं। भगवान स्वयं दान दे रहे है। ऐसा दृश्य दिखाई देता था। यह जलूस अयोध्या नगरी से रवाना हो कर पादलिप्तपुर के राजमार्गों पर घूम कर पुनः अयोध्या नगरी को लौट आया। इस जलूस में एक महाकाय गजराज पर आगमरत्न-मंजूषा भी थी। इस जलूस का ठाठ अवर्णनीय था। अयोध्या नगरी के उद्यान में भाकर जलूस पूर्ण हुआ। भगवान नीचे उतरे। अशोक वृक्ष के नीचे आकर अपने शरीर पर से आभूषण उतारने लगे। अन्त में पंचमुष्टि लोच का आरंभ किया। इन्द्र के अनुरोध से आखिरी एक मुष्टि बाकी रहने दी। .. भगवान की ओर से पूज्य आगमाद्धारकनीने 'करेमि सामाइयं सावज्ज जोग पच्चक्खामि' का पाठ कहा। इस समय भगवान को मनः पर्यव ज्ञान हुआ। वैराग्य का यह दृश्य देख कर सब को रोना Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमघरसरि आ गया। भगवान ने दीक्षा ली, विहार किया। सब को ऐसा प्रतीत हुआ माना अपना प्यारा पुत्र जा रहा है। अतः आँखें , भीग गई। भगवानने छद्मस्थ-अवस्था में हजार वर्ष विचरण किया था। उस . अवधि में उन्हें जो उपसर्ग हुए थे वे फलक पर दिखाये गये थे। .. केवलज्ञान कल्याणक और देशना उस रात को परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी महाराजने पट-मंडप में की सभी प्रतिमाओं को अधिवासना विधि के द्वारा अधिसित किया था। उस समय पूज्यश्री के पट्टधर आचार्य भगवंत श्री माणिक्य सागर सूरीश्वरजी महाराज तथा आचार्य भगवंत श्री विजय कुमुद सुरीश्वरजी उपस्थित थे। इन तीनों के सिवा और किसी को भीतर जाने की मनाई थी। यह गुप्त मंत्रों की मत्र-विधि थी। .. प्रातःकाल भगवान की केवलज्ञान विधि की गई। उक्त महा पटांगन में एक सुन्दर कलामय समवसरण बनाया गया था। उसमें भगवान की मूर्ति स्थापित कर, भगवान की ओर से कलिकाल कल्पतर अमृतवर्षी गीतार्थ शेखर आचार्य भगवंत श्री भागमेद्धारकजी ने देशना (उपदेश) दी। . ... देशना .. हे भव्यात्माओ ! यह संसार आधि-व्याधि-उपाधि ले सूफानों से भरा हुभा हैं। संसार में कहीं सुख नहीं है। सुख के लिए जीव कषाय करते हैं। अज्ञानी बारमा क्रोध की धाता आगमें जलते हैं। मान के विषम पर्वत पर चढ़ कर विवेक भ्रष्ट बनते हैं, माया नागिनः Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आगमधरसूति के दंश से सुधबुध खो देते हैं। लोभ के अथाह गहरे खड्डे में लुढकते हैं। इन मार्गों से सुख के बदले अधिक दुःख प्राप्त होता है। यदि सुखी होना हो तो क्रोध का उत्ताप दूर करने के लिए समता की शीतल छाह ग्रहण करो। मान के विषमगिरि से उतर कर नम्र बना। सरलता की नागदमनी ले कर माया-नागिन का ज़हर दूर करो। लाभ की अथाह खाई को संतोष से पाट दो। इस के बाद तुम्हें अवश्य ही सुख मिलेगा। कषायों को कम करने के लिए विषय की वासना कम करने लगा। विषय और कषाय सो संसार है और विषय-कषाय का नाश ही मोक्ष है । मेक्षि. अर्थात् अनन्तज्ञानमय, अनन्तदर्शनमय, अनन्तचारित्रमय ज्योतिस्वरूप, कम मलरहित, आत्म-स्वरूप। आप सेब कम मल से रहित बनने के लिए सर्वविरति का स्वीकार कीजिए। यह न हो सके तो देशविरति ग्रहण कीजिए, आखिर सम्यक्त्व प्राप्त करें यही मंगल-भावना। - 'सर्व मंगल' कर के केवलज्ञान कल्याणक का जलूस निकाला गया। . इस के बाद निर्वाण कल्याणक विधि की गई। अंजन शलाका विधि . वीर संवत् २४६७ की माघ कृष्णा (उत्तर में फाल्गुन कृष्णा) दज का शुभ दिन था। सूर्योदय को अभी एक प्रहर शेष था। चन्द्रमा चौदह कलाओं से खिला हुआ था । वातावरण शान्त था। गुलाबी ठंड पड़ रही थी। इस अयोध्यापुरी का जनसमुदाय निद्रा देवी की गोद में सोया हुआ था। बीच बीच में पहरेदारे की आवाज सुनाई देती थी। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सूरि १४७ ऐसे समय में पूज्यपाद आचार्य भगवंत आगमेाद्धारकजी जागृत थे। साथ हो उनके पट्टधर शिष्यावतंस आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरिजी तथा आचार्य देवश्री कुमुदसूरिजी भी जाग रहे थे । ये तीनों पूज्य अंजनविधि मंडप में थे । किसी देव, दानव या मानव की कुदृष्टि न पडे इस हेतु से लाल दुकूल के बड़े आच्छादन किये गये थे। मांत्रिक विधिया चल रही थीं । कोई भक्त विह्वल भाबुक इस गुप्त और एकान्त क्रिया के समय न आ टपके इस लिए स्वयं सेवक दल का सुन्दर प्रबन्ध था । उस समय सब का सम्पूर्ण मौन पालना था । पूज्य आगमाद्धारकश्री गंभीर ध्वनि में स्पष्ट मंत्रोच्चार कर रहे थे । विधि गुप्त थी, परन्तु मंत्रोच्चार की ध्वनि जागृत स्वयं सेवकों के कानों में पहुँच जाती थी । उस ध्वनि में उन महानुभाव की अपूर्व दिव्यता प्रतीत होती थी । अंजनविधि के सुमुहुर्त में दर्पण प्रतिबिंबानुसार पूज्य आगमाद्धारकजीने मूलनायक भगवतों की अंजनविधि की । तत्पश्चात तीनों आचार्यषु गवों ने अन्य जिनबिंबों की अंजनविधि की। अभी सूर्योदय का घड़ी भर की देर थी, परन्तु मानव- समूह तन-मन की शुद्धि कर के प्रतिष्ठा विधि पर मंडप में आ पहुँचा था । अंजन - विधि यह जन समूह 'ॐ पुण्याह पुण्याहम्' का घोष कर रहा था. उनके हृदय में उमंग और उल्लास समाता किये हुए प्रतिमाजी के दर्शनार्थ उनके नेत्र मन ही मन ऐसी भावात्मक स्पर्धा कर रहे करूँ, पहले मैं दर्शन करूँ ।" नहीं था । आतुर हो रहे थे । वे थे कि 'पहले मैं दर्शन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघरमरि .. देवलोक के देव मेरु पर्वत पर प्रभु-जन्मोत्सव को देखने के लिए जैसे जल्दी मचाते हैं और आगे आने का प्रयत्न करते हैं उस तरह से नरलोक के ये नरदेव भी प्रभुजी के दर्शन जल्दी करने के लिए आतुर हो रहे थे और आगे आने का प्रयत्न करते थे। ___ उचित समय पर लाल आच्छादन उठा लिये गये और जनसमुदाय को भगवान के दर्शन हुए। उसके बाद मंदिर में विधि-पूर्वक प्रभु-प्रवेश कराया गया। दोपहर को महाशान्तिस्नात्र पूजा-विधि हुई। गद्दी-प्रतिष्ठा वीर संवत् २४६७ का वर्ष था। माघ का पवित्र महीना, पंचमी की पवित्र तिथि और विबुध-गुरु वार था। जगत के जीवों को जागृत करनेवाले सहस्ररश्मि सूर्य देव सात अश्वों के रथ पर आरूढ़ हो कर पूर्वाकाश में आ पहुँचे थे। आज प्रतिष्ठा होनेवाली थी। उसे देखने के लिए सूर्य ने अपनी रजत धवल किरणे आगममंदिर पर फैलाई। ज्योतिषियों के पंचांग में कुंभ का सूर्य था, तुला का चन्द्र था, गुरु देव केन्द्र में बिराजे थे, बुध देवने सूर्य के पास आसन जमाया था। शनि, मंगल और राहु भी समझदार बन कर कुंडली में अच्छे स्थानों पर शोभित हो रहे थे। शुक्राचार्य सूर्य से एक कदम आगे उच्चासन पर बैठे हुए थे। द्विस्वभाव लग्न था, स्थिर नवमांश था, सर्वार्थसिद्धिकर योग था, मंगलमुहूर्त था, शुभ हारा थी। अन्नपूर्णा धरती का वातावरण खुशनुमा था। शुद्ध मन्द पवन बह रहा था। आकाश धूलि रहित और धवल था। दिशाएँ प्रफुल्ल एवं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १४९ शुभ्र थीं। वनराजि खिल उठी थी। लोगों के हृदय भानन्द से स्फुरित हो रहे थे। परमपूज्य सूरिपुरंदर आगमोद्धारक आचार्य भगवंत श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजा, मूलनायक प्रभु के प्रतिष्ठाकारक श्रावक रत्न उदार पुण्यवन्त संघवी श्री पोपटलाल धारसीभाई तथा संघवी श्री चुनीलाल लक्ष्मीचंदभाई आदि गर्भगृह में उपस्थित थे। अन्य देवकुलिकाओं पर अन्य पृ० मुनिवर, प्रभु-प्रतिष्ठापक, क्रियाकारक तथा शिल्पी थे। कई पुण्यवान महानुभाव तथा साध्वीजी महाराज रंगमंडप, कालीमंडप, चौक और मेघनाद मंडप में दर्शनार्थ खड़े थे। मंदिर के बाहर के मैदान में हजारों लोगों का समूह उमड़ रहा था। भीतर और बाहर सारा हर्ष विह्वल जनसमूह 'ॐ पुण्याहपुण्याहम्' का महाघोष कर रहा था। एक समयविद ने कहा-'प्रतिष्ठा को पाव घडी बाकी है। विधिकार ने कहा-आचार्य महाराज साबधान, प्रतिष्ठाकारक सावधान, क्रियाकारक सावधान, शिल्पी सावधान, नकद थैली सावधान ।' पूज्यपाद आगमोद्धारकश्रीने 'ॐ कूर्म ! निमपृष्ठे जिनबिंब धारय स्वाहा' यह मंत्र सामध्वनि में सात बार पढ़ा। तत्पश्चात् कुंभक प्राणायाम कर ' स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा' मंत्र सात बार मानस जाप पद्धति से गिना । सातवीं बार मंत्र पढ़ते समय स्वर्ण, मुक्ता, रजत मिश्रित वास चूर्ण के निक्षेप-पूर्वक प्रभु स्थापना की। थाली डंके बनने लगे, दाल नगाडे पर चोट हुई। देवकुलिकाओं Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आगमधरसूरि में भी उसी समय प्रतिष्ठा हुई। मानवसमूह द्वारा भगवान् के जयजयकार की ध्वनि में आकाश शब्दाद्वैत हो गया। • बाहर का जनसमह भी जय निनाद करता और उसकी गंभीर प्रतिध्वनि उठती थी। सबके हृदय भक्तिभाव से भर उठे, नेत्र प्रतिष्ठित भगवान के दर्शनार्थ अधीर और उत्कंठित हो उठे। भीतर के पुण्यशाली महानुभाव देवाधिदेव के दर्शन करके लौट रहे थे, वे अपने आप को धन्य मानते थे, परन्तु उनके हृदय और नेत्र प्रभु दर्शन कर के अघाते नहीं थे। इस भावना के साथ कि पुनः पुनः अपने नाथ को कब निहारूँ, वापस आ रहे थे जिस से दूसरों को भी दर्शन प्राप्त हो सके। तपोबल से प्राप्त औषधि के बल से गगन विहार करनेवाले शासन-प्रभावक आचार्य भगवंत श्री पादलिप्तसूरीश्वरजी महाराज के नाम से सम्बन्धित पालीताना नगरी आज पालीताना नहीं बल्कि इन्द्र की राजधानी अमरावती नगरी बन गई थी। दिन-ब-दिन उल्लास में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी। प्रतिष्ठाविधि के उत्सव के दिनों में आगन्तुकों के भोजन के लिए हर रोज साधर्मिक वात्सल्य होता था, परन्तु आखिरी दिन पादलिप्तपुर के सभी नगरवासी नरनारियों को मिष्टान्न भोजन दिया गया। इस भोजन को देशी भाषामें 'धुमाडा बंद (घूआ-चूल्हा बंद), गाँव झापा, फले चूंदडी' आदि नामों से पहचाना जाता है। आज से सौ वर्ष पूर्व सेठ श्री मातीशा सेठ द्वारा बनवाई गई टूक की प्रतिष्ठा के समय पादलिप्तपुर 'धुमाडाबंध' (धूआ बन्द) हुआ था। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसुरि भाश्चर्य की बात हैं कि तेरह दिनों के इस उत्सव के बीच पालीताना की स्मशान भूमि भी बन्द रही थी अर्थात् किसीकी मृत्यु नहीं हुई। दर्शन के द्वार प्रतिष्ठा-दिन के दसरे दिन मंगल प्रभात में विधि पूर्वक द्वारोद्घाटन हुआ। दोपहर को अन्तिम मंगल रूप सत्रहमेदी पूजा रखी गई। इस तरह प्रतिष्ठाविधि महोत्सव सम्पन्न हुभा और सभी धर्मप्रेमियों के लिए दर्शन के द्वार सदा के लिए खुल गए। पाषाण प्रतर पर खुदे हुए पैंतालीस भागमों से शोभित जिनशासन को गौरव-मय बनानेवाला, जिनवाणी की सुरक्षा के लिए दृढ़ता से खड़ा बादलों से बात करता हुआ, दिव्य विमान से स्पर्धा करता हुआ, शशिधवल कीर्तिवान्, मदिरों में रस्न के समान यह आगम मंदिर गिरिराज की उपत्यका में आज मी पूज्य भागमाद्धारकजी की उज्जवल यशोगाथा गा रहा है।' Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ अध्याय बहता पानी निर्मला कपडवंज की ओर माघ के कृष्ण पक्ष में प्रतिष्ठा हुई, और फाल्गुन कृष्ण पक्ष ( उत्तर में चैत्र कृष्ण पक्ष ) में तो गुरुमहाराज श्री नवपदजी की ओली करने कपडवंज आ पहुँचे । पुण्य प्रतापी पुरुष की पावन छाया में ओली की आराधना का आनन्द अपूर्व होता है, इस में शक ही क्या ? - - दुनिया मिष्टान्न खाने में आनन्द मानती है, परन्तु यहाँ तो त्याग में आनन्द माना जाता था । छे|टे छोटे सुकुमार बालक, मदभर जवान तथा केशरहित वृद्ध-सभी तप में अपूर्व आनन्द अनुभव करते थे । इन दिनों हररोज भाववाही देशना, रसमय पूजा - भावनाएँ होतीं । इस प्रसंग पर श्रीपाल महाराजा और श्री मयणा सुन्दरीजी महारानी के जीवन प्रसंगों पर आधारित कलामय रचनाएँ की गई थीं । समाज का सम्मेलन ओली की पूर्णाहुति के कुछ दिन बाद धर्म कार्यों के लिए 'देशविरति धर्म' भाराधक समाज' का सम्मेलन कपड़वज में आयोजित हुआ । पूज्य प्रवर श्री की देखरेख के कारण यह सम्मेलन सफलतापूर्वक कार्यवाही कर के पूर्ण हुआ था । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १५३ कपड़वज के पुण्यशाली धर्मात्माओं की चातुर्मास के लिए लम्बे अरसे से हार्दिक प्रार्थना थी ही, क्षेत्रस्पर्श ना भी यहाँ की थी। अतः पूज्य प्रवरश्रीने कपड़वंज में चातुर्मास किया। यह चातुर्मास धर्म मय बना। श्रावक वृन्द पूज्यश्री का हो सके उतना अधिक लाभ ले रहे थे। उनकी भक्ति भी बेजोड़ थी। अनासक्त योगी . धर्माराधन के साथ चातुर्मास बीत रहा था। नगर में आनंद छाया हुआ था; इतने में अशाता के उदय से पूज्यश्री को शारीरिक रोगों ने घेर लिया। ज्वर, खासी, पीलिया आदि रोगों के बावजूद पूज्य श्री अद्भुत समता धारण किये हुए थे। आहार में केवल थोड़ा सा प्रवाही द्रव्य ही लेते थे। ____एक दिन दोपहर को एक सेवा भावी शिष्य पूज्य श्री के पीने जितनी थोड़ी सी चाय लाया। पूज्य श्री का एक छोटे से सफेद काष्ठ पात्र में वह चाय दी, महात्मा उसे पी गये। शिष्य अन्य कार्य में व्यस्त हुआ। उतने में चाय बहारानेवाली श्राविका हाफती हुई आई और चाय बहारने भाये हुए मुनि से कहने लगी-साहबजी, गजब का घोटाला हो गया है-मुझ से बडी भयानक भूल हुई है। मुनिराज-बहन, क्या हुआ, इस तरह हॉफती क्यों हो ? श्राविका-आप चाय ले गये उसका क्या किया ? .. मुनिराज-वह तो भागमोद्धारकत्री ने उपयोग में ले ली। श्राविका की आँखों से अश्रूधारा बह निकाले। उसने कहा,"महोदय, मैंने चाय में चीनी के पदले भूल से नमक डाल दिया था। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आगमघरसरि हमें पीने..मे जहरं-सी कड़वी लगी तो मैं तुरन्त दौड़ती हुई आई है। पूज्य महाराजश्री बीमार हैं, उस पर कडवी चाय पी गये; उन्हें हानि करेगी। क्या उन्होंने आप से कुछ नहीं कहा " "अरे बहन ! कहना तो दूर रहा, उन्होंने तो मुंह तक नहीं बिगाडा। हमें तो आपके कहने से ही मालूम हुआ, वरना हम तो जानते भी नहीं कि चाय कड़वी थी। श्राविका पूज्य आगमाद्धारकजी के पास गई । वंदन कर के कहा "महोदय ! मुझ से भूल हो गई-चाय में चीनी के बदले नमक डल गया। मैंने भयंकर अपराध किया है, मैं महापापभागिनी बनी हूँ। कृपा कर मुझे क्षमा करें । गुरुदेव ! गुरुदेव मुझे प्रायश्चित दीजिए। जिससे मेरी शुद्धि हो।" यह कहते हुए श्राविका की आँखों से बड़े बड़े आंसू गिर रहे थे। • पूज्यश्रीने सस्मित वदन से कहा-“बहन ! तुम राओ नहीं। सब जीभ का स्वाद है । मीठी चाय तो राज ही मिलती है, कडवी ही कमी एकाध बार ही मिलती है। चिंता न करना। मुझे कड़वी चाय पीने का काई दुःख नहीं है। इस चाय ने मेरी कर्म निर्जरा कराई है। तुम जाओ, रोना नहीं। मुझे ज़रा भी दुःख नहीं हुआ। समता की सिद्धि रोगों की गति अविरोध चल रही थी। बीमारी का प्रकोप बढ़ा, फिर भी इस सम्यग्ज्ञानी महात्मा की ज्ञान की लगन जारी रही। वे कभी आगम के आलापक गिनते होते या प्रकरण के पाठ पढते होते। मुख से दर्द का कोई चिह आह, कराह, आह या हाय नहीं निकला। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १५५ पूज्यश्री की बहुश्रुतता एवं आगमेोद्धारक के रूप में कीर्ति सुन कर एक विद्वान् ब्राह्मण पंडितजी पूज्यश्री के दर्शनार्थ भाये। पंडितजी के मन में पूज्यश्री से कुछ प्रश्न पूछने और विशद समाधान पाने की इच्छा भी थी ही। इसी लिए खर्च कर के दूर से आये थे। परन्तु पूज्यश्री की ऐसी शारीरिक स्थिति देख कर वे उदास हो गये। दर्शन-वन्दन कर सुखशाता पूछ कर बैठ गये। पूज्यश्रीने पूछा-"पडितजी! आप कुछ प्रश्न पूछने आये हैं। जो इच्छा है। सेो खुशीसे पूछिये ।"- - पंडितजी-"महाराजश्रीजी ! मैं तो आप के दर्शने के लिए आया हूँ। और कोई आकांक्षा नहीं है ।" यह उन्होंने केवल विवेक के लिये कहा। पूज्यश्री-"आप केवल दर्शन-वन्दन के इरादे से ही आए हों ऐसा नहीं हो सकता। साथ साथ ज्ञानचर्चा का हेतु भी होगा ही, परन्तु मेरी ऐसी शारीरिक स्थिति देखकर आपका ज्ञान-चर्चा करने को मन नहीं करता। फिर भी आप पूछिये ।" __"महाराजजी ! सचमुच कतिपय प्रश्न पूछना चाहता ही हूँ परन्तु आपके ऐसे अनारोग्य में कैसे पूछू ? मैं विवेकहीन मनुष्य नही हूं। आपके पावन दर्शन से भी मुझे सचमुच आनन्द हुआ है।" पंडितजी ने हार्दिक विवेक प्रकट किया। पुज्यवरने कहा-"आप यह सब चिंता छोड कर खुले दिल से पूछिये । मैं जानता हूँ उतना बताऊँगा परन्तु मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ।" पूज्यश्री के आग्रह के कारण पंडितजीने प्रश्न पूछे। पूज्यश्री ने Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि किया। उनके समाधान से पंडितजी सरस उत्तर देनेवाला १५६ सबका बहुत सुन्दर समाधान बहुत आनन्दित हुए। काशी में भी ऐसे कोई नहीं था । पंडितजी ने आखिर में एक प्रश्न पूछा - " महाराजजी ! इस समय आपके शरीर में ज्वर और पांडुरोग है, खाँसी और कमज़ोरी है। ऐसी अवस्था में मुझ जैसे विद्वान माने जानेवाले व्यक्ति बैठ 'भी नहीं सकते, बातचीत नहीं कर सकते जब कि आप तो इस तरह बात करते हैं जैसे शरीर में कोई दर्द या बेचैनी है ही नहीं । कठिन प्रश्नों के उत्तर आसानी से देते हैं । यह कैसे संभव होता है ?" रोग हैं। इस तरह उनमें से "पंडितजी ! व्याधि शरीर में है, आत्मा में नहीं । ज्ञान आत्मा में है, शरीर में नहीं । इस के अलावा धर्म प्रन्थ कहते हैं कि शरीर के एक एक राम में पौने देा रोग हैं। उतने कुल करीब सवा छः करोड़ रोरोग इस शरीर में छिपे हुए हैं । केवल पाँच सात रोग ही प्रकट हुए हैं । अभी करोडों रोगों ने हमला नहीं किया है यह क्या कम पुण्य की बात हैं । तब पुण्य को याद किया जाय या पापको । फिर इन रोगों ने कितनी सारी कर्म निर्जरा कराई है । इन से तो आत्मा पर का मैल स्वच्छ होता है । अस्तु, पंडितजी धर्म ध्यान करना । पंडितजी जाते हुए अपने साथ सदा के लिए सतेागुणकी स्मृति लेते गये । अशाता का उदय बन्द हुआ । पूज्यश्री की तीयत सुधरी । इधर चातुर्मास भी पूर्ण हुआ और विहार की बातें फैलने लगीं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ आगमधर सूि बंबई की ओर वर्षाऋतु समाप्त हुई । आश्विन मास के सूर्य की तेज किरणों के प्रखर ताप से कीचड़ सूख गया था । दुर्गम मार्ग सुगम हो गये थे । नदियों का जल निर्मल हो चुका था । कार्तिकी पूर्णिमा के दिन चातुर्मास - परिवर्तन की प्रथा ने मुनियों को विहार-क्रम की स्मृति पुन: ताज़ी करा दी । पूज्यश्री ने शुभ दिन को विहार किया । नरनारियों का समूह विदा देने उमडा | नगर की सीमा के अन्त में एक विशाल वट वृक्ष के तले खडे रह कर पूज्य श्री आगमेाद्धारकजी ने अन्तिम देशना दी । देशना भाग्यशालियो ! बहता जल निर्मल होता है । मेहमान थोड़े दिन रह कर विदा हो जायँ तो आदर पाते हैं। वर्षा येोग्य परिमाण में बरस कर चली जाए तो स्वागत और सम्मान पाती है । उसो तरह साधु भी तीर्थ पति की आज्ञा के अनुसार विचरते रहें तो चारित्र्य में निमल और आपके जैसे गाँवों के लिए स्वागत एवं बने रहते हैं । सम्मान के पात्र साधु लोग एक स्थान पर अधिक रहें तो स्थल, काल, देश या व्यक्ति का माह बाधा बन सकता है । आपको रोग या द्वेष उत्पन्न हो, उसमें से तिरस्कार का जन्म हो । आप लोगों को भी हमारे प्रति व्यक्ति - राग या द्वेष न हो अतः विचरते रहना चाहिए । आज आप सबकी आँखों से आँसू बह रहे हैं । परन्तु आनेवाले को अवश्य ही जाना है, उसी तरह हमें अवश्य विहार करना होता है । आपने चौमासे में जो जो धर्मोपदेश सुने उन्हें हृदय की गहराई में उतारना, अपनी शक्ति को छिपाये बिना उनको कार्य में परिणत Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आगमधरसरि . करना। आप इस भव में तथा परभव में मोक्ष के सहायक साधन पा कर मुक्ति प्राप्त करें यही शुभ कामना । विदा इतना कह कर 'सर्व मंगल' किया गया, फिर भी गुरु-विरह के कारण सबकी आखों से अश्रु-धारा बह रही थी। सुबक सुबक कर रोने की आवाज भी सुनाई देती थी। आकाश में से अदृश्य-अश्राव्य चेतावनी आ रही थी कि इन पवित्र महात्मा- के पावन चरणों का पुनीत स्पर्श पुनः प्राप्त नहीं होगा। परन्तु रुदन की आवाज़ में किसी का उस पर ध्यान नहीं गया। पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं। श्रावकगण जब तक अपने गुरुदेव के दर्शन हो सके तब तक वहीं खड़े रहे। जब गुरुदेव आँखों से ओझल हो गए तब वे मुख पर उदासी और नयनों में निराशा लिए अपने घर लौटे। बम्बई के प्रिय मेहमान विविध गावों और नगरे में विचरते हुए पूज्यपाद आगमाद्धारकजी वर्षावास के प्रारंभ में बंबई आ पहुँचे । बंबई के धर्मात्माओं ने भव्य प्रवेशोत्सव किया पूज्यश्री अपूर्व स्वागत के साथ उपाश्रय में आये । बंबई की धरती पर धर्म राजा का और आकाश में मेघराजा का साम्राज्य एक साथ शुरू हुआ। मेघराजा धरती को पानी से भिगो कर कोमल बना रहे थे, और धर्म राजा भव्य जीवों की हृदय-भूमि को जिमबाणी से प्रक्षालन कर निर्मल बना रहे थे। मे।हराजा के गुप्तचर बंबई आ बसे थे। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमेघरपरि माहराजा के लिए मेघराजा प्रतिकूल न थे, परन्तु ये भागमाद्वारक, नामके धर्मराज उसे थका देनेवाले लगते थे। अतः माहराजा भी यहाँ गुप्त रूप में आ बसा था। प्रवचनों की बौछार नीलपक्षी के समान नीलश्याम मेघराजा ने मुसलधार वर्षा की बौछार शुरू की, हंसपत्र सम धवल इस धर्मराजाने जिनवाणी की वी शुरू की। भ्रमरवत् श्याम मेघराजा सात आठ दिन बरस कर थक जाते, और कुछ दिन आराम करने चले जाते। परन्तु ये अक्षर उज्ज्वल प्रभावशाली धर्मराजा अविरामतः जिनवाणी की वर्षा करते जाते थे। . धर्मराजा की बषी से भव्यों के पाप का पंक धुल जाता था, सम्यकत्व का बीजारोपण होता, देशविरति के अंकुर फूट निकलते और सर्वविरति की सुगंध महक उठती थी। - पर्वाधिराज पयूषण का पदार्पण हुआ। मोहमयी मानी जानेवाली बंबई नगरी भागमाद्वारक श्री क प्रताप से धर्ममयी नगरी बन गई। पर्वाधिराजका स्वागतपूर्वक आगमन हुआ और सम्मानपूर्वक बिदा भी। ६४. ... महराजा का षड्यन्त्र मोहराजा ने देखा कि यह भागमाद्वारक नामक धर्मराजा बड़ा । शक्तिशाली है, और उसका सीधा मुकाबला करना कठिन है। धम राजा ने. इस समय आगमाद्धारक के शरीर में आ कर. वास किया है, अतः फिलहाल यही धर्मराजा-माना नाता है। यहाँ साम और Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि दाम नीति असफल होगी, दंडनीति का दमनचक्र यहाँ कामयाब नहीं होगा, अतः भेदनीति अपनाना ही सुकर होगा। मन-ही-मन ऐसा निर्णय कर के मेहराजा अपने योग्य पात्र खोजने निकला । 'जैन श्वेतांबर कोन्फरन्स' नामक संस्था पर उसकी निगाह पड़ी। मोहराजा को लगा कि यह नाम से धर्मराजा के पक्ष की संस्था मानी जाती है परन्तु काम तो बरसों से मेरा ही करती भाई है। ___इस संस्था का बालदीक्षा और देव-द्रव्य के साथ घोर वैर था। साधुओंकी निदा तिरस्कार यही उसका मुख्य गुप्त कार्य था। 'जैन' नाम का लेबल तो लगाया था फिर भी जैन शासन की प्रणालियों का भंग करने में यह संस्था गौरव मानती थी। इस तोड़ फोड़ करनेवाली संस्थाने धर्मराजा श्री भागमाद्धारकजी के विरुद्ध जिहाद छेड़ दी, क्योंकि धर्मराजा श्री. आगमाद्धारकजी शास्त्रीय परंपराओं से दृढ़ता पूर्वक लगाव रखते थे। कॉन्फरन्स के काळे प्रस्ताव मोहराजा ने इस संस्था के सदस्यों के हृदय में अपने गुप्त अनुचरों को प्रविष्ट किया था। कुछ स्थानों पर गुप्तचरे का काम वन गया। इस संस्था के सदस्य भोले लोगों की भीड़ के सामने बाल दीक्षा और देव द्रव्य का विरोध करते, इस तरह मालों को ठगते और भुम में डाल देते थे, परन्तु चतुर लोग चेत जाते थे। ... इस संस्थाने माह राजा की आज्ञा माननेवाली भीड़ को एकत्र किया। यह भीड़ एक मंडप में इकट्ठी हुई। इस भीड़ में कुछ बुद्धिमान लोग भी थे। वे चाहते थे कि ये माले लोग अधर्म की राह Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि पर न चले जायँ, शासन को बदनाम करने अथवा शास्त्रोक्त वचने की अवगणना करने का पाप न कर बैठे । दयालु शासन रक्षकों के बहुत समझाने पर भी मोहराजा की मतिभ्रंशकारिणी मदिरा का आकंठ पान कर के होश खोये हुए इस भीड़ के लोगों ने बाल दीक्षा और देव द्रव्य का विरोध करने वाले निरर्थक प्रस्ताव पास कर लिए । हितचिंतक हृदय ये आत्मा भी महराजा का जोर घटने पर सचाई को समझेगे, सुबुद्धि पाएंगे। उन्हें सच्चा होश आएगा और वे अपना आत्मोद्धार करेंगे। ये आत्मा जितना जल्दी समझे उतना जल्दी उनका कल्याण होगा। उनका भला हो। - विहार मुनियों के विहार का समय माया। श्री आगमाद्धारकजी ने मोहराजा का बडा सख़्त मुकाबला किया था। बहुत से भव्य आत्माओं का मोह-मदिरा पीने से रोका था, इस तरह संसार सागर के खारे पानीमें डूबने से बचाया था। जो लोग न बच सके उनकी भाव-दया का चिंतन करते थे। श्री भागमाद्धारकजी के विहार की बातें सुनकर बहुत से धर्मात्माओं को दुःख होने लगा। सागर मर्यादा नहीं छोड़ता तो पू० सागरजी महाराज विहार-मर्यादा कैसे छोड़ सकते हैं? बंबई के धर्मप्रेमी आत्माओं को पूज्य आगमोद्धारक जी के विहार का दुःख हुआ और विहार भी हुआ। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवा अध्याय सागरजी और सूरत प्रवेश-यात्रा . पू. आगमेद्धारकरी और पू० सागरजी महाराज के नाम से ख्यातिप्राप्त महात्मा आज सूरत में पदार्पण करनेवाले हैं। बाहर से आनेवाले को अनायास ही ऐसा प्रतीत होता कि सूरत में दर्शनीयता पूज्य सागरजी महाराज के चरण कमलों के शुभागमन से आती है जैसे कि दूध में मधुरता ईक्षुजनित शर्करा से आती है, अर्थात् पू० सागरजी और सूरत का सम्बन्ध दूध-शक्कर का सा था। पूज्य सागरजी महाराज केवल सूरत के या सूरतियो के नहीं थे, वे सब के थे परन्तु सूरतवासी तो सागरजी के ही थे। ये महात्मा आज पधार रहे हैं परन्तु उनके अपूर्व स्वागत की तैयारियाँ कितने ही दिनों से हो रही थी। पूज्य श्री की स्थूल देह का सत्तरवें वर्ष में प्रवेश हो चुका था। अब ये महात्मा ज्ञानस्थविर, पर्यायस्थविर तथा वयस्थविर हुए थे, सब तरह से पूर्ण स्थविर थे, शासन के सरताज़ थे। सूरतवासी ऐसा महान स्वागत करना चाहते थे जो पूज्यश्री की पूज्यता के अनुरूप हो और शासन की शोभा बढ़ानेवाला हो। इस के लिए आत्मीयतापूर्ण तैयारियाँ हे। चुकी थी। सब के हृदय हर्ष से उछल रहे थे। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १६३ स्वागत यात्रामें सूरत के सत्तर बड़े बेंड थे। सब 'स' अक्षर की कुभराशि का संमिलन हुआ था। सागरजी, सूरत, सुस्वागत, सत्तरको आयु, सत्तर सत्तर सामग्रियों का सुन्दर समूह और शासन के सरताज की सुहावनी शोभायात्रा। गहुँली या रत्नावली ? कदम कदम पर गहुली होती थी। हर डग पर पुण्यवतिया स्वागत करती थीं। कोई भाग्यवती शुद्ध अखंड अक्षत वारती थी तो काई पुण्यवती सोने चादी के फूल वारती थी। कोई कोई सौभाग्यवती सच्चे मोतियों के समूह वारती थी। यह सौभाग्यवतो कहती थी कि अन्य धर्म गुरुओं को सोने से तोला जाता है, देशनेताओं को रुपयों की थैली अर्पित होती है, तो हमारे गुरु पर सच्चे मोती क्यों नहीं वारे जाय । अरे ! एक पुण्यवती ने मणि, माणिक्य, पन्ना, नीलमणि, गोमेदक प्रवाल, हीरे, मुक्ता आदि रत्नों से भरी अंजली से उन्हें बधाया। उस समय उस के मुख पर अपने धर्म पिता या धर्मदाता का स्वागत करने के आनन्द की तरंगें उठ रही थीं। दूसरे प्रहर के प्रारंभ में हरिपुरा से इस स्वागतयात्रा का प्रारंभ हुआ था, और तीसरे प्रहर की पूर्णाहुति के बाद गोपीपुरा में परिसमाप्ति हुई। यह स्वागत-यात्रा पूरे दो प्रहरी से अधिक समय शहर में घूमी थी। उपाश्रय में आने पर धर्म देशना (धर्मोपदेश) के श्रवण के वाद इस शोभायात्रा का विसर्जन हुआ था। पूज्यपाद आगमाद्धारक श्रीजी का चातुर्मास भी यहाँ हुआ। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमघररि श्री सूरत के सकल जैनसव से विनती यह सूचित करते हुए हर्ष होता है किं जिस तरह त्रैलेाक्यअसाधारण, अनन्त सिद्धजीवों से पुनीत श्री सिद्धक्षेत्र में भगवान् श्री जिनेश्वर परमात्मा -निरूपित तथा सकल लब्धि निधान श्री गणधर देवों द्वारा प्रथित आगमों का अस्तित्व बनाये रखने और उन्हें चिरस्थायित्व देने और परावर्तनादि से बचाने के लिए पैंतालीस आगमों का शिला में उत्कीर्ण कर स्थापित किया गया है, उसी तरह उपर्युक्त शुभ हेतुओं से ताम्रपत्र में भी आरूढ किये हुए पैंतालीस आगमों को स्थापित करने के लिए यहाँ एक 'श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्रागम मंदिर' स्थापित करने का सदुपदेश स्मरणीय - आगमदिवाकर परम पूज्य आगमोद्धारक श्री आनन्दसागर सूरीश्वरजीने दिया था, और उसका आदि से अन्त तक कार्य करने एवं व्यवस्था सम्हालने के लिए एक संस्था स्थापित करने की आवश्यकता प्रकट की थी, उसका सहर्ष स्वीकार कर के हमने वैशाख सुदी ११ को शनिवार ता. ११-५ - १९४६ के रेराज देोपहर के विजय मुहुर्त में परम पूज्य आगमेोद्धारक आचार्य महाराजश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजश्री की अध्यक्षता में 'आगमेाद्धारक संस्था ' नामक संस्था स्थापित करने का शुभ निर्णय किया है । अतः श्री संघ इस पुण्य प्रसंग प्रर सेठ नेमुभाई की वाड़ी (गे। पीपुरा, सूरत) में पधार कर हमें उपकृत करें । परमेापकारी प्रातः आचार्य महाराज १६४ संघ के नम्र सेवक झवेरी शांतिचंद छगनभाई झवेरी ठाकारभाई दयाचंद मलजी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमधरसुरि ताम्रपत्र-आगममंदिर ___ सूर्यपुर ने अपनी धरती पर तानपत्र-आगममंदिर निर्माण करने का सौभाग्य पाया था-इस अदृश्य भाग्यलेख को कौन पढे। यह बात न तो ज्योतिषियों के ज्योतिष में थी, न हस्तरेखाशास्त्रियों के हस्तरेखाशास्त्र में। हा, यह बात केवलज्ञानियों के ज्ञान में तथा विशिष्ट अवधिज्ञानियों के ध्यान में थी परन्तु वे पुण्य-पुरुष आकर इस भूमि के निवासियों से कहा कहते हैं? जब सूरत की शोभा में चार चाँद लगानेवाले ताम्रपत्र आगममंदिर के नवनिर्माण का निर्णय हुआ तभी मालूम हुआ कि वह सौभाग्य सूरत के ललाट में लिखा हुआ था। पूज्य प्रवर प्रौढ़ प्रतापी भागमाद्धारकश्री ऐसे प्रवर व्यक्ति थे जिन के अणु अणु में आगम व्याप्त थे। आगम का उच्चारण ही उनका जीवन था। वे मानों आगम-सरोवर के मनोरम मोतियों का चुग चुगने वाले महापवित्र हंस थे। - कई वर्ष पहले आगमों की अमरता के विषय में विचार करते हुए इस महापुरुष ने मन ही मन यह निर्णय किया था कि अवसर भाने पर ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण, सुन्दर मरोड़दार अक्षरों में लिखा हुआ ताम्रपत्र-आगमम दिर बने तो उत्तम । वचन-सिद्धि इस समय पू० आगमाद्वारकश्री सात दशक पार कर आठवें दशक में प्रवेश कर चुके थे। सूरत में उनका चातुर्मास था। सूरत तो पू० सागरजी महाराज के नाम पर कुरबान था। पूज्यश्री ने पर्व Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भागमधरसरि दिवस की भरी पूरी व्याख्यान सभा में ताम्रपत्र-आगममंदिर के नवनिर्माण की बात की। तन से सूरतवाले मन से खूब सुरत श्रोताओं की उक्त सभाने इस बात का हृदयपूर्वक स्वागत किया। स्वाति नक्षत्र के जलबिन्दुओं से सीप के उदर में शुद्ध माती बनते हैं और आगमाद्धारकश्री की वाणी से सूरत के उदर के मध्यम भाग में ताम्रपत्र-आगममंदिर बनता है। राजनैतिक दृष्टि से यह बड़े संकट का काल था। विश्व में युद्ध की ज्वालाएँ धधक रही थीं, जिन्होंने अनेक को अपने भीतर समा लिया था। इस युद्ध को दूसरा विश्वयुद्ध कहते थे। जीवन की आवश्यक वस्तुएँ बहुत महँगी और अलभ्य हो रही थी। फिर भी पुण्य-पुरुष पूज्य आगमोद्धारकश्री के पुण्य प्रताप से इन बाह्य विघ्नों से कोई अवरोध नहीं हुआ। प्रारंभ और पूर्णाहुति एक शुभ प्रभात के मंगलमय वातावरण में भूमिखनन कार्य हुआ। उसके बाद भूमिशोधन और शिलास्थापना विधि हुई। शिल्पकार, कारीगर, शताधिक मजदूर इस ताम्रपत्र-आगममदिर के नवनिर्माण कार्य में तन-मन से जुट गये। दो सौ सत्तर दिनों में पैंतालीस आगमयुक्त, पैंतालीस गवाक्षमंडित, पैंतालीस सोपानों से सुशोभित, पैंतालीस अंगुल प्रमाण मूलनायक देवाधिदेवश्री महावीर भगवत से अधिष्ठित, अन्य अनेक श्वेतश्याम प्रतिमा-समूह से राजित देव-विमानापम मंदिर निर्मित हुआ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १६७ देख कर किसी को भी आश्चर्य हुए बिना न रहता। 'अभी कलकी बात है कि हम मंदिर बनवाने की बातें सुनते थे और आज तो तीन मंजिलवाला ऊँचा देवभुवन-सा साक्षात् मदिर देख रहे हैं-यह चमत्कार नहीं तो और क्या है ? बाजीपुरा में प्रतिष्ठा बाजीपुरा एक छोटासा परन्तु सुन्दर गाव है जो सूरत से पैंतीस मील पूर्व में स्थित है। श्री संघने वहाँ एक छोटासा मदिर बनाया। श्री संघ की शुभ भावना थी कि उसकी प्रतिष्ठा पूज्य आगमोद्धारकश्री के वरद हस्तों से कराई जाय। - पूज्य आगमाद्धारकश्री वृद्धावस्था के कारण दिन दिन क्षीणज घाबली हो रहे थे। अशाता वेदनीय कर्म ने शरीर में अपना काम जारी रखा था, अतः प्रतिष्ठा के प्रसंग पर जाना संभव होगा या नहीं यह प्रश्न था। बाजीपुरा के संघ ने तथा आसपास के अन्य संघांने मिल कर अनुरोध किया। श्री संघ के पुण्योदय के कारण प्रतिष्ठा के मौके पर आने के लिए पूज्य गमाद्धारकरी के द्वारा स्वीकृति सूचक 'क्षेत्र स्पशना' शब्द प्रयुक्त किया गया। सूरत से बिहार कर बारडोली पधारे। शरीर को चलना मंजूर नहीं था तो भी मनोबल-संपन्न महात्मा ने एक एक कोस का विहार शुरू किया। - बाजीपुरा संघ को इस कारण कत्यन्त हर्ष हो रहा था कि उनके गाँव के जिनमदिर की प्रतिष्ठा अनेक जिनम दिसे की प्रतिष्ठा करानेवाले बहुश्रुत, भागमाबारक पवित्र पुण्य पुरुष के हाथों होगी। विघ्नों की Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आगमधरसूरि जो आशंकाएँ थीं वे पुण्य-पुरुष के चरण पड़ने से हट गई। इस छोटे से गाव ने प्रतिष्ठा का निराला ही रंग रखा । यह बहुश्रुत पूज्य आगमोद्वारकजी का प्रभाव था। वहाँ से विहार कर बुहारी आदि गाव होते हुए चातुर्मास के लिए सूरत पधारे। ___ अप्रतिम प्रतिष्ठा सूरत का आगममदिर दिव्य विमान के समान सुशोभित था। तीर्थकर भगवानों की प्रतिष्ठा का समय आ पहुँचा। परम पूज्य पतितपावन शरणागतवत्सल आचार्य पुरंदर श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी महाराजश्री की गरिमामयी धर्म छाया में ताम्रपत्र-आगममदिर का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ । . इस महोत्सवने पालीताणा के शिलोत्कीर्ण आगममदिर के महोत्सव की याद को ताज़ा कर दिया । सूरत के श्रेष्ठिवरों ने विपुल धनका सदव्यय कर अपूर्व उत्साह दिखाया था। पूज्य आगमोद्धारकरी से कुछ समय पूर्व वखारिया परिवार में धर्म की भावना उत्पन्न करनेवाले श्राद्धवर्य ठाकोरभाई दयाचंद मलजी की प्रेरणा से जिनधर्म प्राप्त किये हुए मित्र, क्षत्रियकुलभूषण श्री जेकिशनदास लल्लूभाई वखारिया, तथा जयतिलाल गणपतराम, और जेकिशनदास रणछोडदास के सुपुत्र कांतिभाई, अमृतभाई, फूलचंदभाई आदि-वखारिया परिवार ने उक्त ताम्रपत्र आगमम दिर में आत्मा के कल्याणार्थ धन का सुन्दर सद् व्यय किया था। सरत के इतिहास में वीर संवत् २४७४ का वर्ष और माघ सुदी Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसरि १६९ ३ का दिन सुवर्णाक्षरे से अंकित हो गये है। इस दिन की बरसगाठ मनाई जाती है, और प्रतिवर्ष इस रोज पूज्यश्री के प्रवर अनुरागी कस्तूरचंद झवेरच द चोकसी के सुपुत्र मातीचदभाई तथा पुत्रवधू जसवंती बहन की ओर से बृहत् शान्तिस्नात्र की जाती है। . , . . सांप्रत-काल में सूरत के सुमध्य भाग में गुर्जरदेश की शान बढाता हुआ जिनशासन की जयपताका फहराता हुआ, पूज्य आगमो. द्वारकश्री की अद्वितीय ज्ञानशक्ति के सुदृढ नयनरम्य स्मारक के समान अलौकिक ताम्रपत्र-आगमंदिर गौरवगाथा का निर्मल दिव्य संगीत प्रवाहित कर रहा है। स्थिरता शास्रों में उल्लेख है कि 'साधु भगवत क्षीण घायल होने पर, अर्थात् विहार करने की शक्ति नष्ट होने पर स्थिर वास कर सकते हैं। परन्तु स्थिर वास में स्थानीय संघ की श्रद्धा भक्ति और भावना का विचार करना चाहिए । उद्वेग और अभाष (अनादर) मालूम हो तो उस स्थान पर नहीं रहना चाहिए। बहुश्रुत पूज्य आगमाद्धारकश्री के प्रति सूरतवासियों की श्रद्धा, भक्ति और भावना के विषय में क्या पूछना ? सूरत शहर के कतिपय पुण्यवान् श्रावक अपना तन-मन-धन उनके चरणों में समर्पित करने में अपना सौभाग्य मानते थे। इतना ही नहीं, कुछ ही समय पूर्व पूज्यश्री के प्रताप से जिनधर्म प्राप्त करनेवाले क्षत्रिय-कुल-भूषण जेकिंशनदास वखारिया आदि भी ऐसी पुण्यमयी भावनावाले व्यक्ति थे जो अपने धर्मदाता गुरुदेव के चरणों में सर्वस्व न्योछावर कर दे। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आगमघरसरि ...' ताम्रपत्र आगममंदिर की ऐतिहासिक प्रतिष्ठा के बाद सूरत संघ के अत्यन्त आग्रह के कारण, जंघाबल-शरीरबल भी दिने दिन क्षीण होने के कारण एवं क्षेत्र स्पर्श ना सूरत की बलवती होने के कारण पूज्यश्री ने सूरत में स्थिरवास किया। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अध्याय महाप्रयाण काल की गति अपने कालकी गति बिना रुके आगे बढती है । देखने नहीं रुकती । हाँ, सूर्य और चंद्र भगवान् महावीर का उपदेश सुनने आये थे तब अंधेरा दूर रहा परन्तु काल की गति बेरोक आगे वह किसी की राह विमान में बैठ कर कुछ समय के लिए बढ़ती रही है । काल का प्रभाव पूज्य आगमोद्धारक श्री के शरीर पर भी अब प्रकट होने लगा । ( शरीर कमजोर पड़ता जाता था, उसकी रोगों का प्रतिकार करने की शक्ति खा चुकी थी अतः सामान्य रोग भी भारी है। जाता था, और एक दर्द अपने साथ दूसरा दर्द ले आता था ।) पुज्यश्री ज्ञान के सागर थे, आगम के उद्धारक थे, बहुश्रुत के रूप में सुप्रसिद्ध थे । गुण के भंडार थे, साधु-भगवतों में आदर्श थे, विशाल मुनिसमूह के गणनायक थे। उन्हें अनुमान हो चुका था कि यह काया अब अधिक काम नहीं देगी, अकः इस से जितना लाभ लिया जाय उतना ले लेना चाहिए । कार्य अधूरे नहीं रहे जगत के सभी जीव महाप्रयाण करते हैं, परन्तु उनके कई अधूरे Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आगमधरसरि काम पीछे छूट जाते हैं। उनकी आशा की मीनारें अधूरी ही रह जाती हैं । अन्तिम समय में अधूरे अरमानों का दुःख उनके हृदय को व्यथित कर देता है। इस में जिजीविषा बहुत ही सताती है। पू. महात्मा आममाद्धारकश्री का कोई कार्य अधूरा नहीं रहा। जो भी कार्य हाथ में लेते-चाहे वह आगममदिर जैसा महान कार्य हो चाहे पाठशाला जैसी छोटी सस्था का छोटा सा कार्य हो-उसे पूरा ही करते। अपने इस विशिष्ट स्वभावगत गुण के कारण उनका कोई कार्य अधूरा नहीं रहा। आशा की मीनारें चुनवाने या बड़े बड़े अरमान पालने का तो पूज्यश्री के लिए कोई प्रश्न ही नहीं था । आशा तो बेचारी उनकी दासी बन गई थी। इस महात्मा की दृष्टि में जीवन और मरण एक से थे। शरीर की परछाई किसी को दुःख नहीं देती; इस महात्मा को मरण भी जीवन की परछाई जैसा लगता था, अत: उन्हें दुःख क्यों होता ? महा व्याधि वायु की व्याधि बहुत व्यथा उत्पन्न करती थी परन्तु महात्मा उसका सख्त सामना करते थे। जो महात्मा जीवन भर शासन की सुरक्षा के लिए अनेक लोगों से टक्कर लेते रहे वे भला ऐसी भौतिक कर्म-जन्य व्याधि का सामना करने में हिचकिचाते ? अन्य कार्यों से उन्होंने निवृति ग्रहण कर ली, परन्तु ज्ञान और ध्यान से निवृत्त नहीं हुए, ज्ञान और ध्यान में तो और भी जागृत एवं तत्पर बने । पुराने प्रन्थों का स्वाध्याय और नये प्रन्थों की रचना भब भी जारी थी। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ आगमधर ि आराधना और भावना रेगिशय्या पर भी सुन्दर आराधना करते थे। इस महा पुरुष श्रेष्ठ ने ऐसी विकट व्याधि को हालत में भी 'आराधना मार्ग' ग्रन्थकी रचना की है । वे जीवन की चरम दशा में भी आराधना के उत्तम लक्ष से विचलित नहीं हुए । पूज्यश्री के मुख से कई बार 'धन्यास्ते सनत्कुमाराद्या: ' ये शब्द स्पष्ट उच्चरित है।ते सुनाई देते थे । 'धन्य है महामुनि सनत्कुमारादि के ' जिनके पास महारोगों को मिटाने की अचिंत्य शक्ति होते हुए भी अपने शरीर में स्थित सोलह सोलह महारोगों को नहीं मिटाया । पूज्य आगमाद्धारकजी इस प्रकार के निर्वेदपूर्ण भाव रखते हुए भयंकर वेदना सहन करते थे । वे 'ना जगतस्त्वम्' और 'ना ते जगत्' – 'तू जगत का नहीं है और जगत तेरा नहीं" ऐसे महान् वचनों का स्मरण कर अपने मन को वैराग्य पूर्ण रखते थे । उन में ऐसी अपूर्व जागृति थी कि जाते जाते (अन्तिम समय में ) किसी शिष्य आदि के प्रति या किसी संस्था के प्रति माह पैदा न हो जाय, तो भी उन्हें एक बात का दुःख सताता था । 'इस संयम कीं यदि मुझे देवलेाक मिला तो मेरे इस चारित्र धर्म का क्या होगा । क्या मै चारित्र धर्म खा बैठूंगा ? वर्षों के परिश्रम से सुरक्षित रखी हुई यह विरति की आराधना क्या जाती रहेगी ? हे भगवन् ! जहाँ मुक्ति मिल सके उस जगह जा सकूँ तो बहुत अच्छा हो । मुझे देवलोक की इच्छा नहीं है । कभी कभी इस तरह के उद्गार भी निकलते थे । चारित्र की कैसी लगन लगी होगी 2- कैसी प्रबल इच्छा होगी चारित्र की । आराधना के प्रताप से Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि मौन में मुनिराज वीर संवत् २४७६ का आरंभ हुआ । शरीर दिनबदिन क्षोण होने लगा । कर्म भी क्षीण होते गये । आत्मा उज्ज्वल होता गया । मनोबल दृढ होता गया । रोग की शक्ति उभरने लगी और गुरुदेव की समता पराकाष्ठा पर पहुँची । १७४ वैशाख सुदी ६ का दिन आया । पूज्य आगमेाद्धारकश्री का शरीर व्यथा से व्यथित होता गया और अन्तरात्मा जागृति में आ गया । किसीने पूछा- महोदय ! कैसी तबीयत है ? पूज्यश्रीने उत्तर दिया - पंचमी की छठ नहीं होगी । शिष्य इसका तत्त्व नहीं समझ सके, मात्र अर्थ ही समझे कि मनुष्य का जिस रेराज दुनिया से जाना होता है उसी रेराज जाता है । इस में परिवर्तन नहीं होता । आयुष्य की तिथि में कमी - बेशी नहीं की जा सकती । पूज्यश्रीने तो इस के बाद मौन व्रत ग्रहण कर लिया । सेवारत्न शिष्य सुश्रूषा में हर वक्त तत्पर थे । उन में भावी पट्ट धर आचार्य देवश्री माणिक्यसागरसूरिजी भी हाजिर थे। बाह्य शारीरिक सुश्रूषा में मुख्यतः पूज्य मुनिवर श्री गुणसागरजी महाराज तथा पू० मुनिवरश्री अरुणोदय सागरजी थे। सेवा में इन की भावना और जागृति अधिक थी, पू० आगमोद्धारकजी का आत्मिक सुश्रूषा की जरूरत ही कहाँ थी । वे स्वयं ही अपने भाव वैद्य थे । । अर्ध पद्मासनावस्थामें अनशन पू. आगमोद्धारकश्री ने वैशाख सुदी ५ से अर्धपद्मासनावस्था में बैठना शुरू किया । प्रतिलेखना, प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाओं में Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमधरसरि अपवाद था। उतने समय के लिए अर्धपद्मासन नहीं रहता था। परन्तु रात्रिको संथारा-शयन का त्याग कर दिया था सारी रात मर्कपद्मासन-स्थिति में ही आत्मचिंतन करते थे। - आहार, औषधि, उपधिका अन्तःकरण से त्याग किया। मुख के पास ओषधि ले जाई जाती परन्तु वे ग्रहण नहीं करते थे, संकेत से इनकार कर देते। जीम बराबर थी, वाचाशक्ति स्पष्ट थी। चैतन्य स्मृति युक्त था, तथापि पूज्यश्री ने संपूर्ण मौन अंगीकार किया था। मौन और ध्यान ये दो ही विषय पूज्यश्री के जीवन में रहे थे। पूज्यश्री की यह अवस्था देख कर देखनेवाले का बड़ी विहलता होती, परन्तु उन्हें स्वयं कुछ नहीं लगता था। उनके मुख पर तो ऐसे अवसर पर केवल साधना का स्मित ही लहराता था। वैशाखी पूर्णिमा गई। कृष्णापक्षकी प्रतिपदा, दूज, तीज और चौथ गई, पंचमी आ पहुँची। आत्माराम में रमते हुए इस महात्मा की मनोदशा शुक्ल-शुक्लवर होती गई, ध्यानाग्नि में कर्म भस्मसात् होने लगे। उस एक शिष्यको याद आया-महाराजजी ने कहा था कि 'पंचमी की छठ नहीं होगी' तो क्या भाज ही महाराजश्री दुनिया से चले जाएँगे? उस शिष्यने अन्य मुनियों से भी बात की। सब चौंके 'क्या आज ही पूज्य श्री विदा ले लेंगे?' दीपक बुझ जाता है । नवकारसी का समय गया, पारिसी, साध-पोरिसी का समय भी बीत गया। पुरिमड्ढ का समय भी जाता रहा। पच्चक्वाण में कोई Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आगमधरसूरि भी समय हो जाय परन्तु इस ध्यानी महात्माने चतुर्विध आहार का सर्वथा त्याग किया था, अतः उन्हें पञ्चक्खाण के समय की आवश्यकता नहीं थी। दिन का तीसरा प्रहर भी धीरे धीरे बीत गया अपराह्न के साढे तीन का वक्त हुआ। पूज्यश्री अर्धपद्मासन लगाये और नेत्र निमीलित किए बैठे हुए थे। उनका वृद्ध अँगूठा नवकार की संख्या गिनता हुआ अंगुलियों के पोरों पर चल रहा था। उतने में शरीर विदारक प्रकुपित वात का आक्रमण हृदय पर हुभा। . - बड़े बड़े डाक्टर तथा वैद्य उपस्थित थे। परन्तु पूज्यश्री पौद्गलिक बाह्य या आन्तरिक उपचार नहीं लेते थे। सब को ऐसा लगने लगा कि अब पूज्यश्री गये, परन्तु अमृत चौघडिये का अभी दो घड़ी की देर थी। देखनेवाले मुनिगण, उपासक वृन्द, शरीर-निष्णात सब पूज्यश्री को भक्तिभाव पूर्वक एक टक. निहार रहे थे, जब कि पूज्यश्री तो शरीर पर हुए प्रकुपित रोग के आक्रमण के समय भी बहुत ही स्वस्थचित्त थे। अमृत चौघडिया आ पहुंचा। पू. आगमाद्धारकश्री के अष्टोत्तर शताधिक शिष्या में से छत्तीस शिष्य उपस्थित थे। उन्होंने पूज्यश्री को चारों ओर परिक्रमा क्रम से घेर लिया। श्रावकसंघ के नेता उपस्थित थे। साध्वी संघ एवं श्राविका संघ उपस्थित था। पूज्यश्री ने नेत्र खोले। दोनों हाथ जोड़ कर मौनतः सबकी क्षमापना कर उपस्थित पुण्यवानों पर हास्यमय सौम्य दृष्टि डाली । देखने वालों में से कुछ लोग समझ गये कि पूज्य श्री अंतिम महायात्रा की Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १७७ अनुमति ले रहे हैं। पूज्यश्री पुनः नेत्र मूंद कर ध्यानारूढ हुए और उनका अंगूठा अंगुलियों के पोरों पर फिरने लगा । अमृत घटिका क्षण क्षण बीतने लगी। एक घडी पूर्ण हुई। पूज्य श्री स्वयमेव श्रीनमस्कार महामंत्र जप रहे थे। अन्य मुनि भी 'अरिहते पवज्जामि' का पाठ सुना रहे थे। हृदय पर प्रकुपित महाबात का हमला हुआ, और पूज्यश्री की गर्दन दो अंगुल ढल गई। शरीरनिष्णातों ने नाडी जाँचकर बताया कि दीपक बुझ गया है। भयानक आघात शिष्यों के हृदय पर वज्रपात का सा आघात हुआ। सब की आँखों से आसुओं की झडी लग गई। श्रावक वर्ग बालक की तरह चिल्ला कर रोने लगा। कोमल हृदय में भक्ति धारण किये हुए साध्विया एवं श्राविकाएँ सुबक सुबक कर रोने लगी। यह रुदन सुनना भी दर्दनाक था। उनका हृदय विदारक रुदन पाषाण हृदयों को भी रुला देता था। ____सभी जानते हैं कि सब को एक दिन जाना है, परन्तु महापुरुष के चले जाने से भावनाशील लोगों को बहुत दुःख होता है। ज्ञानियों को भी उद्धारक व्यक्ति के जाने का आघात सहना कठिन होता है। परमात्मा महावीर देव के निर्वाण से शासन के सरताज़ गणधर श्री गौतमस्वागीजी बालक की तरह नहीं रोये थे? तब भला यह शिष्यसमूह क्यो न रो पड़े। आज तो मानो गलियाँ राती हैं, राजपथ रुदन करते हैं। सूरत रो रहा है, उपाश्रय की दीवारें रोती है, पशु-प्रक्षी भी राते हैं, जैसे सब कुछ रुदनमय हो गया हो ऐसा उदास वातावरण हो गया। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि ये समाचार सभी स्थानों को नभोवाणी तथा शीघ्रवेगी (रेडिये।, तार, टेलिफोन) साधनों से भेजे गये । जहाँ ये समाचार पहुँचते वहाँ आघात और शोक छा जाता । श्रावक वर्ग तो रेलगाड़ी आदि साधनां से पूज्यश्री के अन्तिम दर्शनों के लिए सूरत के आंगन में उमड़ने लगा ! १७८ . समाचार से सूरत की गली गली में शोकमय वातावरण देख कर सूर्य भी उदास हो गया । पूज्यश्री आगमाद्धारकजी के निर्वाण के वह भी अत्यंत दु:खी हुआ, और यह भयं कर सकने के कारण अस्ताचल की ओर चल पड़ा । अन्तिम यात्रा आघात सहन न कर वैशाख कृष्णा (उत्तर में ज्येष्ठ कृष्णा ) ६ के दिन दूसरे पहर के प्रारंभ में अंतिम यात्रा निकलने वाली थी। शाम को शहर के प्रसिद्ध स्थपतियों को बुलाया गया था। उनसे कहा गया था कि आज रात भर के समय में इस महात्मा के योग्य एक छोटे मंदिर के समान विशाल और शोभामय 'महाशिबिका' बनानी है । स्थपतिगण तुरन्त ही भक्ति पूर्वक कार्य में लग गये। सुबह तक तो सात हाथ ऊँची, देव कुलिका की स्मृति करानेवाली कलामय महाशिबिका तैयार हो गई ऐसा दिखाई पड़ता था मानो इन्द्र महाराज की आज्ञा से वश्रमणदेवने पूज्यश्रीकी भक्ति के लिए यह 'महाशिबिका' भेज दी है । आज के प्रथम प्रहर तक मे हजारों जैन- जैनेतर दर्शनार्थी अंतिम दर्शन के लिए आ गये । अन्य शहरों और गाँवों से हजार से अधिक भाग्यवान् अन्तिमयात्रा में भाग लेने आये थे । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधर सुरि द्वितीय प्रहर के प्रारंभ में अंतिमयात्रा का आरंभ हुआ । हजारों का मानव समूह उमड़ा हुआ था । 'जय जय नंदा जय जय भद्दा' की ध्वनिपूर्वक महाशिबिका उठाई गई वाद्ययन्त्रों से शोक के सुर निकल रहे थे। सूरत के राजमार्गों से है। कर अंतिमयात्रा अग्नि संस्कार के स्थान पर आ पहुँची । १७९ आगमस दिर से इन महात्मा श्री के महापुण्य से नगर के बीच इक्यासी हाथ दूर अग्नि संस्कार का स्थल था, परन्तु सरकारी नियम ऐसा है कि किसी मानव का अग्नि संस्कार नगर के बीच में नहीं किया जा सकता । फिर भी ये महात्मा मानव नहीं अपितु महामानव थे, अतः यह नियम गौण हो गया । सरकारी अफसर ने आगममंदिर के पास की भूमि का निरीक्षण किया । आस पास रहनेवाले जैनेतरे से भी पूछा गया कि "इन महात्माश्री की स्थूल देह का इस स्थान पर अग्नि संस्कार किया जाय तो आपको कोई उज्र तो नहीं है ? जैनेतर भाइयों ने बहुत आनंदपूर्वक व्यक्त किया कि 'ये महात्मा जैनों के हैं उसी तरह हमारे भी हैं। हमें कोई ऐतराज़ नहीं है । तत्पश्चात् सरकारी अधिकारी ने आगमोद्धारक संस्था की मिलकियत की जगह में अग्नि संस्कार करने के लिए विशिष्ट अधिकार सहित हुकमनामा लिख दिया । फलतः नगर के मध्य में दाह क्रिया हुई । धर्मपुत्र के हाथों अग्निदाह शहर के राजपथ पर घूम कर अंतिम यात्रा अग्नि संस्कार के स्थान पर आ गई । इसी स्थान पर अग्नि संस्कार का चढ़ावा बोला गया । क्षत्रिय कुल भूषण जैनरत्न श्री जयतिभाई चढ़ावा लिया | वखारिया ने Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसुरि यह भाग्यशाली कह रहे थे. 'हमें पूज्यश्री के द्वारा ही धर्म प्राप्त हुआ है। यदि हमें पूज्यश्री का सत्समागम न मिला होता और हमें धर्म-दान न दिया गया होता तो हम न जाने कहाँ मिथ्यात्व-भज्ञान में भटक गये होते। औगंकी तरह हमें विरासत में धर्म नहीं मिला है, परन्तु इन महात्माश्री ने ही हमें धर्म दिया है। अतः ये हमारे धर्म पिता हैं, मैं इनका धर्मपुत्र हूँ, यह लाभ क्यों जाने दूँ !' शुद्ध चंदनकाष्ठ की चिता रची गयी। उस पर उपयुक्त महाशिविका रखी गई। उत्तराषाढा नक्षत्र में पूज्यश्री आगमोद्धारकजी के भौतिक स्थूल देह का श्री जयंतिलालभाई वखारिया ने आसू टपकाते नेत्रों और खिन्न वदन के साथ अग्नि संस्कार किया। चन्दनचय की महाज्वालाओंने महात्मा के भौतिक स्थूल शरीर की भस्म बमा दी। सब लोग आँखों में उदासी लिए वहाँ से बिखर गये। उपाश्रय में पू० आगमोद्धारकश्नीजी के पट्टधर आचार्यदेवश्री माणिक्यसागरसूरि महाराज की पुण्यनिश्रा में देववंदन किया गया । तत्पश्चात् गुणानुवाद कर सब चले गये। जो लोग अग्निदाह के स्थान पर गये थे वे स्नान कर के उपाश्रय में भाये । उन्हें मांगलिक सुनाया गया। गुरु-मंदिर पूज्य आगमोद्धारकश्री के भौतिक स्थूल शरीर को जिस स्थान पर अग्नि संस्कार किया गया था उस स्थान पर पूज्यश्री की स्थायी स्मृति रहे इस आशय से सुन्दर गुरु-मंदिर निर्माण किया गया। आज यह गुरु-मंदिर पूज्यश्री की पुण्य-स्मृति कराता है और कहता है 'इन के Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमधरसूरि १८१ असे आगमोद्धारकश्री देवगिणी क्षमाश्रमण के पश्चात् कोई नहीं हुए और भविष्य में कब होंगे सेा ज्ञानी ही जानते हैं।' पूज्य आगमोद्धारकजी गये परन्तु अपने पीछे चिरस्थायी अध्या. स्ममयी सुवास छोड़ गये है। उस बहुश्रुत महात्मा के चरणारविदां में वन्दन हो। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO. POL Camp via Surat, In May 1950. Read : letter dated 2-5-50 from Shantilal Chhaganbhai, Trustee of Agamoddharak, Jain Sanstha, Juni Adalat, Gopipura, Ward No. 1, Surat City, requesting cremation of Acharya Sagaranand Suri shwarji, Jain saint, in land of plot bearing city survey No. 3394/B. Order Permission is granted, as a special case and without the creation of a precedent, to the cremation of the dead body of the Jain Saint Shri Sagaranand Surishwarji in the open space of city survey No. 3394/B, Ward No. 1, Surat City. This permission does not dispense with the permission of Municipal Borough if such permission is necessary. Sd/- Illegible District Magistrate Surat. To. The Applicant Shantilal Chhaganbhai, Truetee, Agamoddharak Jain Sanstha, Gopipura, Surat. The D. S. P. Surat, w. c. The President, Surat Borough Municipality, w. c. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारकधीकी यह अंतिमप्रस्तावना वि० सं० २००५ में प्रकाशित उपदेशरत्नाकर-भावार्थमे से उद्धृत प्रासंगिकम् १ यद्यपि 'जयसिरी'त्यादिपराङ्कितगाथाम् तृतीयभागादिषु पदानां क्वचित् क्वचिद् विपर्यासोऽस्ति परमादिपदस्य समानस्वादत्र समा एकत्र धृताः।। २ अत्र निर्दिष्टे प्रथमद्वितीये तटे आद्यमध्यमतटनामायां स्वोपाटीकायां विवृते, तृतीयं तु तम्म् अपरतटमामक संस्कृतप्राकृतभाषायुक्तगाथात्मक सुगममिति कृत्वा न तब विवृत ततो विवृतमुपदेशरत्नाकरमादत्य प्राग मुद्रणस्य कृतत्वात् तत्र न तन्मुद्रित, ततस्तृतीयतटस्य मुद्रण नूतनमेव, तदुद्धारार्थमेव कृते प्रस्तुते प्रयत्ने प्राङ्मुद्रितयाः प्रथममध्यमसटयोर्मुद्रण स्वखण्डार्थ ग्रन्थस्य । . ३ अकारादिक्रमे तिसृणामपि तटगतगाथानां विहितो:नुक्रमः, न च प्राङ्मुद्रिते द्वयोरपि मुद्रितयोस्तटयारस्त्यकारादिक्रमः। . ४ अत्र केचित् सरङ्गेष्य शापरपर्यायेषु मूलादर्शापेक्षया या माथास्तासामवसरणायानेऋत्र वृत्तौ धृता गाथाः पराः तासच काश्चिद् विधूता अपि सन्ति । . ५ विवरणपुस्तकेषु तु अंशानां भागास्तरङ्गेति नाम्नाऽऽख्याता: । ६ अत्र त्वकारादिक्रमस्त्रयाणामपि तटानां कृतोऽस्ति। ७ आद्य चत्वारोऽशाः द्वितीये च चत्वारोऽशाः तृतीये तु तंटेऽष्टांशाः; एवं षोडशांशात्मकोऽयं ग्रंथ इति ।... __ _ आनन्दसागरः । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पु० आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी म. ने आगमाद्धारकश्रीको ‘समर्पण' किए हुए नंदीसत्रचूर्णिमें से उद्धत __गंथसमप्पणं वरसुयसायरबीईतरतमण-वयण-कायजोगाणं । वरजिणआगमपयडणकरणे अपमत्तजोगाणं ॥१॥ जोगाजोगविहन्नूण नूण गंभीरिमाए गरिमाण। 'आगमउद्धारय'वरउवाहिमंताण संताणं ॥२॥ आयरियपुंगवाण सागरआणंदमूरिणामाणं । महणायसद्दसच्चावयाण दुसमम्मि कालम्मि ॥ ३ ॥ करकमलकासमझे ताणं संपइ दिवंगयाण मए । अपिज्जइ गथोऽयं विणएण पुण्णविजएणं ॥ ४ ॥ ग्रन्थसमर्पण जिनका मन-वचन-काययोग श्रेष्ठ श्रुतसागरकी तर गोमें तैरता था, जो श्रेष्ठ जिनागमके प्रकाशनमें अप्रमत्तयोगसे प्रवृत्त थे, योग-अयोग के विवेक में कुशल थे, गाम्भीर्य गुणकी गरिमासे अन्वित थे, 'आगमोद्धारक'की श्रेष्ठ पदवीसे विभूषित सन्त थे, और दुःषमकालमें जिन्होंने अपने आपमें 'महानाद' शब्दको सत्य सिद्ध किया था ऐसे साम्प्रत कालमें दिवंगत आचार्य श्रेष्ठ श्रीसागरानन्दसूरिजीके पवित्र करकमल रूप कोषमें यह ग्रन्थ विनयपूर्वक समर्पित करता हूँ। पुण्यविजय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ आगममन्दिरचतुर्विंशतिका। आगमोद्धारकप्रणीता। मा भव्या ! निपुणेन शुद्धमनसा स्थानं समालोक्य माऽऽख्यान्तु प्राप्य समुद्धशं पदतति स्यां लोकविचा श्रियै ! यस्मिन्नतदुवाच शास्त्रविततिः श्रुत्वा वचस्तादृशं भव्यैः शाश्वतसिद्धिदाननिपुणा दिष्टस्त्वयं 'शैलराट' ॥१॥ स्थान नैव परं त्रिलोकवलये कैवल्यबोधान्वितैदृष्ट सेवयता 'युगादिजिनपो' वारात् परार्घात् पराः । अत्राऽऽगत्य दिदेश भव्यततये मोक्षाध्वसेवानिमां सेवामस्य यतोऽगुरिद्धहिततोऽनन्ताः पदं शाश्वतम् ॥२॥ क्षेत्रप्रभावमसम 'गिरिराज'सत्क श्री'पुण्डरीकगणधारिण'माप्य जातम् । भव्यो दधाति हृदये सतत यदत्र लेमे स मुक्तिपदवीं 'गिरिराट्'प्रभावात् ॥३॥ चित्र जैनन्द्रधर्म स्वबलकृतशिवे 'पुण्डरीका' गणेशः कोट्युन्मानान् मुनीशाल्छिवपदमनयत् सार्ध मेवात्मना यत् । स्थित्वाऽत्रोचैःप्रभावाद् 'गिरिमहिमबलाच्छी 'युगादीश'दिष्टा मन्ये लाभं विदित्वा मनसि गणधरोऽस्थाद् गुरुभ्यः पृथक्त्व॥४॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कालानुक्षणसमार्थनिधने बद्धादरस्तत्र किं स्यात् ते भावि पद श्रियै इति वचः शास्त्रावलेन भतम् । आत्मार्थोद्यतधीमतां शिवपदं तीर्थ तृतीयेऽभवदारेऽसङ्ख्यतमा गताः शिवपुरं जीवास्तथा ना पुरा ||५|| शैलेय्यः प्रतिमाः पुरा न सुलभा वक्रस्वभावे नृपे स्वच्छा ग्रावचयोऽधुनाऽतिविशदे। देशान्तरे प्राप्यते । तन्मां ग्रावसमुच्चये सुविधिनात्कीर्यात्र चेत् स्थापयेदातीर्थ भविनां मनोरथतति सन्मार्गगां पूरये ||६|| वैद्योपदिष्टमतिमिष्टमिवातुरोऽदः श्रुत्वा वचः परपदाप्तिसमुद्यतोऽयम् । सङ्घाऽत्र शास्त्रविततेः स्थिरतां चिकीर्षु क्रे सदागमयुत' 'जिनमन्दिर" द्राक् ||७|| つ परो लक्षाञ्छ्लेाकान् विशदलिपिनाकी विदे शिलाच्छाये शुभ्र शिव सुखल भोऽश्रागमततेः । न्यधत्ताशेषाणां हितततिकृते तं सुविशदे कृते चैत्येऽशीत्या शतयुत जिनालिविमले ||८|| क्रियात् पवित्र निजजीवमाशु भव्य जन स्त्वित्थमुदारबुद्धया । जिने शिनामेव पुरस्तदीयाऽऽगमावलीमत्रगतां न्यधत्त || ९ || दिव्यानि चैत्यानि पुराण्यशीत्या शतेन युक्तानि जिनेश विम्बैः । तवाणवेदप्रमितानि कृत्वा चतुर्मुखानि व्यदधात् तथाऽत्र ॥ १० ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिद्वय श्रीजिनराजिभावे स्यात् केवला विंशतिरिद्धरूपा । युता चतुर्भिश्च चतुर्भिराढ्यं युग्मं समन्तात् शुचिविंशते रिह ॥ ११ ॥ तिर्यग्लोके जिनपजननं तन्महार्थ सुरेशाः स्वर्गादीयुर्निजहितकरं कर्तुमह द्विभूनाम् । जन्मस्नात्रं शिरसि 'विबुधाद्रे'श्व ते पञ्च शैलाः मत्वात्राsधाद् विबुधसहितः पञ्च मेरून्' सुसङ्घः ||१२|| न शाश्वतेष्वेषु जिनालयेषु हित्वाऽहतां तुर्यमवाप्यतेऽन्यत् । नामेति मध्येऽत्र विशालचैत्ये 'चतुर्मुखी शाश्वतनामधेया' ||१३|| जगत्यां जीवाद्याः सततभविना भावनिचया अतोऽर्थः शास्त्राणां विबुधततिभिर्नित्य उदितः । दिशन्तस्तान् भावान् निखिलविदुपाssवेद्य जिनपा मतः शास्त्राणां ते निरूपणचणा अर्थनिचये ॥ १४ ॥ सूत्राणां ग्रथनं तु तद्वचनतश्चक्रुर्गणेशाः समं तत्तीर्थं निखिलाङ्गितारणसह श्रीद्वादशाङ्गात्मकम् । तत्पट्टान् गणधारिणां समजिनवातस्य सम्मन्दिरे ह्यासन्ने विदधौ विधानकुशलः सङ्घा गणेशाङ्किते ॥ १५ ॥ युग्मम् तीर्थमेतदिह पुस्तकावलिं धारयन्नितरथाऽस्ति नैव तत् । पुस्तकानि च चकार 'देवयुक् सद्गणी' प्रमितिधाम सर्वदा ॥ १६ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ २ एवं पट्टा गणधरनिलये बाणयुग्माङ्गितास्तान् काले क्षेत्रे सुकृतपरिमिते यानि सर्वत्र लोके । पुज्यान्य 'हे' प्रमुखनवपदीयुक्तससिद्धचक्रान्युद्वेष्टयाथो परित उपरतो ह्येनसः सङ्घ आधात् ॥ १७ ॥ 'मेदियो यद्वदमी जगत्यां शश्वद्भवाः शास्त्रकृता सुगीताः । 'सिद्धाद्रिरेषोऽपि तथैव मान परं न नित्यं न ततस्तथोक्तः॥१८॥ यावत् 'तीर्थ' भविकजनतामाक्षसिद्धथै सहायं 'तीर्थ' ह्येतद् बुधजनमत शुद्ध 'शत्रुजयाख्यम्' मत्वा सङ्घा विमलपदवीप्राप्तिहेतोः सदाऽत्र भक्तौ प्रो सुविदिततमं ध्यातवांश्चैत्ययुग्मम् ॥ १९ ॥ अधित्यकायां जिनचैत्ययान सुखावहा स्यात् कृतिरुपमूल्या । पयोदकाले श्रपणादिसङ्घो नेयादितीमे विहिते अवस्तात् ॥२०॥ चत्वारिंशत् सहस्त्री तदपरनिलया यात्रिकाणां. क्षणेऽस्मिन् द्रष्टुं चैत्योत्सव तज् जिनपतिनिचयार्चावलेरजने'ऽत्र । चैत्येषु स्फुर्तितेषु द्रविणचय 'कृतेष्वासितु जैनमूर्तीः' प्राप्ता नो तत्र कोऽपि मृतिमुपगतवानुत्सवाहान् नितान्तम् ॥२१॥ शिलोचये 'शरवेदसङ्ख्या आचारमुख्या:' सुविशुद्धरूपाः । उत्कीरिताः सन्ति जिनागमास्ते 'सर्ये पुरे' 'ताम्रपटेषु' नान्य।।२२॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भाण्डागारेषु' विज्ञैरनुपममतिभिस्स्वागमानां सुपेटाः स्थाने स्थाने जिनेशोदितिततिममला रक्षितु न्यस्तपूर्वाः। त्रैधं तद् रक्षितु श्रीजिनपतिवचनान्मादृत सङ्घमुख्यैमत्वैतत् सर्व लोकाः प्रतिपदमनिशं संस्तुवन्यागमालिम् ॥२३॥ फलं यत्नाल्लम्यं बुधततिगदितं वाक्यमेतद् विचिन्त्य 'त्रिधा' धत्ते यत्नो जिनपतिगदितां रक्षितुं 'शास्त्रवीथिम् । भविष्यन्त्यां सङ्घो जिनवरकथितां शास्त्रवीथिं पवित्रा न किं रक्ष्यां मत्वा सततमवघृति शास्त्रभृत्य विधाता ॥२४॥ वेदखयुग्मकरप मितेऽब्दे 'सूय पर स्थितसुश्रमणायैः । भूरिधनैर्निरमायि किलैष चारुमहोत्सव उज्ज्वलबोधैः ॥२५॥ અંજનશલાકા વિ. સં. ૨૪૬૯, વિ. ૧૯૯૯ ના મહા વદ બીજને સેમવારે (તા. ૨૨-૨-૧૯૪૩) પાલીતાણામાં કરાઈ હતી અને 'प्रात' मा १६ पायभने ४३वारे (ता. २५-२-१८४३) ४२४ dl. * -84onld-is-८,१०,११,१३,१८,२०,२२, यसपा-१७ ध-२५. माता-१२. १९; २थाता-१६, सन्ततिस-3, ७. थाई elasalsa-१,२,५,१,१५. मिरि९-८, १४, शाला-२४.२०५।४,२१,२३. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वर प्रणीता श्रीवर्धमानजिनागममन्दिर - प्रशस्तिः श्रीसिद्ध भूभृतलहट्टिकास्थित समुन्नतं देवविमानसन्निभम् । विलोक्य जैनागममन्दिरं वरं प्रयाति का भव्यजनो मुदर्शन हि १ ॥ १ ॥ सच्चतुः शिखरिचैत्यखार्णव- मानदेवकुलिकाविभूषितम । राजते गगनचुम्बि बन्धुर यत्र शाश्वत जिनाहवमन्दिरम् ||२|| सिद्धचक्रगवर मण्डलाखिल तीर्थकृद्गणधरादिमूर्तियुग | सिद्धचक्रगणभृद्गृहं तथा तद् जिनागमगृह न कः स्तुते १ ॥ युग्मम् विशाले श्रीतपागच्छे कल्पद्रुमोपमे वरे । श्रेष्ठसाधुगणा शाखा समस्ति सागराभिधा ||४|| तत्राऽभवन् जिनेन्द्रस्य शासनस्य प्रभावकाः । मुनीश्वरा 'जयवीर' - सागरा ज्ञानसागराः ||५|| जहूवरेति प्रसिद्धाः आसस्तेषां शिष्यरत्नाः श्रुतसंयमशालिनः । आगमेाद्धारकाः सूरीश्वरा आनन्दसागराः ||६॥ यैर्मुनीनां वाचनादि-सौकर्यार्थ स्वयं समे । संशोध्य रम्यपत्रेषु प्रकाशिता जिनागमाः ||७|| सिद्धान्तवाचनाः सप्त पुरेषु पत्तनादिषु । श्रुतार्थिभ्यो मुनिभ्यो ये प्रायच्छन् ज्ञानवृद्धये ॥८॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कीर्यन्ते शिलासु चे-दागमांश्चिरस्थायिनः । भवेयुरिति सङ्कल्पः मरीणामेकदाऽभवत् ॥ ९ ॥ युगनिध्यकचन्द्राब्दे वैक्रमे शुभवासरे । मरीणां तीर्थयात्राया उपदेशाद् वराशयौ ॥१०॥ इभ्यो श्रीपोपटभाई-चूनीलालेति सङ्घको । दानवीरौ धर्मिश्रेष्ठौ भूरिश्रमणश्रावकम् ॥११॥ सौराष्ट्र तीर्थयात्रायाः सङ्घ रीषटकषालकम् । निरकासयतांजाम-नगराद् जिनगेहयुक् । ॥१२॥त्रिभिर्विशेषकम् तत्र सङ्घ सूरिवर्या विहरन्तः पुरात्पुरम । तीर्थ शत्रुञ्जय नन्तुं पादलिप्तपुरेऽगमन् ॥१३।। सझेन सह सिद्धादि रम्यचैत्यालिराजितम् । ...--- आरुह्य सरयो नामि-नन्दन जिनमस्तुवन् ॥१४॥ ततः सूरिवराः सिद्ध-गिरिप्रभावमद्भुतम् । पुनः पुनः संस्मरन्ते गिरिराजादवातरन् ।।१५।। तत्रागमान् शिलारुढान निर्मातुं गुरवोऽदिशन् । तथा तदागमन्यास-कृते मन्दिरनिर्मितिम् ॥१६॥ श्रुत्वोपदेश सूरीणां तत्कृते सङ्घशेखराः । पोपटभाई जहर-मोहनभाईमुख्यकाः ॥१७॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान जिनागम - मन्दिराख्यां सुश्रावकाः संस्थामस्थापयन् तत्र पृथक पृथकपुरस्थिताः ||१८|| आरासरीयशिलास धवलासु दृढासु च । ૫ ૪ शरवेदान् ततः संस्था सिद्धान्तानुदकीरयन् ॥ १९ ॥ उत्कीर्णागमशिलाभिः सहागमप्रणायिनाम् । प्रतिमाः स्युस्तदा भव्य - मिति पूज्यैर्विचारितम् ॥ २० ॥ ज्ञात्वा विचार सूरीणां संस्था च निरमापयत् । भव्याकृतीस्तथा माना - पेता मूर्तीः परःशताः ||२१|| शिलारूढागमानां च प्रतिमानां जिनेशिनाम् । संस्थापनाय मन्दिर संस्थयाऽथ विचारितम् | ||२२|| आसीत् सूर्यपुरे श्राद्ध: फूलचन्द्रेतिसञ्ज्ञकः । उदारस्तस्य च्छगन भाईत्यारव्या वरः सुतः || २३॥ जवेहरी शान्तिचन्द्रोऽस्ति तत्सूनुर्गुरुभक्तिमान् । सहस्रै रुप्यकैस्तस्य बाणलेोचनसंमितैः ||२४|| क्रीता च तलहट्टिका - समीपस्था वसुन्धरा । संस्थाssगमन्दिर निर्माणार्थं नृपान्तिकात् ||२५|| - ४ ९९१ वक्रमीये नदीशाङ्क - नन्देन्दुवत्सरे तिथौ । दशभ्यां राधशुक्लस्य समह विधिपूर्वकमृ || २६ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमाभाईसुपुत्रेण पन्नालालेति श्रेष्ठिना । संस्था जिनागमसम-खातं तत्र घधापयत् ॥२७॥ युग्मम् ॥ उत्कीर्णागमशिलानां स्थापनार्थ क्रमेण च । संस्था निरमापयत् तत्र भव्यमागममन्दिरम ॥२८॥ आगमौकसि निष्पन्ने प्रतिष्ठार्थ च मण्डपे !....... संस्थापिताः पीठिकायां जिनेशप्रतिमाः ततः ॥२९॥ ___ ९ ९ ९ १ - - तासां च नवनिध्यङ्क-चन्द्राब्दे वैक्रमे विधो। .. माधासितद्वितीयायां मुहूर्ते समहोत्सवम् ॥३०॥ शुभाञ्जनशलाकाहन्मृतीनां विधिना कृता । माणिक्याब्धियुतैः सरी-श्वरैरानन्दसागरैः ॥३१॥ ततश्च नवनिध्वङ्कचन्द्राब्दे वैक्रमे कृता । माधस्य कृष्णपञ्चम्यां प्रतिष्ठागममन्दिरे ॥३२॥ समुत्कीर्णागमाः शिला आगमालभित्तिषु । मुहूर्तेोजिताः सम्यग रत्नानीव · गणेशितुः ॥३३॥ तच्चैत्योद्घाटन राज-नगरस्थेन निर्मितम धर्मिमाणिकलालेन मनासुखेभ्यसूनुना ॥३४॥ आरब्धा माधशुक्का-दशीदिनाद् महोत्सवः ।। जिनागमालये रम्ये कुम्भस्थापनपूर्वकः म३५।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवग्रह चनमहा - पूजाङ्गरचनादिकः । द्वादशान दिवसान् यावत् प्रावर्त्तत प्रमोदतः || ३६ || युग्मम् प्रत्यह ं तत्र स्वधर्म - वात्सल्यमभवत् तथा । प्रभावनादीनि धर्म - कृत्यानि च विशेषतः || ३७॥ दिवसेऽन्त्ये महास्नात्र - मष्टोत्तरशताह्नयम् । जेमयित्वा जनान् सर्वान् ग्रामश्च निधूमीकृतः । ३८ ॥ प्रतिष्ठावसरे तत्र भूयांसेा मुनयो वराः । तं महं दृष्टुमायाताः श्रावकाश्च सहस्रशः ||३९|| विलेाक्य मुदिताः सर्वे प्रशसन्तो महोत्सवम् | अद्दष्टपूर्व इत्येष स्वस्वस्थानमयुर्जनाः ॥ ४० ॥ इत्युत्सव महानेष मनुष्यमरोज्झितः । निर्विघ्न पूर्णतां प्रापत् पादलिप्तपुरे वरे ||४१ ॥ आचार्यानन्दसागर - सूरिपट्टधरो मुदा । प्रशस्तिमेतामलिखत् सूरिर्माणिक्यसागरः || ४२ || Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोऽत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स श्रीवर्धमानजैनताम्रपत्रागममंदिर प्रशस्तिः जिनेन्द्रा यदीयात् प्रभावात्समस्ता, यतः शाश्वतत्व जिनेशागमानाम् । स्वतः सिद्धभावास्ततः सङ्घसार्था, नितान्त नर्ति कुर्वते शुद्धभक्त्या ॥१॥ जनानन्द्याकाङ्क्षा भवति विपुला साऽऽगमतते स्ततस्तां देवेशाः स्फुटतरमुदाऽहन्ति सततम् । समस्तार्थोद्योतां सुरनरनिकायप्रकटिकां, ----- जगत्यां धर्मोऽयं जयतु सततं ह्यागममयः ॥२॥ श्रीवीरजिनेश्वरस्य २४७४ तमे श्री विक्रमार्क स्य २००४ तमे हायने माघशुक्लतृतीयायां श्रीसिद्धक्षेत्रीयागममन्दिरानुकृतिमति श्रीसुरत-गोपीपराभूषणे श्रीआगमोद्धारकाख्यसंस्थया कारिते श्रीवर्धमानजेनताम्रपत्रागममन्दिरे विंशत्यधिकशतेन जिनबिम्बानां पश्चचत्वारिंशता ताम्रपत्रीयागमानां च शोभिते प्रतिष्ठा कारिता श्रीमत्तपोगच्छीयागमोद्धारकानन्दसागरसूरिणा श्रेयसे स्तात्तीमर्थ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ गुरुवर्याष्टकम् | प्रणेता - श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरः प्रभावक ! श्री जिनशासनस्य प्रज्ञानिधे ! संयमशालिमुख्य ! | जिनागमो द्वारक ! सुखिर्य ! श्री सागरानन्दगुरो ! सुपूज्य ! ॥ १ ॥ खगेषु हंसः कुसुमेषु पद्मं शक्रः सुरेषु द्रुषु कल्पवृक्षः । यथा तथा साम्प्रतकालवर्ति-संवेगिषु त्वं गुरुराज ! मुख्यः ||२|| ( युग्मम् ) अनन्यसाधारण बुद्धिमत्व -मुख्यान् गुणान् वीक्ष्य मुदं दधानः । गुरो ! महान् सूर्य पुरीयसङ्घ- स्त्वां भूषितं सूरिपदेन चक्रे ॥३॥ सशोध्य टीकादियुतं समस्त जिनागमं शास्त्र रहस्य वेदिन ! | स्वाध्याय सौकर्य कृते मुनीनां प्रकाशितः सूखिर ! त्वयाऽहे| ||४|| वीराय वाचंयमवृन्दवन्द्य - पादारविन्दाय जितेन्द्रियाय । रताय मोक्षाध्वनि सयमादौ तुभ्यं नमः सूरिपुरस्सराय ||५|| जिनागमस्य द्धति - वाचने च श्रीमालवे चैत्यसमुद्धतिश्च । इत्यादिकार्याणि महत्ववन्ति त्वत्तः प्रवृत्तानि गुरो ! बहूनि ॥६॥ तवोपदेशेन गुरो ! सलाना - राज्याधिपो भूपदिलीपसिंहः । सर्वाष्टमीपर्युषणादिनेषु व्यस्तारयत् स्वाखिलपूर्व हिंसाम् ||७|| निर्ग्रन्थमाणिक्य ! गुरो ! गुरो ! गुणाढ्य ! त्वयि प्रतिज्ञा दृढता च धैर्यम् ! व्याख्यानशैली च तथाऽद्वितीया कान्यत्र दृग्गोचरमेति पूज्य १ ॥८॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेवाष्टकम्। । प्रणेना-श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरः आगमोद्धारक ! श्रीमान ! दिलीपनृपबोधक ! । .. मुनिचर्यासमासक्त ! आचार्यानन्दसागर ! ॥१॥ गुरो ! त्वं सर्वशास्त्रज्ञ-स्त्वं वादिगजकेसरी ।। श्री जैनशासनाम्भोधि-चन्द्रमास्त्व घिर जय ॥२॥ मन्यन्ते गुरुवर्य ! त्वां बुधा बुद्धथा बृहस्पतिम् । गाम्भीर्यण पयोराशि धेर्यण मन्दराचलम ॥३॥ गुरो ! सत्ररहस्यज्ञ ! त्वया सिद्धान्तवाचनाम् । दया श्रमणवृन्दाय महत्युपकृतिः कृता ॥४॥ अप्रमत्त! सदाऽऽसक्त-शास्रसशोधनादिके । गुरुराज? नमस्तुभ्य मुनिन्दनमस्कृतम् ! ॥५॥ मावर्तन्त गुरे ! त्वत्तः परार्थापितजीवन ! । नैकाः संस्थाः समित्याद्या आगमादिप्रकाशिका! ॥६॥ गुरो ! तोपदेशेन दया पयूषणादिषु । दिलीपसिंहराजेन स्वपुरेषु प्रवर्तिता ॥७॥ गुरो ! दढपतिज्ञत्व निःस्पृहत्वं च यत् त्वयि ।। तथा जिनागमज्ञान नान्यत्र क्वापि दृश्यते ॥४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , आगमाद्धारक-आचार्यदेव १००८ श्री आनन्दसागरसूरीश्वरस्तुत्यष्टकम् । श्रीजैनशासननमोमिहिरायमाणं ___सज्ज्ञानसंयमशमादिगुणाम्बुराशिम् । आप्तागमोद्धृतिकर कृतभूपबोध मानन्दसागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ॥१॥ आसीज्जनुः कपडवंजपुरे यदीयं नाम्ना च यस्य यमुना जननी सुशीला । श्रीमनलाल इति यज्जनकः प्रशान्त आनन्दसागरगुरु प्रणमामि सूरिम् ॥२॥ यो वैक्रमे मुनियुगाङ्कमृगाङ्क (१८४७) वर्षे जह्वरसागर-मुनीश्वरपादपद्मे । आदत्त चारु चरण शिववम धीरं आनन्दसागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ॥३॥ प्राचीनपुस्तकसमुद्धरणाय देव चन्द्रादिनामकलितः प्रथितः सुकोशः । यस्योपदेशमधिगम्य जनि प्रपन आनन्दसागरगुरुं तमहं प्रवन्दे ॥४॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रापज्जनि सदुपदेशमवाप्य यस्य श्री आगमादयसमित्यभिधा सुसंस्था । सिद्धान्तवाचनप्रकाशनकारिका श्री. आनन्दसागरगुरुं तमहं वन्दे ||५|| निर्युषित- भाष्य - घरवृत्तियुतानि सम्यग् यः प्रापयत्प्रवचनानि विशोध्य यत्नात् । भव्योपकाररसिक श्रुतभक्तिभाज मानन्दसागरगुरुं तमहं वन्दे || ६ || यो वाचनां समुददान्मुनिमण्डलाय ܪ ज्ञान प्रचारयितुमाप्तजिनागमानाम | सम्यग् जिनागमरहस्य विदां वरेण्य मानन्दसागरगुरुं तमहं वन्दे ॥७॥ एवं कृताऽन्यशुभशासन कृत्य जात विख्यातशारदश शिप्रभशुभ्रकीर्तिम् | आचार्यमौलिमुकुट मुनिवृन्दवन्ध मानन्द सागरगुरुं प्रणमामि सूरिम ||८|| Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पूज्य आगमोद्धारक - आचार्यप्रवर श्री आनन्दसागरसूरीश्वर - गुण-स्तुति : ज्ञातनन्दनम् । प्रवर्त्तमानतीर्थेश वन्दित्वा सूरिराजं सद् गुरुमानन्दसागरम् ॥ १॥ - स्तवीमि देशे मनोहारिणि गुर्जराख्ये श्री विक्रमाद् भूगुणनन्दचन्द्रे (१९३१) । वर्षे पुरं कप्पडवसज्ञ व्यघात् पवित्र निजजन्मना यः ॥२॥ मुन्यब्धिनिध्यनजसमे (१८४७) गणीनां बहेरवारांनिधिसद्गुरुणाम् पादारविन्दे ललनादिसङ्ग हित्वा व्रतं यः स्व्यकरोद् युवत्त्वे ॥ ३॥ यं वत्सरे, वेदहयाङ्कचन्द्रे (१९७४) सूर्ये पुरे सूरिपदेन पूज्यम् । व्यभूषयत् सङ्घकृतात्सवेन गुणेादधिः श्रीकमल। ख्यस रिः ||४|| वाचंयमानां च परःशतानां श्रुतार्थिनां पत्तनमुख्यपृषु । षाण्मासिकीः सप्त जिनागमानां यो वाचना अर्पितवान् श्रुतशः ||५|| Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिमाध्यादियुतं कृतान्त १७ माचार मुख्यं गणभृत्प्रणीतम् । यः शोधयित्वा स्वयमेव सम्यक प्राकाशयत् शासनबद्धरागः ॥ ६ ॥ सूर्यात् पुरात् सिद्धगिरेः सुसब यन्निश्रया जीवनचन्द्र इभ्यः । चकर्ष षटसप्त निधीन्दुवर्षे (१८७६) 'रीषट्क 'पाल बहुसाधुश्राद्धम् ॥७॥ यदाज्ञया पोपटलाल श्रेष्ठी श्रीजामपूर्वान् नगरात् सुपुण्यः । अकर्षयत् सिद्धगिरेः सुसडूध 'परी' युतं वेदनवाङ्कगोऽब्दे (१९७४) ||८|| सुदीर्घकालस्थितये श्रुतस्य शुभापदेशं समवाप्यः वस्य । मनोरमे देव विमानतुल्ये जाते शुभे आगममन्दिरे द्वे ||९|| शत्रुञ्जयाद्रेस्तलहट्टिकायां शिलासमुत्कीर्णकृतान्तमेकम् । द्वैतीयिक सुन्दरताम्रपत्रोत्कीर्णाममं सूरतबन्दिरे च ॥१०॥ अन्यान्यपीत्य सुकृतानि जैन- विम्बप्रतिष्ठाप्रमुखानि सूरिः । विधाय पशून्यनमोऽविर्षे: (२००६) ध्यानस्थितः सूर्यपुरेऽगमद् धाम् ॥११॥ इति स्तुतः संयमादि-गुणमाणिक्यसागरः । सदा 'जयतु सूरीश आचार्याऽऽनन्दसागरः ॥ १२ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरनामानन्दसागरसूरीश्वर गुण-स्तुतिः । प्रवर्तमानतीर्थेश वन्दित्वा ज्ञातनन्दनम् । स्तवीमि सूरिराज सद्-गुरुमानन्दसागरम् ॥१॥ शे मनोहारिणि गूर्जराख्ये, श्रीविक्रमाद् भूगुणनन्दचन्द्रे १८३१ । वर्षे पुरं कप्पडवजसञ्ज्ञ, । व्यधात् पवित्र निजजन्मना यः ॥२॥ नेमावणिग्वंशमोऽभवत् पिता, . ... श्रीमग्नलालेमियो यदीयः । माता सुशीला यमुनाभिधाना, .. - भ्राता सुधीः श्रीमणिलालनामा ॥३॥ संसारनैर्गुण्यविदो यदीयो; वृद्धः पिता ज्वेष्ठसहोदरश्च । प्रपन्नवन्तौ विनयाभिधोन-गुरोः पदाजे चरणं जिनक्तिम ॥४॥ मुन्यब्धिनिध्यब्जसमे (१८४७) गणीनां, ... जईवेवारांनिधिसद्गुरूणाम् । पादारविन्दे ललनादिसङ्ग, हित्वा व्रत यः स्व्यकरोद् युवत्वे ॥५॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः शब्दतांगमशास्त्रवेत्ता, विशुद्धपश्चाचरणैः पवित्रः । आपञ्चमाङ्ग विधिनाढयोगः, सद्देशनाकारिषु चाग्रगण्यः ॥६॥ धैर्येण गाङ्गेयगिरिः सुर्धांशुः, सौम्येन गीवार्ण गुरूः सुबुद्धया । परार्थकारित्वगुणेन मेघः, सिन्धुश्च गम्भीरतयाऽभवद् यः ॥७॥ यः तत्वप्रश्नोत्तर-जैनगीते, सिद्धप्रभानामकशब्दशास्त्रम् । न्यायावतारे द्वयविशिकायां वृत्तिं तथाऽन्या ज्यदधात् कृतीश्च ॥८॥ यं वत्सरे वेदहयाङ्कचन्द्रे, (१८७४) . सूर्ये पुरे सूरिपदेन पूज्यम् । व्यभूषयत् सङ्घकृतोत्सवेन, गुणोदधिः श्रीकमलाख्यसरिः ॥९॥ बाचंयमानां च परशतानां, श्रुतार्थिनां पत्तनमुख्यपुर्षु । पाण्मासिकीः सप्त जिमागमानां , यो वाचनां अर्पितवान श्रुतज्ञः ॥१०॥ तत्रादिमा संवति वैक्रमीये, भूम्यश्वनन्देन्दुमिते (१८७१) वितीर्णा । सुचारुजैनेन्द्रगृहेऽणहिल्ल-पुरे प्रतीते श्रुतवाचनका ॥११॥ द्रङ्गे तथा कपडवअसञ्चे, स्वजन्मना पूततमे द्वितीया । अहम्मदावादपुरे तृतीया, सदाचना जैनपुरीतिवित्ते ॥१२॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनालयेरागममन्दिराद्यै....विभूषिते सूर्यपरे प्रसिद्ध । दने चतुर्थी किल पश्चमी च, ___ मनोहरे आगमवाचने वे ॥१३॥ षष्ठी च शत्रुजयतीर्थम्मो, श्रीपादलिप्तामियरम्यपूर्याम् । दत्ताऽन्तिमा मालवदेशरत्ने, ख्याते पुरे श्रीरतलामसञ्ज्ञे॥१४॥ अन्यान्यसङ्घाटकसन्मुनीनां, सिद्धान्तबोधस्य विवर्धनाय । एवं वितीर्य श्रुतवाचनाली मनुग्रहं यो व्यदधन् महान्तम् ॥१५॥ नियुक्तिभाष्यादियुत कृतान्त-माचारमुख्यं गणभृत्प्रणीतम् । यः शोधयित्वा स्वयमेव सम्यक्, प्राकाशयत् शासनबद्धरागः ॥१६॥ सूर्यात् पुराव सिद्धगिरेः सुसङ्घ यनिश्रया जीवनचन्द्र इभ्यः ! ... १८७६ . चकर्ष षट्सप्तिनिधीन्दुवर्षे, . रीपदक पालं बहुसाधुश्राद्धम् ॥१७॥ यदाशया पोपटलालालश्रेष्टी, श्रीजामपूर्वान नगरात् सुपुण्यः ! अकर्षयत् सिद्धगिरे। सुसङ्घ 'पड़ी युत वेदनवागेोऽग्दे (१८८४) ॥१८॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यवारयन् मालवदेशसैला-नेशं दिलीप नृपति प्रबोध्य । अजादिहिंसा तदधीनदेशे, घस्रेषु यः पर्युषणादिकेषु ॥१९॥ सुदीर्घकालस्थितये श्रुतस्य, शुभोपदेशं समवाप्य यस्य । मनोरमे देवविमानतुल्ये, जाते शुभे आगममन्दिरे द्वे ॥२०॥ शत्रुक्षयातस्तलहट्टियां, शिलासमुत्कीर्णकृतान्तमेकम् । द्वैतीयिक सुन्दरताम्रपत्रो-त्कीर्मागर्म सूरतवन्दिरे च ॥२१॥ भोपावराख्यं जिनशान्तिनाथ-विभ्रानित विश्रुतसुप्रभावम् । यस्योपदेशादगमत प्रसिद्धि, तीर्थ शुभ मालवमण्डलस्थम् ॥२२॥ अन्यान्यपीत्थं सुकृतानि जैन-बिम्बपतिष्पप्रमुखानि सरिः। विधाय षट्शून्यनमोऽक्षिवर्षे (२००६), ___ध्यानस्थितः सुर्यपुरेऽगमद् घाम् ॥२३॥ इत्थं स्तुतः श्रुतधरः शुचिसंयमादिमाणिक्यसिन्धुरनगारगणाऽऽनता घ्रिः । जह्वेरसागरगणीश्वरपट्टदीप, आनन्दसागरगुरुजयतात् स सूरिः ॥२४॥ . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारकाऽऽचार्यश्री-आनन्दसागरसूरीश्वर स्तुत्यष्टकम् । जयन्तु सरिराजास्ते सार्वशासनमण्डनाः । आगमोद्धारकाः पूज्या आचार्याऽऽनन्दसागराः ॥१॥ वाचनासुगमत्वार्थ नियुक्ति-वृत्तिभूषिताः । सूत्रज्ञैरागमाः सर्वे यैः संशोध्य प्रकाशिताः ॥२॥ यैः सद्भि®नसाहित्य-सेवाऽर्पिताऽऽत्मजीवनः । प्राच्याः परःशता मन्था विशोध्य प्रकटीकृताः ॥३॥ मुनीनां श्रुतबोधाय पत्तनादिपुरेषु यैः । पाण्मासिक्यः शुभाः सप्त दत्ता आगमवाचनाः ॥४॥ तलाटिकायां सिद्धाद्रे-स्तथा सूरतबन्दिरे । जाते यदुपदेशेन रम्ये आगममन्दिरे - ॥५॥ भोपावराऽभिधं तीर्थ मालवाऽवनिमण्डनम् । येभ्यः प्रसिद्धिमापन्नं श्रीशान्तिजिनभूपितम् ॥६॥ प्रबुद्धो मालवे येभ्यो दिलीपसिंहभूपतिः ।। प्रावर्त्तयत् स्वग्रामेष्व-मारि पर्युषणादिषु ॥७॥ यैररादिवि शिकावृत्तिः श्रीपञ्चसूत्रवार्तिकम् । तथा कर्मार्थसूत्र चे-त्यादिग्रन्था विनिर्मिताः ॥८॥ जिनबिम्बप्रतिष्ठादि-कृत्यान्येवं विधाय ये । ऋतुखद्धयहस्ताब्दे सूर्ययुरे दिवं गताः ॥९॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-गुरुदेव विरहवेदनागर्भस्तुत्यष्टकम्। येनोद्धता निखिलआगम आदरण, दत्ता जिनेश्वरवराऽऽगमवाचना च । तं भूपमौलिमणिचचिंतपादपद्म मानन्दसागरगुरुं प्रणतः स्तुवेऽहम् ॥१॥ ताम्रांङ्कितागमसुमन्दिरमण्डितेऽस्मिन् , श्रीसरते गुरूपदारबुजनश्चरीके । शारीरिकी शिथिलतां समवाप्य धीमान, . ... वर्षाणि किश्चिदुपश्चान्तमना उवास ॥२॥ तत्रापि लक्षपरतो विरचय्य माथाः . .. सज्ज्ञानमक्तिमतुलां नितरां चकार । एतादृशं विमलसंयमिनं सुबुद्धया, ::.: स्तोतुं मनो मवति कस्य न भव्यहाटे ? ॥३॥ मुक्त्वा समग्रममतां श्रुतपारदृश्या,. ... ... वृत्ता समाधिमतुलां वरमामयोग्याम् । पद्मासने शुचिमनाः प्रणिधाय देवं - शृण्वन् नमस्कृतिमुघोषमियाय नाकम् ॥४॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीपुरीयवरनिम्बसमाभये स चठ्ठीवक्रमे पडधिके द्विसहस्रवर्षे । राधेऽसिते शरतिथौ शनितर्ययामे, सूरीश्वरोऽस्तमितवान् जिनशासनार्कः ॥५॥ नव्या सुवर्णशिखरां शिबिकां वहद्भिः, श्रीखण्डचन्दनचितां प्रविधाय रम्याम् । मध्येपुरं ! दहनकर्मकृतं सहस्रै ___राचर्यरूममनधैर्गुरुभक्तवृन्दैः ॥६॥ गीतार्थसार्थपरिपूजितपादपद्म ।, कारुण्यसागर ! गुणाकर ! सौम्यदृष्टे ! कस्मै वदामि मम दुःखमर ? निरीह ! दृष्टिं पारसमयों 'मधुरां विधेहि ॥७॥ सूरीश ! दुःखकलितान कलिकालमारा कान्तान विहाय सहसा व गतोऽसि ! नाथ ! । अस्मान शरण्यरहितान् किमुपेक्षसे त्वं? ... हा हन्त ! हन्त ! शरणं कमनुव्रजामः १ ॥८॥ सिदाचले रूचिरागमचैत्यराजि- .. ... .: न्येष्ठाष्टमीसितदिने बिसहस्रषट्के । आनन्दसागरसूरीधरपादरेणुः, सूर्योदयो व्यरचयत् वरवालशिष्यः ॥९॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ आगमोद्धारक - स्तवः । प्रणेता - प्राध्यापके। हीरालालः जात: वंशे धर्मसंस्कृते । ( कापडियेत्युपाह्नः श्रीयुतर सिकदासात्मजः ) कर्पटवाणिज्ये यो अग्रजेोऽनुसुता येन दीक्षावर्त्मनि यौवने ॥१॥ शास्त्राभ्यासः कृतोऽनल्पः स्वयं गुरौं दिवंगते । यस्याभूत् 'सूरि' पदमहोत्सवः ||२|| आगमानां च येोऽग्रणीः । सूर्य पुरेऽत्र अददाद् वाचना नैका देशनासु सभां गूढ - प्रश्नोत्तरैररञ्जयत् ||३|| निरभिमानिनेो यस्य शासनेऽनुपमा रतिः । अस्थापयन्नाना - शास्त्रबाधाय यो यमी ॥४॥ संस्था शिलासु ताम्रपत्रेषु चालेखयद् य आगमान् । आगमेोद्वारकाभिख्या यस्य दिगन्तविस्तृता ||५|| जैनगीतादिकान् ग्रन्थान् यो जग्रन्थ गिरात्रिके । शाब्दिकस्तार्किकः शास्त्र - संशोधन क्रियाद्यतः ||६|| स्मृतिशक्तिर्विकस्वरा | स्थविरत्वेऽपि यस्यासीत् समाधिमरणाकाङ्क्षी धीरेरा व्याधिभरे सुधीः ॥७॥ त्यक्त्वा मोह शरीरेऽपि निर्वाणमधुनाऽगमत् । सार्वशासनहीरं तं स्तुवे आनन्दसागरम् ॥८॥ कुलकम् (1) अभिख्या = बिरुदम् । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णस्तुतयः । सुशमिनां येनेोद्धता आगमा योऽदत्तागमवा चनाः यश्वारोहितवान् श्रुतान् वरशिला - सत्ताम्रपत्रेषु वै । ग्रन्था येन परःशताः विरचित । यस्याऽमलः संयमः श्री आनन्दप्रयेोनिधिर्विजयते पूज्य: स सूरीश्वरः || १ || यो दादागमवाचना: प्रशमिनां येनेोद्धता आगमा ज्ञानं यस्य समग्र शास्त्रविषय चारित्रमत्युज्वलम् । । यो राजप्रतिबोधकृद् मुनिवरः सद्धर्मदेष्टा सदा श्री आनन्दपयोनिधिर्विजयते नित्यं स सूरीश्वरः ||२|| 'दत्ता येन शमेशिना मुनिगणायाप्तागमानां श्रुतिः सच्छास्रो प्रतिकर्मठः स्थितिकृते शैलेषु ताम्रेषु च । सिद्धाद्वौ सुरते च चैत्ययुगले या राहयच्चागमान् सिद्धये स्वान् नृपबेोधनेो मुनिपतिः सूरीश आनन्दयुक् || ३ || आगमोद्धारकर्तार ध्यानस्थ - स्वर्गत: नौमि शैलाणेशप्रबेाधकम् । सूरिमानन्दसागरम् ||४॥ सिद्धान्तसत्तत्ववित् योदादागमवाचनाः शमभृवां सच्छास्त्रोद्धतिकर्मठ; स्थितिकृते शैलेषु ताम्रेषु च । सिद्धाद्रौ सुरते च चैत्ययुगलेऽध्यारोहयच्चागमात् आनन्दान्धिगुरु स्तुवे सुविदितं प्रान्ते समाधिस्थितम् ||५|| विद्वद्वृन्दमनोज्ञकाव्यततिभिर्य: स्तूयते सर्वदा भूपेन्द्रप्रतिबोधको गुरुमतिः सिद्धान्तपारगमी । व्याख्याने च विचक्षणः शुभगुणैर्विख्यातकीर्तिः सुधीरानन्दाब्धिमुनीश्वर गणपति वन्दे महाज्ञानिनम् ॥ ६ ॥ i Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - २ णमो तित्थस्स अनन्ततीर्थ करगणधरादिसमलङ्कृताय परमपावनाय सकलतीर्थसार्वभौमाय तीर्थाधिराजाय श्री सिद्धगिरिभगवते नमो नमः श्री सिद्धाचळतीर्थ की तलहटी में संस्थापित भव्य श्रीवर्धमान जैन आगममंदिर की अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के निमित्त श्रीसंघ निमंत्रणपत्रिका आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिम तीर्थ नाथ च ऋषभस्वामिनं स्तुमः || १ || भव्याः भक्तिभरान्तराः शुचिगिरो धर्मोल्लसद्दीप्तयस्त्रैलेाक्या ङ्गिनिकायपावनकर सेवध्वमेत गिरिम् । कोटीपश्चकस वृताय ददिवान श्रीपुण्डरीकाय यः कैवल्यान्वित मोक्षमादि जिनयुग् शश्वच्छ्रियां धारकः ||२|| शश्वत्सौख्य निधानदाननिपुण शक्रादिसङ्घार्चित श्रीमद् गौतममुख्य मुख्यमुनिपेध्वाऽर्पितं मुक्तये । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ श्रीसवाय सदा सदागमवरं ज्ञानादिरत्नाकरमालोक्यागममन्दिरे शुचिधियः सन्तु प्रसन्नाः सदा ||३|| अर्हन्तो मगवन्त इद्वगुणदाः सिद्धाः सदाचारिण आचार्या वरपाठकाः श्रुतधरा मोक्षोद्यताः साधवः । ज्ञान चरणैस्तपोभिरुदिता सेव्येयमाप्तोदिता शश्वत्सौख्यकरी पदावलिरिह श्रीसिद्धचक्राश्रिता जिणबिंबपइटुं जे करति तह कारर्वेति भत्तीए । अणुमन्नंति पइदिणं सव्वे सुहभाइणेो हुति दव्वं तमेव मन्ने जिबिंब पट्टणाहकजेसु । जं लग्गई त सहलं दुग्गइजणणं हवइ सेसं योsदादागमवाचना प्रशमिनां येनाद्धृता आगमा ज्ञानं यस्य सम्यशास्त्रविषयं चारित्रमत्युज्ज्वलम् । यो राजप्रतिवाद मुनिवरः सद्धर्मदेष्टा सदा श्री आनन्द पयोनिधिर्विनयते नित्यं स सूरीश्वरः 11811 11411 ॥६॥ 11911 स्वस्ति श्री परमपावन मंगलकारी सर्व तीर्थकर भगवानों तथा परमतरणतारण जैनागमको नमस्कार करके श्री जिनचत्य - उपाश्रयादि धर्मस्थानों से विभूषित महाशुभस्थाने. देवगुरुभक्ति कारक नमस्कार महामंत्र स्मारक सर्वज्ञ शासनोपासक, श्रमणोपासक श्रीमान् श्रेष्ठवर्य आदि संघसमस्त येाग्य श्री पालीताना नगर से श्री वर्धमान जैन आगम दिए संस्था का सादर प्रणाम स्वीकृत हो । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ यहाँ तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी की शीतल छाया तथा देवगुरुधर्म के प्रभाव से आनंद मंगल है और आप श्री संघ के भी आनंद मंगल की कामना करते हैं। विशेष में सविनय निवेदन है कि हमारे परम पुण्योदय से परमपूज्य आराध्यपाद, आगमवाचना दाता, जैनागमपारदृष्टा, सकलागमग्रन्थादि अनेक ग्रंथ संदर्भ संशोधक, सिद्धप्रभाव्याकरणादि अनेक ग्रन्थ रचयिता, श्री जैन शासन संरक्षणैकबद्धलक्ष्या आगमोदय समित्यादि अनेक संस्था संस्थापक, शैलाना नरेशप्रतिबोधक, आगमोद्धारक, प्रातः स्मरणीय, आचार्यदेव श्रीमद् आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब की अपूर्व आगम भक्ति तथा तीर्थ भक्ति किसी को अविदित नहीं है। शासन प्रभावनामय उपदेशामृत से भावित हुए सुश्रावकवर्ग ने, जिस के कांकड कंकड पर अनन्त सिद्ध गति को प्राप्त हुए ऐसे परम पुनीत श्री सिद्धाचल तीर्थाधिराज की तलहटी में श्री वर्धमान जैन आगमम ंदिर संस्था स्थापित की है, और उस में उनके उपदेश से ही अभूतपूर्व ज्ञान - दर्शन - चारित्र के प्रतीक स्वरूप 'श्री सिद्धचक्र गणधर मंदिर' तथा 'श्री भ्रमणसंघ पुस्तक संग्रह' का निर्माण किया गया है । परम तारक परम पूज्य आचार्य देव 'हा अणाहा कहीं हुंता न हुतो जो जिणागमेा' – यदि जिनेश्वर भगवान् का आगम न होता तो हाय ! हम जैसे अनाथों का क्या होता १- - इस पद का निरंतर स्मरण करते हुए सकल आगम को संगमरमर की शिलाओं में Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कीर्ण करवा कर परमपावन जैनागमों का चिरकाल संरक्षित कर के श्री जैनागमों की अविच्छिन्नता चाहते थे। यह भावना सं. १९९३ में जामनगर के चातुर्मास में अंकुरित हुई और आखिर वे श्री चतुर्विध संघ के साथ यहाँ यात्रार्थ पधारे । सं. १९९४ की बैशाख वदी (उत्तर में जेठ वदी) दशमी के दिन श्री गिरिराज की तलहटी में उनकी भावना के अंकुर स्वरूप खात मुहुर्त हुआ। परम पूज्य आचार्य देव की आगमपरिणत देशना से अत्यल्प समय में ही सकल जैनागमों को संगमरमर की शिला में उत्कीर्ण करनेवालों तथा मुख्य मंदिर, चार दिशाओं के चार मदिर, परिक्रमा की चालीस देहरिया, अरिहतादि की प्रतिमाएँ तथा मंडल सहित श्री सिद्धचक्र मंदिर, सगणघर तीर्थंकरों के मूर्तिपट्ट तैयार करनेवालों के पुनीत नामों की सूचि बन गई और बहुत ही थोड़े समय में मंदिर, देहरिया, सिद्ध चक्र गणधर मंदिरादि सब भव्य प्रकार से बनकर तैयार हो गये हैं। उपर्युक्त भव्य मंदिरों में मुख्य मंदिर में शाश्वत चार तीर्थकर परमात्माओं के चौमुख बिंब तथा श्री सिद्धचक्र गणधर मंदिरमें अरिहंतादि पंचपरमेष्ठि की मूर्तिया तथा गणधर-मूर्तियोंवाले पट्टोंमें ऋषभदेवादि चौबीस तीर्थकर तथा आगमों का पुस्तकारूढ करनेवाले श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक के आचार्यों के पट्ट में श्री सुधर्मास्वाभीजी की प्रतिमा स्थापित करनी है । उक्त जिनबिबादि की अंजनशलाका शास्त्रीय विधिविधान से भव्य महोत्सवपूर्वक करवाने का निर्णय किया है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहोत्सव के मंगलकारी महामुहूर्त ...: माघ सुदी १० रविवार ता. १४-२-४३ जलयात्रा का जलूस । माघ सुदी ११ सोमवार ता. १५-२-४३ मडप-स्थापन, मंडप में प्रभु का पधराना, कुभ स्थापना, दीप स्थापना, जवारारोपणादि । ... माघ सुदी १२ मंगलवार ता. १६-२-४३ नंदावर्त, नवग्रह, दशदिपाल, अष्ट मंगल, अधिष्ठायकदेवपूजन । माघ सुदी १३ (प्रथम) बुधवार ता. १७-२-४३ शासनाधिष्ठायक विद्यादेवी तथा , इन्द्राद्याह्वान, सिद्धचक्र मंदिर में सिद्धचक्र पूजन, विंशति-स्थानक पूजन । माघ सुदी १३ (द्वितीय) गुरु ता. १८-२-४३ च्यवन कल्याणक महोत्सव का जलूस । . ...... माघ सुदी १४ शुक्र ता. १९-२-४३ जन्म कल्याणक दिक् कुमारिका महोत्सव, इन्द्रों द्वारा मेरुगिरि पर किया गया जन्मोत्सव आदि । ...... . .. ... . .. ... ।। माघ सुदी १५ शनि ता. २०-२-१३ प्रभुजी का नाम स्थापन, विवाह मंडप, पाणि ग्रहण, राज्याभिषेक, अट्ठारह : अभिषेक ध्वजादडपूजन, कलशपूजन, दीक्षा कल्याणक का जलूस, वार्षिक दान, दीक्षा-महोत्सव। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · माघ वदी १ रवि ता. २१-२-४३ शांति विधान, दीक्षा ग्रहण के बाद की अवशिष्ट क्रियाएँ, अधिवासना आदि आदि । माघ वदी २ सोम ता. २२-२-४३ केवल ज्ञान कल्याणक तथा शुभ लग्न में अंजनशलाका आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री भानंदसागरसूरिजी के बरद हस्तों से होगी। केवल ज्ञान का जलूस, समवसरण, मोक्षकल्याणक, बृहदभिषेक। __माघ वदी ३ मंगल, ता. २३-२-४३ अष्टोत्तरी स्नात्र महोत्सव । माघ वदी ४ बुध, ता. २४-२-१३ चैत्याभिषेक। माघ वदी ५ गुरु, ता. २५-२-४३ प्रभुजी का गद्दी पर विराजमान करना तथा भव्य बृहत् शांति-स्नात्र । . ___ माघ वदी ६ शुक्र २६-२-४३ द्वारोदघाटन, सत्रहभेदीपूजा, आदि। ...... ---- - . . . भब आप पूज्य श्री संघ से हमारा विनयपूर्वक नम्र निवेदन है कि आप उपर्युक्त अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव आदि मांगलिक प्रसंगों पर उपस्थित रह कर महोत्सव का लाभ लेते हुए हमारे आनन्द एवं शासनशोभा की अभिवृद्धि कीजिएगा। - यहाँ पधारने से सम्यादर्शनादि रत्नत्रयी . के . कारणभूत परम पावन तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय गिरि के दर्शन पूजन के लाभ के साथ साथ यहाँ बिराजमान तथा यहाँ महोत्सव में पधारनेवाले पूज्य भाचार्य महाराजाओं तथा उपाध्यायजी महाराजाओं, पन्यासजी Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजाओं तथा मुनिमहाराजाओं तथा साध्वीजी महाराजाभों के दर्शन एवं भक्ति का लाभ भी प्राप्त होगा। अतः आप इस प्रसंग पर अवश्य उपस्थित हो ऐसा सादर अनुरोध है। वीर संवत् २४६९ विक्रम संवत् १९९९ पौष सुदी ११ - रविवार ता. १७-१-४३ श्री आगममंदिर संस्था सिद्ध क्षेत्र पालीताना - भवदीय, श्री संघचरणोपासक, श्री वर्धमान जैन आगम . मंदिर के ट्रस्टीगण संघवी नगरसेठ पोपटलाल धारशीमाई (अध्यक्ष) संघवी सेठ चुनीलाल लक्ष्मीचंदभाई, जामनगर दोशी अमृतलाल कालीदास वीरजीभाई, जामनगर सवेरी सेठ जमनादास. मोनजीभाई, जामनगर सेठ लालजीभाई हरजीभाई, जामनगर है. मगनभाई रमणिकलाल सेठ माणेकलाल चुनीलाल जे. पी. अहमदाबाद झवेरी शांतिचंद छगनभाई सूरत संघवी सेठ नगीनदास करमचंद, पाटन सेठ गिरधरलाल छोटालाल अहमदाबाद J सेठ सवेरचंद पन्नाजी, बुहारी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो तित्थस्स भासन्नोपकारिसाम्प्रतीयशासनाधिपतिश्रमण-भगवच्छी बर्बमानस्वामिने नमः। श्री सूर्यपुर गोपीपुरामध्ये श्रीवर्धमान जैन ताम्रपत्र आगममंदिर के प्रतिष्ठा-महोत्सव के निमित्त . . श्रीसंघ-निमंत्रणपत्रिका यो मेरु समचालयअनिमहे क्रीडाक्षणेऽहेठयद्, वैताल विदुष तु पाठनपटु न्यथं समासूत्रयत् । आश्चर्योदधिमग्नमिद्धममरीभाव निनायोग, यस्तीर्थ प्रणिनाय मोक्षसुखद वीरः श्रिये वः सदा ॥१॥ आदौ देवाचले यो हरितत्तिभिरभिस्नापि (क्षालि) तो जन्मकाले देवैः कृप्तश्च व शा नरपतिपदवी प्रार्थितां लोकन्दैः।। चक्रे देवाधिपादिर्जनपदनयन योऽकरोल्लोकसाम्ने । वृत्तो जैनेन्द्रभावे शिवपदमगमत्स श्रियेऽस्त्वादिदेवः ॥ २॥ आदेयनामधर आईतवृन्दपूज्यस्तीर्थानि यस्य च बहुनि जगज्जनेषु। नागेन्द्रराजरचितप्रवरप्रभावः सेोऽस्तु श्रिये भवभृतो भुवि पाश्वनाथः।। जिनागमानां जितरागमाना स्तुत्योद्गमानां स्तुतिराप्तमाना। जीयाद्यथा सिद्धगिरौ च सूर्य-पुरे शिलाताम्रपटे जिनौकसी ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . अर्हन्तः सुरनाथपूजितपदाः सिद्धाश्च सिद्धिं गताः । आचार्या जिनशासनानतिपराः पाठोधता वाचकाः। अङ्गानां निपुणाच संयमभृतौ पूज्या मुनीनां गणाः तत्सर्व विदितं भवेधृदि यदि स्यादागमानां मतिः ॥ रम्यैषा गुर्जरत्रा जिनपतिभवनैः साधुभिः सज्जनाच्यः, श्राद्धस्तीर्थादिभक्तः शुभतरकरुणैः पात्रपोषकदक्षैः । यावत्सा क्रोडभागे धरति गुणगणाधारवेलाकुल तु तापी तापापहारप्रगुणमहपद पत्तनं सूर्य नाम ॥ दत्ता येन शमेशिना मुनिगणायाऽऽसागमानां श्रुतिः, सिद्धाद्रौ सुरते च चेत्ययुगलेऽध्यारोहयचागमान । सच्छास्त्रोद्धतिकर्मठः स्थितिकृते शैलेषु तानेषु च । सिद्धयै स्तान्नृपबोधनो मुनिपतिः सूरीश आनन्दयुक् ॥ ___स्वस्ति श्री परमपावन मंगलकारी सुरासुरेन्द्रपूजित सर्व तीर्थकर भगवानों को तथा परम सारभूत जैनागम को नमस्कार करके श्री जिनचैत्य उपाश्रयादि अनेक धर्मस्थान विभूषित महाशुभ स्थाने........ ......देवगुरु भक्तिकारक नमस्कार महामंत्र स्मारक, सर्वज्ञ शासन रसिक श्रमणोपासक श्रीमान् श्रेष्ठिवर्य......आदि संघ समस्त योग्य श्री सूर्यपुर (सूरत) से. श्री आगमोद्धारक संस्था का सादर प्रणाम स्वीकृत हो। Ft. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अत्र श्री देवगुरु धर्म के प्रसाद से आनंद मंगल है, आप श्री संघ के भी आनंद मंगल की कामना करते हैं । विशेष में सविनय निवेदन है कि हमारे श्री संघ के परम पुण्योदय से प. पू. भाराध्यपाद गणधर - श्रुत - स्थविर गुम्फित भागम सिद्धान्तादि अनेक अमुद्रित ग्रंथ संशोधक, श्री जैन शासन साम्राज्य संरक्षणैक बद्धलक्ष्य, श्री तीर्थाधिराज सिद्धक्षेत्र में श्री वर्धमान जैनागम मंदिर संस्थापक, आगमोदय समिति, दे० ला ० पु० फंड इत्यादि अनेक सुधर्म संस्थाओं के संस्थापक, प्रथम शिले।त्कीर्ण- -ताम्रपत्रारूढ आगम-प्रार भक, वर्तमान श्रुत के ज्ञाता, आगम दिवाकर, आगमाद्धारक, प्रातः स्मरणीय आचार्यदेवेश श्रीमद् आनन्दसागर सुरीश्वरजी महाराज की अपूर्व भागम साहित्य सेवा तथा वीतराग प्रवचन तीर्थं भक्ति जनेतरों में सुविख्यात है । जिनके अमृतमय उपदेश सींचन से सकल संघ निरंतर पल्लवित होता ही जाता है, उन पूज्यश्री का श्री संघ पर निरुपम उपकार है । उनके उपदेश से और हम पर उपकार की स्मृतिरूप में श्री आगमोद्धारक संस्था स्थापित हुई है । तथा श्री संघ से प्राप्त आर्थिक आदि विविध अचिंतित सहयोग से अत्यल्प समय में ज्ञान, दर्शन, चारित्र के प्रतीक रूप एक. गगनचुम्बी, तीन मंजिलवाला श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्र आगममन्दिर निमित हुआ है जिसमें एक भव्य भूमिगर्भ भाग, बीच में विशाल मूळ मंदिर और उसके ऊपर एक मंजिल है । . • Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिगर्भ भाग में मूलनायक जी पार्श्वनाथ भगवान की सहस्रफनों वाली श्याम प्रतिमाजी बिराजमान होंगी। वहीं पर रंग मंडप में दोनों ओर संग मरमर के सिद्धचक्र मंडल विराजमान किये जाएँगे। मूल गर्भगृह में चरम तीर्थपति श्री महावीर प्रभु की भव्याकृति मूर्ति बिराजमान की जाएगी। सर्वोच्च मंजिल पर मूलनायकजी श्री आदीश्वर भगवान् की मूर्ति बिराजमान होगी। रंगमंडपों में समवसरण तथा गोखों में भगवान के बिंब बिराजमान किये जाएँगे । दीवारों पर पैतालीसों आगमों के ताम्रपत्र सुन्दर चेनल में फिट करके चिपकाये जाएगे । संवत् १९९९ के वर्ष में अनन्त तीर्थंकरों, गणधरों भादि से परम पवित्र हुए सिद्धक्षेत्र में जिनकी अंजनशलाका हुई उनमें से १२० जिन-बिंब लाकर हमने अलग मकान में विराजमान किये हैं; उन जिन-बिंबोंका शास्त्रोक्त विधि-विधान के साथ भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव करनेका निर्णय किया है । : महा महोत्सव के मंगलकारी महामुहूर्त : पौष वदी १० बुधवार ता. ४-२-४८ सुबह कुंभ स्थापना, तथा प्रभुजीका प्रवेश, दीपस्थापना और जवारा स्थापना। पौष वदी ११ गुरुवार ता. ५-२-४८ जलयात्रा विधि । पौष वदी १२ शुक्रवार ता. ६-२-४८ नवाणु प्रकारी पूजा। . पौष वदी १२ (द्वितीय) शनिवार ता. ७-३-४८ ग्रहपूजन, दशदिक्पाल । पूजन, अष्ट मंगल पूजन तथा नन्दावर्त पूजन ।। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુર पौष वदी १३ सोमवार ता. ८-२-४८ अट्ठारहे अभिषेक | पौष वदी १४ सोमवार ता. ९-२-४८ पंचकल्याणक पूजा । पौष वदी अमावस्या मंगलवार ता. १०-२-४८ पैंतालीस M भागम-पूजा | धूमैन 1 माघ सुदी १ बुधवार ता. ११-२-४८ ध्वजादंड कलश पूजन, तथा यक्ष-यक्षिणी पूजन | पूजन, माघ सुदी २ गुरुवार ता. १२-२-४८ प्रतिष्ठा, तथा पीठ - माघ सुदी ३ शुक्रवार ता. १३-२-४८ प्रतिष्ठा - गद्दी पर 957070 प्रभुजी को बिराजमान किया जाएगा तथा बृहत्स्नात्र, रातको वृष्टि तथा विसर्जन । माघ सुदी ४ शनिवार ता. १४-२-४८ उद्घाटन । आप श्री संघ की सेवा में हमारा नम्र निवेदन है कि आप इस परम पवित्र प्रतिष्ठा महोत्सव आदि के मांगलिक प्रसंगों पर उपस्थित रह कर लाभ लेते हुए हमारे श्री संघ के आनन्द में एवं शासनकी शोभा के कार्यों में अभिवृद्धि कीजिएगा । i यहाँ पधारने से सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयी के कारणभूत स्थावर तीर्थरूप जिनमंदिर के दर्शन तथा जंगम तीर्थरूप आचार्य भगवानों Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा अन्य मुनिवरों, पू. श्री साध्वी महाराजादि के दर्शन और भक्ति का लाभ प्राप्त होगा। अतः ऐसे महापुण्योदय से किसी समय प्राप्त होनेवाले प्रसंग पर उपस्थित रहने की सादर बिनती है। । । " वीर संवत् २४७४ विक्रम संवत् २००४ पौष सुदी ६ शनिवार ता. १७-१-४८ श्री आगमोद्धारक - संस्था गोपीपुरा, सूरत भवदीय ... संघचरणकमलोपासक मोतीचंद गुलाबचंद झवेरी किशनदास लल्लूभाई बखारिया : रायच'द गुलाबचंद अच्छारीवाला अमरचंद मूलचंद झवेरी . ठाकोरभाई. दयाचंद मलजी : झवेरचंद पन्नाजी बुहारीबाला मोतीचंद कस्तूरचंद चोकसी पानाचंद साकेरचंद मद्रासी शांतिच'द छगनभाई झवेरी. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ३ पूज्यपाद आगमोद्धारक श्रीजी के चातुर्मासों तथा विशिष्ट प्रसंगो की रूपरेखा वि सं १९४७ में सौराष्ट्र के लिंबडी गाँव में पूज्यवर्य श्री झवेरसागरजी महाराजश्री के वरद हस्तों से दीक्षा और वहीँ चातुर्मास । वि. सं. १९४८ पूज्य गुरुदेवका स्वर्गारोहण और अहमदाबाद में चातुर्मास । वि. सं. १९४९ उदयपुर (मेवाड़) में चातुर्मास - श्री आलमचंदजी के पास विद्याध्ययन, शेषकाल में ग्राम्यप्रदेश में बिहार । वि. सं. १९५० पाली में चातुर्मास और ठाणांग सूत्रका सभा में वाचन । स्थानकवासियों का पराभव, अमूर्तिपूजकों के आक्रमण से मूर्तिपूजकों की रक्षा | वि. सं. १९५१ सोजत ( राजस्थान) में चातुर्मास, अपूर्व धर्मजागृति, धर्म के बीज सुदृढ बनाये । वि. सं. १९५२ पेटलाद में मुनिराज जीवविजयजी महाराज (पूर्वावस्था में पिताजी ) की सेवा और उनका स्वर्गारोहण | संवत्सरी महापर्व की शास्त्रीय परंपरा के आधार पर संघसहित आराधना, तपस्वियों को सेठ मनसुखभाई भगुभाई की ओर से सुवर्ण की अंगूठी की प्रभावना | Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ वि. सं. १९५३ छाणी गाँव में चातुर्मास, न्याय शास्त्रोंका अध्ययन, सैद्धान्तिक अध्ययन । वि. सं. १९५४ पार्श्वचन्द्र गच्छ तथा जैनेतर आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ, कलोल में स्थानकवासियों के साथ शास्त्रार्थ, विजयोल्लास - पूर्वक खंभात में चातुर्मास । वि. सं. १९५५ साणंद में चातुर्मास और प्रभावना । वि. सं. १९५६ अहमदाबाद में चातुर्मास । वि. सं. १९५७ पुनः अहमदाबाद में चातुर्मास, देशनाओं (उपदेशों) का प्रचार, व्याख्यान में लोगोंकी भीड़, बहुतों का धर्म-मार्ग पर प्रयाण । वि. सं. १९५८ अहमदाबाद में चातुर्मास । पाटन का भीषण दुष्काल । पूज्यश्री के उपदेश से 'दुष्काल राहत निधि' में अपूर्व धनवर्षा । वि. सं. १९५९ भावनगर में चातुर्मास, अनेक आत्माओं को देशविरति आदि में लगाया । वि. सं. १९६० अहमदाबाद में योगोद्वहन की क्रियाओंके साथ शास्त्रीय विधिपूर्वक गणीपद और पंन्यासपद की प्राप्ति । वहीं चातुर्मास तथा साहित्य-सेवा अथवा श्रुत-भक्ति का विशिष्ट प्रारंभ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. १९६१ पेथापुर में प्रान्तीय परिषद् में ओजस्वी व्याख्यान, और कपडवंज में चातुर्मास । व्याख्यान के कारण अनेक आत्माओं में चारित्र की भावना जगी । वि. सं. १९६२ भावनगर में चातुर्मास । वि. सं. १९६३ सूरत में अपूर्व चातुर्मास, धर्मदेशना में अपूर्व जागृति, भक्ति और भावना की बाढ -उसके परिणाम स्वरूप - वि. सं. १९६४ सूरत में भव्य नगर - यात्रा - जिन मंदिरों में चतुर्विध संघ के साथ यात्रा | सेठ श्री देवचंद लालभाई पुस्तकोद्वार फंड की स्थापना । शिखरजी पर्वत की पवित्रता के लिए आन्दोलन, सम्पूर्ण शिखरजी पहाड़ को खरीदना । बंबई लालबाग में चिरस्मरणीय चातुर्मास । वि. सं १९६५ बंबई से झवेरी अभयचंद स्वरूपचंद की ओर से अंतरिक्षजी तीर्थका छह 'री' पालते हुए संघ | अंतरिक्षजी में दिगम्बरों के बंगल पर विजय, न्यायालय ने पूज्य श्री की निर्दोषिता घोषित की। यूरोपीय न्यायाधीश भी पूज्य श्री के भक्त बने । येवला (महाराष्ट्र) में चातुर्मास और उपधान । 1 वि. सं. १९६६ सूरत में चातुर्मास, उपधान तप की आराधना अपूर्व जागृति । बि. सं. १९६७ सूरत में चातुर्मास । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. १९६८ सूरत में जैन तत्त्व बोध पाठशाला' की स्थापना । खंभात में चातुर्मास । वि. सं. १९६९ छाणी में चातुर्मास । व्याख्यान के द्वारा अनेक आत्माओं की भावना संयम मार्ग की ओर । वि. सं. १९७० पाटन में चातुर्मास, दुष्काल राहत में पूज्य श्री _ के उपदेश के कारण दानवीरों द्वारा विपुल दान । वि. सं. १९७१ श्री भीलडियाजी तीर्थका छह 'री' पालते हुए संघ । वहाँ से भोयणीजी तीर्थ की स्पर्शना, वहाँ पर आगमों के मुद्रणार्थ माघ सुदी १० को समिति की स्थापना। आगम सेवा का प्रारंभ-पूर्व की आगम-वाचनाओं की स्मृति करा दे ऐसी आगमवाचना नंबर १ (प्रथम) पाटन में और वहीं चातुर्मास । वि. सं. १९७२ कपडवंज में आगमवाचना नं २, अहमदाबाद में चातुर्मास और आगमवाचना नं ३ । वि. सं. १९७३ अहमदाबाद में 'श्री राजनगर जैन धार्मिक हरिफाई . परीक्षा' नामक संस्था की स्थापना । सूरत में दो आगम वाचनाएँ-(नं ४ और ५) तथा चातुर्मास । .. वि. सं. १९७४ सूरत संघ में कई वर्षों से चले आते हुए वैमनस्य के बीजों का उच्छेदन, संघ में पूर्ण एकता। अपूर्व उत्साहके Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ आचार्य पद-प्रदान । बंबई म चातुर्मास । अपमे उपदेशों द्वारा दुष्काल राहत निधि को धन से छलका देना। वि. सं. १९७५ आचार्य पद पर आरूढ होने के बाद का सूरत में प्रथम चातुर्मास । श्री जैनानंद पुस्तकालय की स्थापना, उपधान तप, चार मुनिवरोंको गणीपद प्रदान। वि. सं. १९७६ पूज्यश्री के उपदेश से माघ वदी (शास्त्रीय फाल्गुन ... वदी) ८ को पूज्यश्री के नेतृत्व में जीवनचंद नवलचंद झवेरी की ओर से सूरत से सिद्धगिरिका छह 'री' पालते संघ । पालीताना म चातुर्मास और भागमवाचना नं ६ तथा उपधान । वि. सं. १९७७ रतलाम में आगमवाचना नं ७; मालवदेश में विहरण, शैलाना नरेश को प्रतिबोध । शैलाना में चातुर्मास, राज्य में अमारि प्रतह की घोषणा । वि. सि. १९७८ रतलाम में चातुर्मास, जिन मंदिर आदि धार्मिक - संस्थाओं का कारोबार सुचारु रूप से चलाने के लिए 'सेठ ऋषभदेवजी केशरीमलजी' की स्थापना । उपधान तप की आराधना। वि. सं. १९७९ भोपावर तीर्थका उद्धार, मांडवगढ सीर्थका स्टेट (रियासत) के साथ समाधान, पंचेड तथा सेमलिया नगर के Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाकुर को प्रतिबोध । त्रिस्तुतिकों के साथ शास्त्रार्थ और विजय । रतलाम में चातुर्मास । वि. सं. १९८० बंग देशकी ओर विहार । कलकत्ते में चातुर्मास, ... उपाश्रय, ज्ञान,-मंदिर, हिन्दी साहित्य प्रकाशन आदि कार्यों के लिए उपदेश द्वारा विशाल निधि । वि. सं. १९८१ पवित्र कल्याणक भूमियों की स्पर्शना, अजीमगज में चातुर्मास । अपूर्व शासन प्रभावना, बाबू परिवार में धर्म जागृति, जैन हिन्दी साहित्य के लाभार्थ फंड । वि. सं. १९८२ सादडी में चातुर्मास, पोरवाल संघका समाधान । शेषकाल में दिगंबरों तथा तेरापंथियों से शास्त्रार्थ और उन · पर विजय । उपधान तप की आराधना । वि. सं. १९८३ दिगंबरों के उत्पात के बीच श्री केशरीयाजी तीर्थ ... में ध्वजदंड आरोपण, प्रतिष्ठा । उदयपुर में चातुर्मास । धर्म जागृति के लिए 'श्री जैनामृत समिति' नामक संस्था की स्थापना । .... . वि. सं. १९८४ श्री तारंगाजी तीर्थ में उद्यान में स्थित देवकुलिका में माघ वदी (शास्त्रीय-फाल्गुन वदी) ५ को श्री अजितनाथ भगवानकी पादुका की प्रतिष्ठा । अहमदाबाद में चातुर्मास । सेठ माणिकलाल मनसुख भाई की ओर से अपूर्व रीति से Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ओली की आराधना, पैंतालीस आगमों के महातप की आराधना । श्रावकों में धर्म भावना एवं विरति भावना जागृत और स्थिर हो, इस हेतु से 'देशविरति धर्म आराधक समाज' नामक संस्थाकी स्थापना । वि. सं. १९८५ पूज्य श्री के वरद करकमलों से उद्यापन महोत्सव एवं योगोद्ववन करवाकर मुनिराज श्री माणिक्य सागरजी महाराज को गणीपद, पंन्यास पद तथा भोयणी तीर्थ में उपाध्याय पद अर्पण । शत्रुजय तीर्थ की यात्रा-रक्षा के लिए लाखों रुपयों का फंड । शत्रंजय पर्वत की तलहटी में नवपदजी की ओलीका विशाल सामूहिक आराधन। जामनगर में चातुर्मास । अनेक तपों की आराधना । वि. सं. १९८६ पूज्यश्री की देखरेख में अनेक आत्माओं ने सूरत में सामूहिक रूप से नवपद की महा आराधना की । श्री रत्नसागरजी जैन विद्याशाला का स्थायी फंड, तथा सेठ नगीनभाई मंछुभाई जैन साहित्योद्वारक फंड' नामक संस्थाकी स्थापना । 'नवपद आराधक समाज' 'दि यंगमेन्स जैन सोसायटी' और 'देशविरति धर्म भाराधक समाज' इन तीनों संस्थाओं का विशाल सम्मेलन । खंभात में चातुर्मास । बि. सं. १९८५ पूज्यनी के उपदेश और मार्गदर्शन से अहमदाबाद में विशाल 'जैन साहित्य प्रदर्शन' ! अहमदाबाद में चातुर्मास । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. स. १९८८ बबई में चातुर्मास, धर्म के प्रचार और ज्ञानार्थ सिद्ध यक साहित्य प्रचारक समिति' नामक संस्था की स्थापना । पुण्यात्माओं द्वारा तप की आराधना कराई। वि. स. १९८९ सूरत में चातुर्मास, शास्त्रीय परंपरानुसार संवत्सरी की सकल संघ से बाराधना करवाई । आराधक आत्माओं से उपधान तप की आराधना करवाई। वि. सं. १९९० अहमदाबाद में जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के मुनि सम्मेलन को अपूर्व कार्यवाही द्वारा सफल बनाया। बगदा राज्य द्वारा बनाये गये 'बाल संन्यास-दीक्षा-प्रतिबंधक' नामक अन्यायी कानूनका मुँहतोड मुकाबला । मेहसाना में चातुर्मास । ब्राउन द्वारा आगमधर की प्रशंसा। . वि. सं. १९९१ जामनगर में सेठ पोपटलाल धारशीभाई के द्वारा भव्य उद्यापन महोत्सव और देशविरति आराधक समाजका अधिवेशन । पालीताना में चातुर्मास । भाराधकों को उपधान तप की आराधना कराई। वि. सं. १९९२ पालीताना में वैशाख सुदी ४ के दिन उपाध्याय श्री माणिक्य सागरजी गणी आदि चार सुयोग्य मुनिवरों को आचार्य ... पर प्रदान । उसी रोज आचार्य-पदारूढ हुए आचार्यदेव श्री माणिक्यसागर सूरीश्वरजी की स्वप पर स्थापना की । जामनगर में श्री लक्ष्मी आश्रम तथा श्री जैनाचंद शान मंदिर ...... .. की स्थापना । नामनगर में चातुर्मास- श्री संघ को शास्त्रीय ... परंपरानुसार संवत्सरी पर्वका भारापन कराया। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. १९९३ जामनगर में 'देव' बाग' उपाश्रय का निर्माण । सेठ चुनीकाल लक्ष्मीचंदभाई के द्वारा भव्य उद्यापन और चातुर्मास, आय बिल शाला एवं भोजनशाला की स्थापना । शास्त्रीय परंपरा के अनुसार श्री संघ को संवत्सरी पर्व की आराधमा करवाई। वि. सं. १९९४ पूज्यश्री के उपदेश से संघवी पोपटलाल धारशीभाई तथा चुनीलाल लक्ष्मीचंदभाई की ओर से श्री शत्रुजय तथा गिरनारजी आदि तीर्थो का छह 'री' पालते (पैदल) संघ । श्री सिद्धगिरिराज की पवित्र तराई में 'श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर' का प्रारंभ हुआ, और खात मुहुर्त प्रसंग पर प्रथम रु. २५००० देकर सूरत निवासी छगनभाई फूलचंद के सुपुत्र शांतिचंद झवेरी ने १७,... का मंदिर और १०,००० का भागम लिखाया, संगमरमर की चट्टानों पर आगम खुदवाने का प्रारंभ, हुआ। पालीताना में चातुर्मास । उपधान तप की भव्य आराधना कराई। वि. सं. १९९५ पूज्यश्री के उपदेश से श्राद्धवर्य श्री मोहनलाल छोटालालने अहमदाबाद में पूज्य श्री की देखरेख में भव्य स्मरणीय उद्यापन करवाया अहमदाबाद में चातुर्मास, पालीताना में श्रमण संघ पुस्तक संग्रह' नामक ज्ञान-प्याऊ की स्थापना । वि. सं. १९९६ अहमदाबाद में गणी श्री क्षमासागरजी महाराज को . पंन्यास पद अर्पण । पालीताना में चातुर्मास । उपधान तप की बाराधना कराई। वि. सं. पालीताना में पंन्यासजी श्री क्षमासागरजी गणीका उपाध्याय पद तथा चन्द्रसागरजी को गणी और पंन्यास पद प्रदान । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ सिद्धचक गणधर मंदिरका आरंभ। पालीताना में चातुर्मास । उपधान तप की आराधना कराई । वि. सं. १९९८ पालीताना में चातुर्मास, आगम मंदिर के कार्य एवं आगमों के कार्य में अधिक वेग । उपधान तप की आराधना कराई वि.स. १९९९ पालीताना में भव्यातिभव्य अंजनशलाका-प्रतिष्ठा उत्सव, द्विसहस्राधिक जिनबिंबों की माघ वदी (शास्त्रीय - फाल्गुन वदी ) २ के दिन अंजनशलाका | माघ वदी ५ के दिन श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर में जिनबिंबों तथा गणधर - बिंबों की मंगलमय प्रतिष्ठा । कपड़बज में नवपदजी की ओली की सामूहिक आराधना । देशविरति धर्म आराधक समाज का पूज्यश्री की देखरेख में सम्मेलन हुआ। कपड़वज में चातुर्मास, मुनि हेमसागरजी को गणी और पंन्यास पद प्रदान । वि. स ं. २००० सुरत में सामूहिक शहर जिन मंदिर यात्रा । बंबई में चातुर्मास । जैन श्वेतांबर कॉन्फरन्स के जैन धर्म : विघातक उपद्रवी प्रस्तावों का सख्त मुकाबला | पुण्यात्माओं में धर्मजागृति । वि. सं. २००१ सूरत में चातुर्मास और धर्म- जागृति । वि. स. २००२ सूरत में श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी पाठशाला की स्थापना | श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्र आगम मंदिर के कार्य के लिए 'श्री आगमोद्धारक संस्था' की स्थापना । बाजीपुरा गाँव में प्रतिष्ठा और सूरत में चातुर्मास । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बि. सं. २००३ श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्र आगम मंदिर का प्रारंभ सूरत में चातुर्मास । भारत - पाकिस्तान विभाजन के समय आपत्ति में पड़े हुए श्रावकों के उत्थान के लिए फंड 1 वि. सं. २००४ श्री वर्धमान जैन ताम्रपत्र आगममंदिर में माघ सुदी ३ के दिन १२० तीर्थकर - प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा । सूरत में चातुर्मास । श्री संघ को शास्त्रीय परंपरानुसार संवत्सरी महापर्व का आराधन कराया । वि. स. २००५ क्षीण जंघाबल के कारण सूरत में स्थिरता, चातुर्मास । ज्ञानध्यान में विशेष जागरूकता । श्री जैन पुस्तक प्रचारक संस्था की स्थापना । वि. सं. २००६ सूरत में आराधना | 'आराधना मार्ग' नामक ग्रन्थ - अन्तिम ग्रन्थ - की अपूर्व रचना | वैशाख शुक्ला पंचमी की रात्रि से अर्ध पद्मासन मुद्रा में सम्पूर्ण मौन के साथ कायोत्सर्ग का प्रारंभ । वैशाख वदी (शास्त्रीय जेठ वदी) पंचमी शनिवार तृतीय प्रहर की चार घडी के बाद अमृत चौघडिये में पचहत्तर वर्ष की अवस्था में उनसठ वर्ष का दीक्षा - पर्याय पालकर अपने पट्टधर शान्तमूर्ति आचार्यदेव श्री माणिक्यसागर सूरीश्वरजी महाराज आदि चतुर्विध संबंध के मुख से श्री नमस्कार महामंत्र का श्रवण करते हुए स्वर्गारोहण । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास-सूचि १ १९४७ लींबडी २ १९४९ उदयपुर ३ १९८३ उदयपुर ४ १९५० पाली ५ १९५१ सोजत ६ १९५२ पेटलाद ७ १९५३ छाणी ८ १९६९ छाणी ९ १९५४ खंभात १० १९६८ खंभात ११ १९८६ खंभात १२.१९५५ साणंद १३ १९५९ भावनगर १४ १९६२ भावनगर १५ १९६५ येवला १६ १९७७ शैलाना १७ १९७८ रतलाम १८ १९७९ रतलाम १९ १९८० कलकत्ता २० १९८१ भजीमगंज २१ १९८२ सादडी २२ १९८५ मामनगर २३ १९९२ मामनगर २४ ११९३ जामनगर २५ १९६१ कपडवंज २६ १९९९ कपडर्वज २७ १९७० पाटन २८ १९७१ पाटन २९ १९४८ अहमदाबाद ३० १९५६ अहमदाबाद ३१ १९५७ अहमदाबाद ३२ १९५८ अहमदाबाद ३३ १९६० अहमदाबाद ३४ १९७२ अहमदाबाद ३५ १९८४ अहमदाबाद ३६ १९८७ अहमदाबाद ३७. १९९५- अहमदाबाद २८ ३८ १९९० मेहसाना . - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ १९६४ बम्बई ४० १९७४ बम्बई ४१ १९८८ बम्बई ४२ २००० बम्बई : ४३ १९७६ पालीताना ४४ १९९१ पालीताना ४५ १९९४ पालीताना ४६ १९९६ पालीताना ४७ १९९७ पालीताना ४८ १९९८ पालीताना ४९ १९६३ सूरत | ५० १९६६ सूरत ५१ १९६७ सूरत ५२ १९७३ सूरत ५३ १९७५ सूरत ५४ १९८९ सूरत ५५ २००१ सूरत ५६. २००२ सूरत ५७ २००३ सूरत ५८ २००४ सूरत ५९ २००५ सूरत स्थान (अ) पूज्य श्री के पतित पावन तत्त्वावधान में सूत्र के पठन पाठन की शास्त्रीय योग्यता की प्राप्ति के लिए कराये गये उपधान-तप : संवत् स्थान संवत् १ येवला. १९६५८ बंबई १९८८ २ सूरत १९६६ ९ सूरत १९८९ ३ सूरत १९७५ १० पालीताना १९९१ ४ सिद्धगिरिजी १९७६ ११ पालीताना १९९४ ५ रतलाम १९७८ १२ पालीताना. १९९६ ६ रतलाम १३ पालीताना १९९७ ७ सादडी १९८२.. १४ पालीताना १९९८ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आ) पूज्य श्री के उपदेश से स्थापित विशिष्ट संस्थाए, ज्ञानमंदिर, उपाश्रय आदि : विक्रम संवत् १९६४ सेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकाद्वार फंड सूरत वि. स. १९६८ श्री जैन तत्वबोध पाठशाला सूरत वि. सं. १९७१ श्री आगमोदय समिति भायणी वि. सं. १९७३ श्री राजनगर जैन श्वे. मू. धार्मिक इनामी • परीक्षा अहमदाबाद वि. सं. १९७५ श्री जैनानन्द पुस्तकालय सूरत वि. सं. १९७७ श्री ऋषमदेव केशरीमलजी की पेढ़ी रतलाम वि. सं. १९७४ शैलाना (मालवा) जैन उपाश्रय शैलाना वि. सं. १९८. श्री जैन श्वे. मू. सपगच्छ उपाश्रय. . ९६, केनींग स्ट्रीट, कलकत्ता . सं. १९८० श्री विनयमणि जीवन ज्ञान मंदिर कलकत्ता ___ सं. १९८१ श्री हिन्दी जैन साहित्य प्रचारक फंड अजीमगज वि. सं. १९८३. श्री जैनामृत समिति . . . उदयपुर __सं. १९८४ श्री नवपद आराधक समाज - अहमदाबाद वि. सं. १९८५ श्री वर्धमान तप आय विल-भवन जामनगर ___. १९८६ श्री नगोनभाई मंछुभाई जैन साहित्याद्धारक फंड सूरत वि. स, १९८८ श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति बंबई स. १९९२ श्री जैन आनन्द-ज्ञानमन्दिर जामनगर __स. २००२ श्री आगमाद्धारक-सस्था ...... सूरत वि. स. २००२ श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी पाठशाला सूरत वि. स. २००५ श्री जैन पुस्तक प्रचारक संस्था :12 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक - रचित कृतिसदाह १ अचित्ताहारक द्वात्रि शिका २ अधिगम-सम्यक्त्वैकादशी ३ अध्यक्षोपयोगिता-घोडशिका ४ अनंतार्थाष्टक ५ अनानुगामिकावधिविचार ६ अनुकरण संचय याने सदनुकरण . अनुक्रस-पंचदशिका ८ भनेकांतवाद विचार ९ अपूर्वचतुर्वि शिका याने जिन- वर स्तुति १० अभव्यनवक याने भव्या २० आगममहिमा स्तव २१ आगम समिति स्थापना स्तव २२ आगम सुगमतास्तव २३ आगमाधिकार षटत्रि शिका २४ आगमार्थ प्राधान्य स्तव २५ आचेलक्य २६ अभिहिकानाभोग-मिथ्यास्त्र याने मिथ्यात्व विचार २७ आप्तस्तुतिवृत्ति अपूर्ण २८ आराधना मार्ग २९ भात्रिभेदी विचार याने आर्यानार्य विचार ३० आर्य रक्षित याने अनुयोग पृथक्त्व ३१ ईडरनगर-शान्तिनाथस्तव ३२ इर्या-द्वापंचाशिका २३ इर्यापण परिशिष्ट ३४ इपिथिका निर्णय ३५ उत्सर्पणार्थ विचार ३६ उत्सूत्र भाषण फल याने उत्सूत्र भाषण विमर्श भव्यप्रश्न " अमृतसागर-चरित्र १२ अमृतसागर-तीर्थ यात्रा १३ अमृतसागर-स्तव १४ अमृतसागर-स्तुति १५ अर्हच्छतक १६ अष्टकबिंदु १७ अंगपुरुष-पंचविंशतिका १८ भागममदिर-चतुर्षिशतिका १९ आगममहिमा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ ३७ उद्यम-पंचदशिका ३८ उद्यापन विचार ३९ उपदेश ४० उपकार-द्वादशिका थाने उप कार विचार ४१ उपदेश-मशति यामे यति धमेपिदेश ४२ कर्मग्रंथसूत्राणि ४३ कर्मफल विचार ४४ कल्पस्त्र विवेचन (सामानिक ४५ केवलीभुक्ति (अपूर्ण) ४६ केशरियाजी वर्णन ४७ (धूलेबामडन) केशरियाजी वर्णन ४८ केशरियाजी स्तुति-पंचदशिका ४९ क्रियाद्वात्रिंशिका ५० कियास्थान वर्णन ५१ क्षमा-विंशतिका ५२ क्षायिकभव-संख्या विचार ५३ क्षायोपरामिक भागविचार याने क्षायोपमिक भाव ५४ गणधरसार्धशतक दर्पण - ५५ गर्भापहार सिद्धिषोडशिका ५६ गद्य कृत्य विचार ५७ गुणग्रहणशतक ५८ गुरुमाहात्म्य ५९ चान्दनिकी षोडशिका ६. चैत्यद्रध्योत्सर्पण (अपूर्ण) ६१ जमालिमत खंडन - ६२ जयसाम सिक्खा (अपूर्ण) ६३ जिनमहिमा ६४ जिनस्तुति ६५ जिनस्तुति ६६ जिनस्तुति ६७ जीवसिद्धि यामे पापमोति ६८ जैन-गीता ६९ जैन पुस्तकांडागार स्तव ७. जैनपूर्णत्वाष्टदशिका ७१ जैनेन्द्रस्तुति ७२ ज्ञातपर्युषणा ७३ ज्ञानपथावली ७४ ज्ञानपंचविंशतिका ७५ ज्ञानभेद-वोडषिका ७६ तत्वार्थ परिशिष्ट ७७ तात्विक-प्रश्नोत्तराणि Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ तार गाजितनाथस्तवः | ९६ धर्मतत्व विचार । ७९ तिथिदर्पण ९७ घर्म देशना (अपूर्ण) ८० तिथिपट्टक ९८ धर्मास्तिकायादि विचार ८१ तीर्थ माला (अपूर्ण) ९९ धर्मोपदेश ८२ त्रयीतत्व द्वादशिका १०. नक्षत्रभोगादि ८३ त्रिपदी-पंचषष्टिका १०१ नग्नाटशिक्षा शतक ८४ दयाविमर्श १०२ नविचार ८५ दानादिधर्म विचार याने १०३ नयविचार-द्वात्रि शिका दानधर्म १०४ नयषोडशिका ८६ दिगंबर-मतनिराश १०५ नयानुयोगाष्टक . ८७ दुष्प्रतिकार विचार ---- १०६ नरतत्व व्याख्यान (अपूर्ण) ८८ दुःखवर्जन-षोडशिका याने । १०७ निक्षेपशतक . . भिक्षा-बोंडशिका १०८ निर्जरादि ८९ दृष्टांत तत्व चतुर्विशतिका | १.९ निर्याण याने निर्याण विचार याने सम्यक्त्वज्ञातानि ११० निषकादशिकयाने निषया ९. देवद्रव्य विचार याने देव . विचार द्रव्य द्वात्रिंशिका १११ निसर्गदशी ९१ देवस्तुति निर्णय याने देवता ११२ न्यायपद्धति स्तुति निर्णय ११३ न्यायावतार दीपिका ९१ द्रव्यबोध-त्रयोदशी ११४ पद्मनाभस्तव ९३ दृष्टिन मोह विचार ११५ परमाणु-पंचविंशतिका ९४ द्वेषजयदादशिका ११६ पर्युषणा-चत्वारिं शिका याने ९५ धनार्जन-षोडशिका पर्युषणारूपम् Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ ११७ पर्युषणा-परावृत्ति १३६ प्रमाणप्रमेय विचार ११८ पर्युषणा-प्रभा (अपूर्ण) १३७ फलप्राप्तिरीति ११९ पर्वतिथि-प्रकरण १३८ बुद्धिगुण समुच्चओ १२० पर्वतिथि-सूत्राणि १३९ मध्यमसिद्धिप्रभा व्याकरण १२१ पर्वतिथि-सूत्राणि १४० महानिशीथ लघु अवनि १२२ पर्वविधान (अपूर्ण) १४१ महाव्रत विचार १२३ पर्षदिकल्पवाचन याने पर्षकल्पवाचन १४२ मंगल-प्रकरण १२४ पंचसूत्र तावतार १४३ मंगल-विचार १२५ पंचसूत्रवार्तिक १४४ मंगलादि विचार १२६ पंचसूत्री १४५ मासकल्पसिद्धि १२७ पंचासरा पार्श्वनाथस्तव १४६ मूर्तिमीमांसा १२८ पुरुषार्थ-जिज्ञासा १४७ मूर्तिस्थापना १२९ पोसीनापार्श्वनाथस्तव १४८ मोक्ष-पंचविंशतिका १३० पौषध कर्तव्यता निर्णय याने १४९ मौनषट्त्रिं शिका पौषध परामर्श १५. यज्ञे हिंसाविचार १३१ प्रकीर्णक-पथावली १५१ यथाभद्रक-धर्मसिद्धि १३२ प्रज्ञप्तपद-द्वात्रि शिका - १५२ रात्रिभोजन परिहार १५३ रात्रौ चैत्यगमन १३३ प्रतिदिवस-प्रतिनियतार्थ विचारणादि याने पौषध १५४ लघुतम नामकोष विमर्श १५५ लघुसिद्ध प्रभाब्याकरण १३४ प्रतिमापूजा-द्वात्रि शिका | १५६ लुपक कौटिल्य १३५ प्रतिमा-शतक टिप्पण (अपूर्ण) | १५७ लोकवार्ता समुच्चय Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ लोकाचार १७८ शिक्षाक्रम १५९ लोकोत्तर तत्व-द्वात्रिंशिका १७९ शिष्ट क्रिया याने शिष्टविचार १६० लोपकपाटिशिक्षा १८. शिष्य निष्फेटिका स्वरूप याने १६१ वर्तमान तीर्थ स्तव शिष्य निष्फेटिका . १६२ वर्धापनिका १८१ शिष्य-शतकादि याने श्रुतस्तुति १६३ विधिविचार १८२ श्रमणधर्म सहस्रो १६४ विवाहचर्या याने विवाह विचार १८३ श्रमण-श्राद्धदिनचर्या (अपूर्ण) १६५ विंशवि शिका दीपिका । १८४ धमणा भगवान् महावीरः भाग १ (प्रस्तावनावि शिका)। १८५ श्रावण-षट्कृस्य वर्णन १६६ वि शवि शिका दीपिका भा-२ १८६ श्रुतशील-चतुर्भगी १६७ विशवि शिका दीपिका भा-३ १८७ षोडशकालाक (देो षोडशक १६८ वीतरागत्व विरोध-समाधान १६९ वीरदेशना १८८ सचूल धर्माष्टक याने चारित्र धर्माष्टक १७. वीर विवाह विचार -- १८९ सत्संग वर्णन १७१ वेसमाहप्प १९. सद्धर्माष्टक १७२ व्यवहारपंचक १९१ समवसरण यंत्रक १७३ व्यवहारसिद्धि-पत्रिं शिका १९२ समीपार्श्वनाथस्तव १७४ व्यवहाराव्यवहारराशि १९३ सम्यक्त्वमेद तत्वाष्टत्रिशिक याने व्यवहार राशि याने सम्यक्त्वभेद विचार १७५ शमस्वरूप-पंचाशिका याने । १९४ सम्यक्त्वमेद निर्णय थाने शमनिर्णय सम्यक्त्वमेद १७६ शरण-चतुष्क १९५ सम्यक्त्व-पोडशिका १७७ शास्त्र वार्ता परिशिष्ट १९६ संघाचार Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ संहननानि | २१२ स्तवनादि गुर्जरादि पद्य १९८ सल्लक्षणानि साहित्य १९९ सामायिकर्यास्थान निर्णय २१३ त्रीपूजा निर्णय २०० सांवत्सरिक निर्णय २१४ स्थापनार्चाद्वात्रि शिका २.१ सिद्धगिरि महिमा याने प्रतिमापूजा २०२ सिदगिरिराजाष्टक २१५ स्थापना विचार याने प्रतिमाष्टक २०३ सिद्धगिरिस्तव २०४ सिद्धप्रभा व्याकरण २१६ स्थापनासिद्धि याने २०५ सिद्धांभृत व्याख्या (अपूर्ण) गुरुस्थापनाविधि २०६ सिद्धषट्त्रिं शिका २१७ स्थापनासिद्धि-पष्टिका याने २०७ सियवाओ (अपूर्ण) प्रतिमा पूजासिद्धि २०८ सुखदुःख वेदन २१८ स्थापनासिद्धि-पोशिका . २०९ सूतक निर्णय पंचविंशतिका २१९ स्याद्वादद्वात्रिंशिका २१. सूर्योदय सिद्धांत याने २२. हरिभद्गरि समयदीपिका सूर्योदय विचार २२१ हिंसकत्वाहिंसकत्वे याने २११ सौख्य-षोडशिका अहिंसाविचार आगमोद्धारक-कृतिसन्दोह (मुद्रित ) १ तात्त्विक-विमर्श ४ पर्युषणा परावृत्तिः २ पर्षत्कल्प-वाचनम् ५ अन्यवहार राशि: ३ अधिगम-सम्यक्त्वम् - ६ संहननम् . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ क्षायोपशमिक भावः ८ मईच्छतकम् - ९ उद्यम-पंचदशिका .. १. क्रिया-द्वात्रिंशिका । अनुक्रम-पंचदशिका ३२ क्षमा-विंशतिका १३ अहिंसा विचार १४ माघेलक्यम् १५ उपकार विचारः १६ मिथ्यात्व विचार १७ उत्सूत्र भाषण विमर्श १८ ज्ञान-पंचविंशतिका १९ इपिथिका-निर्णय २० सामायिकर्यास्थान-निर्णय २१ इर्यापथपरिशिष्टम् २२ श्रुतशील-चतुर्भगी २३ चैत्यद्रव्योत्सर्पणम् २४ देवायभंजकशिक्षा २५ उत्सर्प शब्दार्थ विचारः २६ देवनिर्याणमार्ग २७ अचित्ताहार द्वात्रिीशिका २८ पौषध परामर्श २९ पौषध परामर्श । ३० श्रमणो भगवान् महावीरः ३१ श्रीवीरविवाहविचार ३२ सल्लक्षणानि ३३ पर्युषणाप्रभा ३४ इर्या-द्वापचाधिका ३५ जयसेाम-सिक्खा ३६ दुष्प्रतिकार विचारः ३७ श्रमणधर्म सहस्रो ३८ सिद्धगिरिस्तवः ३९ मंगलादिविचारः ४० नयविचारः ४१ नय-पोडशिका ४२ निक्षेप-शतकम् ४३ लोकोत्तर तत्वद्वात्रिं शिका ४४ व्यवहार सिद्धि पत्रिंशिका ४५ कर्म फल-विचारः ४६ परमाणु-पंचविंशतिका ४७ भव्याभव्य प्रश्नः ४८ अष्टक-बिदुः ४९ स्याद्वाद-द्वात्रि शिका ५० अनंतार्थाष्टकम् ५१ पर्वविधानम् | ५२ सूर्योदयसिद्धांतः Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ सांवत्सरिक निर्णयः ५४ पर्युषणा रूपम् ५. सात पर्युषणा ५६ श्रुतस्तुतिः ५७ ज्ञानमेद-पोडशिका ५८ अनाजुगामुकावधिः ५९ प्रज्ञप्तपद-द्वात्रि शिका ६० अनुयोग पृथकूत्वम् ६१ निषद्या विचारः ६२ सम्यक्त्व-षोडशिका . ६३ सम्यक्त्व भेद विचार ६४ सम्यक्त्व मेदाः . ६५ सम्यक्त्वज्ञातानि ६६ क्षायिक भवसंख्याविचारः ६७ शम निर्णयः ६८ प्रतिमापूजा-द्वात्रि शिका ६९ प्रतिमापूजा ७० प्रतिमापूजासिद्धि ७१ प्रतिमाष्टकम् ७२ जिनवरनुतिः ७३ देवद्रव्य-द्वात्रि शिका ७४ रात्रिचैत्यगमनम् । ७५ देवतास्तुति निर्णयः ७६ गुरुस्थापनासिद्धिः ७७ दानधर्मः .. ७८ यथाभद्रकपर्म सिद्धि ७९ धर्मोपदेशः ८० समूलचारित्र धर्माष्टकम् ८१ मौन-पत्रि शिका ८१ भिक्षा-पोडशका ८३ मासकरूपसिद्धिः ८४ वैसमाहप्प ८५ शिष्य निष्फेटिका ८६ क्रियास्थानवर्णनम् ८७ सदनुकरणम् ८८ शरण-चतुष्कम् ८९ मोक्ष-पंचविंशतिको ९. आर्यानार्य विचारः ९१ व्यवहार-पंचकम् ९२ लोकाचारः ९३ गुणग्रहण-शतकम् ९४ या कृत्यम् .. . ९५ धमाजनषोडशिका : .... ९६ -सूतकनिर्णय-पंचविंशतिका ९७ वर्धापनानि Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ९८ सत्संगवर्णनम् १२१ गिरनार-चतुर्विशतिका ९९ शिष्ट विचारः . १२२ गणधरपट्ट-द्वात्रिंशिका १०० विवाद विचारः १२३ भनेकान्त वाद विचारः १.१ पापभीतिः .... १२४ अमृतसागर-गुणवर्णनम् . १०२ रात्रिभोजन- परिहार: १२५ अमृतसागर-कृततीर्थ यात्रा १०३ पंचासर-पाश्वनाथस्तवः १२६ अमृतसागर-स्तुत्यष्टकम् १०४ जिनस्तुतिः १२७ अमृतसागर-स्तवः १०५ जिनस्तुतिः १२८ पंचसूत्रतावतारः १०६ इडरनग-शान्तिनाथस्तवः १२९ पंचसूत्री१०७ पंचसूत्रवार्तिकम् १३० पुरुषार्थ-जिज्ञासा १०८ जैन-गीता १३१ कर्मार्थः (कर्मग्रन्थसूत्राणि) १०९ आगम-महिमा १३२ पर्वविध्यानुष्ठानम् ११. मुनिवसन सिद्धिः १३३ तिथ्युपनिषद् १११ श्रमण दिनचर्या ११२ जिनमहिमा १३४ वाद-विवरणम् ११३ कर्म साम्राज्यम् १३५ तिथिदर्पणम् ११४ गर्भापहारसिद्धि-पोडशिका १३६ युगमासतिथ्यादि विचारः ११५ नग्नाटशिक्षा-शतकम् १३७ पर्वतिथिः ११६ त्रिपी-पंचसप्ततिका १३८ तात्विक-प्रश्नोत्तराणि ११७ गणधरसार्ध शतकसमालोचमा १३९ न्यायावतार-टीका ११८ तीर्थ पंचाशिका १४० लोक-विशिका खंड १-२ ११९ विद्य-पत्रिंशिका १४१ अधिकार-विंशिकानी टीका १२० सिद्धगिरि-पंचविंशतिका | १४२ भागमधिकार-पत्रिं शिका Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ आगमस्तवः । १५५ अमालिमत खंडनम् . १४४ आगममदिर-चतुर्विशतिका १५६ धर्म तत्व विचारः .. १४५ अंगपुरुष-पंचविंशतिका १५७ सिद्धचक्रम दिर-द्वात्रिंशिका १४६ द्वेषजय-द्वादशिका १५८ श्री बैनपुस्तकभाण्डागारस्तव १४७. आगममहिमस्तवः १५९ दृष्टिसमेाह विचारः १४८ आगमसुगमतास्तवः १६. विधिविचार . १४९ आगमसमिति स्थापनास्तव: १६१ लोपकपाटी शिक्षा १५. भागमार्थ प्राधान्यस्तवः १६२ नयानुयोगाष्टकम् १५१ जनपूर्णत्वाष्टादशिका १६३ चान्दनिकी-षोडशिका १५२ द्रव्यबोधत्रयोदशी १६४ आराधना मार्ग १५३ सौख्य-पोडशिका १६५ स्थापनासिद्धि १५४ धर्मास्तिकायादि विचारः । १६६ मूर्तिस्थापनम् श्री आगमोद्धारकरी संपादित ग्रंथ-मुचि प्रताकारे १ भाचारांग चूर्णि ५ आचारांग सूत्र भाम २ २ आचारांग सूत्र भाग १.. नयी आवृत्ति .. ३ आचासंग सुत्र भाग २ . . ६ सूत्रकृतांग चूर्णि ४ आचारांग सूत्र भाग १ ७ सूत्रहतांग सूत्र नयी आवृत्ति ... | स्थानांग सूत्र भाग , . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ स्थानांग सूत्र भाग २ १० समवायांग सूत्र ११ भगवती सूत्र भाग १ १२ भगवती सूत्र भाग २ १३ भयवती सूत्र भाग ३ १४ भगवती सूत्र भाग १ नयो भावृत्ति द्वि. आ. १५ भगवती सत्र भाग २ नयी भावृत्ति द्वि. आ. १६ भगवती सत्र भाग ३ ___नयी भावृत्ति द्वि. भा. १७ भगवती सूत्र दानशेखरसूरि १८ ज्ञाताधर्म कथा १९ उपासक दशांग - २० मंतकृत्दशा-नूत्तरोपपातिक दशांग विपाक २१ प्रश्न व्याकरण २२ अंगाकारादि विषयानुक्रम २३ उपांग-प्रकीर्णक विषयानुक्रम २४ औपपातिक सूत्र २५ राजप्रश्नीय सूत्र २६ जीवाभिगमोपांग सूत्र २७ प्रज्ञापनोपांग सूत्र भाग २८ प्रज्ञापनोपांग सूत्र भाग २ २९ प्रज्ञापनोपांग सूत्र ३० सूर्य प्रज्ञप्ति ३१ जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति माग १ ३२ जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति भाग २ ३३ तंदुलवैयालिक चतुःशरण ३४ चतुशरणादि प्रकीर्णक दशांक ३५ गच्छाचार प्रकीर्णक ३६ कल्पसूत्र वारसा ३७ कल्पसूत्र वृत्ति ३८ कल्पसूत्र वृत्ति ३९ कल्पसूत्र वृत्ति ४० कल्पकौमुदी ४१ कल्प समर्थन ४२ आवश्यक चूर्णि भाग १ ४३ आवश्यक चर्णि भाग २ ४४ मावश्यक सूत्र भाग १ ४५ आवश्यक सूत्र भाग २ ४६ आवश्यक सूत्र भाग ३ ४७ मावश्यक सूत्र भाग ४ ४८ भावश्यक सूत्र भाग , मन्यगिरिजी । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ आवश्यक सूत्र भाग २ घलयगिरिजी ५० आवश्यक सूत्र भाग ३ मलय गिरिजी ५१ षडावश्यकसुत्राणि ५२ पाक्षिक सूत्र ५३ विशेषावश्यक भाग १ ५४ विशेषावश्यक भाग १ ५५ विशेषावश्यक गाथानामकारादि ५६ आधनियुक्ति ५७ दशवकालिक चूर्णि ५८ दशकालिक सूत्र ५९ पिंडनियुक्ति ६० उत्तराध्ययनानि चूर्णि ६१ उत्तराध्ययन सूत्र भाग १ शांतिसूरि ६२ उत्तराध्ययन सूत्र भाग २ शांतिसूरि ६३ उत्तराध्ययन सूत्र भाग ३ शांतिसूरि ६४ नंदीसूत्र चूणि टीका, ६५ नदीसूत्र ६६ नंवादिगाायकारादि ---- ६७ अनुयोगद्वाराणि चूर्णि टोका ६८ अनुयोगद्वार सूत्र भाग .. ६९ अनुयोगहार सूत्र भाग २ ७० अनुयोगद्वार सूत्र ७१ आगमीयसक्तापल्यादि ७२ अध्यात्ममत परीक्षा ७३ अध्यात्मकल्पगुम ७४ भाचारप्रदीप ७५ ईयोपथिकी भादि ७६ उत्पादादिसिद्धि ७७ उपदेश माला ७८ उपदेश माला ७९ उपमितिभवप्रपंचकया भाग १ ८. उपमितिभवप्रपंचया भाग २ ८१ ऋषिभाषितसूत्राणि ८२ कथा कोष ८३ कर्मग्रंथ भाग १ ८४ कर्म भाग १ ८५ कर्म प्रकृति ८६ कृष्ण चरित्र ८७ गुणस्थानकक्रमारोह Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ छ दानुशासन ८९ जल्पकल्पलता ९. जीवसमास प्रकरण ९१ ज्योतिष्करंडक प्रकीर्णक ९२ तत्त्वतरंगिणी ९३ तत्त्वार्थ सूत्र ९४ तत्त्वार्थ सूत्र ९५ तिथि हानि वृद्धि विचार ९६ त्रिषष्टीयदेशनादिसंग्रह ९५ त्रैवियगोष्ठी ९८ देववंदन भाष्य ९९ धर्म कल्पद्रुम १०० धर्म बिन्दु १०१ धर्म परीक्षा कथा १०२ धर्मसंग्रह भाग . . १०३ धर्मसंग्रह भाग २ १०४ भवपद प्रकरण १.५ नवपद प्रकरण १०६ नमस्कार माहात्म्ब १०७ नवस्मरणानि गौतमरास... क्षामणाकुलकम् १०८ पंचवस्तुक प्रय १.९ पंचसंग्रह ११० पंचाशकाकारादिक्रम १११ पंचाशकाकारादि मल ११२ पंचाशक ११३ पंचाशक ११४ पयरणस दाह ११५ परिणाम माला ११६ परिणाम माला ११७ पर्युषणा दशशतक ११८ पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान ११९ प्रकरण समुच्चय १२० प्रत्याख्यानादि १२१ प्रवचन परीक्षा भाग . १२२ प्रवचन परीक्षा भाग २ १२३ प्रवचन सारोद्धार भाग १ १२४ प्रवचन सारोद्धार भाग २ १२५ प्रव्रज्याविधान कुलक. १२६ प्रशमरति प्रकरण १२७ सेनप्रश्न १२८ बुद्धिसागर १२९ भवभावना भाग १ १३. भवभावना भाग २ १३. भवभावना छाया - १३३ मध्यमसिद्धप्रभा व्याकरण . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ मलयासुदरी चरित्र । १५४ श्रीपाल चरित्र संस्कृत १३४ महावीर चरियम् १५५ श्रावक धर्म देशना । १३५ यतिदिनचर्या १५६ श्रेणिक चरित्र १३६ यशोविजयजी कृत ग्रंथमाला १५७ षट्पुरुष चरित्र १३७ युक्तिप्रबोध १५८ षोडशक प्रकरण. ... १३८ ललितविस्तरा १५९ संसर्ग गुणदोषप्रकाश १३९ ललितविस्तरा १६० संस्कृत प्राचीन प्रकरणादि १४० लेोकप्रकाश भाग १ १६१ सम्यक्त्व परीक्षा उपदेशशतक १४. लोकप्रकाश भाग २ १६२ सवासा आदि स्तवना १४२ लोकप्रकाश भाग ३ १४३ लेोकप्रकाश भाग ४ १६३ साधर्मिकवात्सल्यप्रकाश १४४ वदारवृत्ति १६४ सामाचारी प्रकरण १४५ दारवृत्ति १६५ सिद्धप्रभा व्याकरण । १४६ विचासमृतसार संग्रह १६६ सिद्धसेनदिवाकरकृतग्रंथमाला १७ बिचारामृतसार संग्रह १६७ सूक्तमुक्तावली १४८ वीतराग स्तोत्र १६८ सुबोधा समाचारी ৩৮ হাজার १६९ स्तोत्ररत्नाकर भाग, १५. श्राददिनकृत्य भाग १ १५० स्थूलभद्र चरित्र १५. श्राद्धदिनकृत्य भाग २ १७१ स्याद्वाद भाषा १५१ श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्र . १७२ स्वाध्यायप्रकाश १५३ श्रीपाक चरित्र प्राकृत . । १७३ हिंसाष्टकादि । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ पू० आगमोद्धारकश्री द्वारा वर्गीकृत आगमिक ५३ विषय आगमों की महत्ता समझने वाले विद्वानों की दृष्टि में आगम तथा उन के आधार पर रचित प्रौढ़ कृतियाँ सर्वस्व के समान हैं । उन्हें आगमों का अन्यान्य दृष्टिकोण से अवलोकन करने की इच्छा होना स्वाभाविक है । पूज्यश्री ने आगमिक साहित्य सम्बन्धी निम्नलिखित ५३ विषयों पर विचार कर सुव्यवस्थित ढंग से लिखा है : - १ विषयोंका विस्तृत अनुक्रम २ अधिकारों का ( विषयेांका) संक्षिप्त अनुक्रम ३ विशेष उपयोगी ४ विशिष्टताएँ " साक्षीभूत अवतरणका अकार दिकम ६ वाद ७ लक्षण तथा दूषण ८ विशेष नाम ९ इतिहास १० भूगोल ११ ज्योतिष १२ ग्रन्थकार के समय में प्रचलित मत १३ व्याकरण १४ छंद विचार १५ अलंकार १६ न्याय १७ साक्षीभूत ग्रंथ १८ विवेचन ( उपोद्घात) तथा प्रशस्ति १९ आचार्यो के नाम २० प्राचीन मत २१ विभिन्न मते का समाधान २२ सूक्तावली ( पद्यात्मक ) २३ राजकीय २४ प्रज्ञाप्य २५ ले | कि Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ व्याख्यांतर (अन्य व्याख्याएँ) । ४१ नय २७ खंडन पक्ष ४२ स्थापना (संस्थानादि की) २८ पाठांतर ४३ विधि २९ प्रस्तावना (अतिदेश) ४४ एकार्थिक शब्द ३० सूत्रादि का अकारादिक्रम ४५ अल्पबहुत्व ३१ शंका तथा समाधान (प्रश्नोत्तर) | ४६. अनुमान ३२ कठिन (शब्दें।के) अर्थ ४७ संकलना ३३ सुभाषित वाक्य (गद्यात्मक) | ४८ प्रत्येकबुद्धोंकेनाम ३४ निक्षेप संग्रह ४९ विसवाद ३५ वायु तथा वृष्टि ५० संग्रह लोक ३६ समानार्थी शब्देकि अर्थ ५१ स्थलनिर्देश ३७ विभिन्नगच्छ तथा पट्टावली ५१ सामुद्रिक ३८ दृष्टांत ५३ निसीह के भास की गाथाओं के ३९ संप्रदाय भाद्यपद तथा उनके अधिकारों ४. वैद्यक का (विषयोंका) अनुक्रम इनके अतिरिक्त व्याख्याताने भागमकोश रचा है । भागमेमें प्रयुक्त शब्द तथा टीकाकारों द्वारा किये शब्दार्थ इसमें दिये गये हैं। इस ग्रंथ 'पल्पपरिचित सिद्धांतिक वनकाश' को बार भागमें मुद्रित किया गया है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् आचार्य देवेश पूज्यश्री आनंदसामरसूरीश्वरजी कृत.. - आगमिक संपादित कृतियाँ : ___अंगानि संवत् १ आचारांग चूर्णि . १९९८ ८ भगवती टीका २ आचारांग सटोक १९७२ (दानशेखर) - १९९२ ३ सूत्रकृतांग चूर्णि १९९८ ९ ज्ञाताधर्म कथा १९७५ १. उपासक सटीक १९७६ ४ सूत्रकृतांग सटीक' १९७३ ११ अंतगड-अनुत्तर५ स्थानांग सटीक १९७५ विपाक सटीक १९७६ ६ समवायोग सटीक १९७४ १२ प्रश्न व्याकरण सटोक १९७५ ७ भगवती सटीक(समय) १९७४ । १३ अंग अकारादि १९९३ उपांगानि संवत् संवत् १९७६ , औपपातिक सटीक १९७२ | ६ सूर्य प्राप्ति सटीक २ राजप्रश्नीय सटीक १९८१ | ७ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति } जीवाजीवाभिगम सटीक १९७५ सटीक प्रज्ञापना सटीक (मलय.) १९७४ | ८ उपांग प्रकीर्णक ५ प्रज्ञापना सटीक (हारि.) २००३ ।। विषयानुक्मादि १९६७ २००५ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयन्ना १ तंदुलवैचारिक सटीक । चतु:शरण सावचूरिक सवत् । स.बत् २ चतुःशरणादि मरण.] समाध्यन्त प्रकीर्ण. १९८३ दशक | ३ गच्छाचार प्रकीर्ण सटीक १९८० ७८ मुलसूत्राणि संवत् संवत् १ आवश्यक सटीक (हारि ) १९५२ १२ उत्सराध्ययन अटोक. १९७२ ५ मावश्यक सटीक (मलय०) १९८४ १३ नदीसूत्र चूर्णि ।.. १९८४ ३ आवश्यक चूणि १९८४ नंदीसूत्र वृत्ति (हारि) " * पडावश्यक सूत्राणि १९९२ १४ नदीसूत्र सटीक १९८० ५ पाक्षिक सूत्र - १९९७ १५ अनुयोगद्वार चूर्णि ६ विशेषावश्यक (को०) १९९३ अनुयोगद्वार वृत्ति १९८४ (हारि.) • आधनियुक्ति सटीक १९७५ ८ दशकालिक चूणि १९८९ १६ अनुयोगद्वार सटीक १९७२ ९ दशवैकालिक सटीक १९७४ १७ नं चायकारादि १९८४ १० पिंडनियुक्ति सटीक १९७४ । १८ आगमीय ११ उत्तराध्ययन चूणि १९८९ । सूक्तावल्यादि २०.५ भागमरत्न-मंजूषा (४५ आगम मलनियंकि सहित ) १९९९ १९८४ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन आगमोदय समिति की स्थापना पाटन-विक्रम संवत् १९७१ भाद्रपद शुक्ला १०-११, शनि, रवि । . इस अत्युत्तम और उपयोगी संस्था की स्थापना तो पंन्यासजीश्री आनन्दसागरजी, पं. मेघविजयजी, ५० मणिविजयजी आदि अनेक मुनिराजों की सम्मति से उनकी उपस्थिति में गत माघ सुदी १० को श्री भोयणी तीर्थ में की गई थी; परन्तु उसकी आधुनिक काल के अनुसार कमिटी आदि की व्यवस्था अनेक कारणों से तुरन्त नहीं हो सकी थी, सेा भादों सुदी १०-११ इन दो दिनों में श्री पाटन में मिल कर की गई है। विक्रम संवत् १९७१ माघ सुदी १० से उपर्युक्त समिति के कार्य का प्रारंभ किया गया है। समिति के निम्नलिखित दो मुख्य कार्य निर्धारित किये गये हैं : (१) जैनागम-पंचांगी सहित-मुनिराज से शुद्ध करवा कर श्रेष्ठ कागज पर सुन्दर टाइप में छपाने की व्यवस्था करना। (२) आगम के बोधवाले विद्वान् मुनिराज से जैनागम की नाचना अनेक मुनिराज ले सके ऐसी योजना करना। उपरिलिखित दोनों कार्यों में से प्रथम कार्य के लिए पंन्यासजी आनन्दसागरजी की देखरेख में आगमों की टीका सहित शुद्ध प्रेस कापी बनवाने का कार्य शुरू होने पर उसे छपाने के लिए निर्णय सागर प्रेस में प्रबन्ध किया । उस के लिए खास आर्डर से श्रेष्ठ कागज मँगवा कर उस पर मुद्रण शुरू किया गया है। फिलहाल समिति की ओर से श्री आवश्यकसूत्र हारिभद्रीय टीका सहित और श्री आचारांगसूत्र शीलांकाचार्यकृत टीका सहित Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप रहे हैं। सेठ देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड की ओर से श्री अनुयोगद्वारसूत्र और श्री उत्तराध्ययन सूत्र टीका सहित छपाने की व्यवस्था की गई है। उक्त चारों सूत्रों के कुछ फमें छप चुके हैं। तदुपरांत श्री उववाइसूत्र की प्रेस कॉपी तैयार हो गई है, श्री पिंडनियुक्ति की तैयार हो रही है और अन्य सूत्रों के लिए भी प्रयत्न जारी है। इस कार्य के लिए सेठ वेणीचंद सुरचंद के प्रयासों से आर्थिक सहायता प्राप्त करना भी शुरू किया गया है, और उस में भी अच्छी रकम प्राप्त हुई है। आगे प्रयत्न जारी है। द्वितीय कार्य के लिए स्थान श्री पाटण निश्चित कर गत वैशाख वदी ६ से पाचना का कार्य प्रारंभ किया गया है। पंन्यासजी आनन्दसागरजी वाचना देते हैं, और तीस मुनिराज तथा दस साध्विया उसका लाभ ले रहे हैं। दो बार दो दो घंटे वाचनां चलती है। सुबह श्री दशवकालिक हारिभद्रीय टीका की वाचना चलती थी सेा अब पूर्ण हो गई है । अतः दोपहर को चलती हुई सूत्रकृतांग सूत्र की बाचना अब दोनों जून चलती है। चातुर्मास समाप्ति तक उसके पूर्ण होने की संभावना है। विक्रम संवत् १९७१ के भाद्रपद सुदी १० और ११ को जो मीटिंग हुई थी उस में समिति के सुव्यवस्थित संचालन के लिए एक जनरल कमिटी नियुक्त की गई है, मंत्रियों की नियुक्ति की गई है और समिति सम्बन्धी नियम पास किये गये हैं। इस का सारा विवरण उपर्युक्त समिति की ओर से छप कर प्रकाशित होनेवाला है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कार्य अत्युत्तम और हर प्रकार से सहायता देने योग्य है। पूर्वकाल में विद्यमान आगमवाचना की उत्तम शैली का इससे पता लगता है । साथ ही आगमों की अशुद्ध प्रतियों को शुद्ध करने का और एक प्रति शुद्ध होने के बाद उसकी जितनी प्रतिया छपाई जाएँ उन्हें लेनेवाले सब को यह लाभ प्राप्त होने का यह शुभ प्रसंग है। उत्तम जीवों के लिए दोनों कार्यों के सम्बन्ध में अपने तन-मन-धन से लाभ लेना योग्य है। उक्त कार्यों में हमारी हार्दिक सहानुभूति है। __ श्री पालीताना में इस शुभ दिन को पूज्य आचार्य श्री आनंदसागरसूरिजी के स्वामित्व में आगम वाचना का प्रारंभ हुआ है। अभी प्रारंभ में श्री ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति की वाचना शुरू की गई है। ये दो सूत्र पूर्ण होने के बाद चातुर्मास में श्री भगवती सूत्र की वाचना होगी, जो लगभग चातुर्मास के अन्त तक चलेगी । यह वाचना सुबह शाम दो बार करीब पांच घंटे चलती है। आचार्यश्री सूत्र पढ़ते हैं और वाचना में भाग लेनेवाले भीतर ही भीतर उसका मनन कर लेते हैं। वाचना का दृश्य सचमुच दर्शनीय-आकर्षक है। वाचना में भाग लेने के लिए पं. मणिविजयजी आदि बहुत से गुणी मुनि महाराजा पालीताना में चातुर्मास करनेवाले हैं। पालीताना में इस बार चातुर्मास में मुनि महाराजों और साध्वियों की अच्छी खासी संख्या होगी ऐसी हमारी धारणा है । हमारा अनुमान है कि इस शुभ प्रसंग का लाभ पाने वाचना में भाग लेने और सुपात्र दान का आनन्द लूटने के लिए धनवान जैन बंधु बड़ी संख्या में गालीताना चातुर्मास करने भाएँगे। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समय श्री सिद्धाचल तीर्थ में अनेक साधु साध्वी चातुर्मास के लिए रहे हुए हैं। श्रीमान् आनन्दसागरसूरिजी उन सब को श्री भगवतीजी और प्रज्ञापना इन दोनेां महान् सूत्रों की वाचना अप्रतिम लाभ हररोज चार घंटों तक देते हैं। सुज्ञ मुनिमहाराज और कतिपय सुज्ञ साध्विया उसका अविच्छिन्न लाभ लेते हैं । श्रावक श्राविकाएँ भी जो इस अपूर्व वाचना का एवं मुनिदान आदि का लाभ लेने के लिए वहाँ चातुर्मास रह रहे हैं, वाचना सुनने बैठते हैं। श्रावक वर्ग का सूत्र-श्रवण करने का ही अधिकार होने के कारण काई श्रावक श्राविका उन सूत्रों की प्रति हाथ में रख कर पढते नहीं परन्तु एकाग्रचित्त से श्रवण करते है। उस में भी कम लाभ नहीं है। हमने भी थोडे थोड़े दिन वहाँ रह कर इस तरह अपूर्व लाभ प्राप्त किया है। हमें तो यह चौथे आरे की अथवा पाचवे आरे के प्रथम भाग की बानगी प्रतीत होती है। ऐसा प्रसंग न तो हमने देखा है न पिछले सौ वर्षों में हुआ सुना है । हम चतुर्विध संघ से यह अपूर्व लाभ लेने के लिए सविनय प्रार्थना करते हैं। - हमें प्राप्त समाचार के अनुसार पालीताना मे ये पर्व के दिन बहुत ही आनन्द-पूर्वक शासन की शोभा में अत्यधिक वृद्धि हो इस तरह अनेक प्रकार की तपस्याओं-प्रभावनाओं सहित व्यतीत हुए हैं। आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी ने इस चातुर्मास की वाचना पालीताने में रखी है। इस लिए बहुत से मुनिराजों और साध्वियों ने इस क्षेत्र में वास किया है। वाचना का कार्य बहुत सुचारु रूप से चल रहा है। वाचना में अभी भगवतीजी तथा पन्नवणाजी पढ़े जाते हैं। वाचना का दृश्य आकर्षक, आहादजनक, और प्राचीनकाल की स्मृति करानेवाला है। अनेक मुनि महात्मा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्र हो कर चर्चा करते हैं। इस प्रकार साधु समुदाय के प्रसंग के कारण पर्दूषण पर पालीताना में श्रावक बन्धुभों की अच्छी खासी संख्या उपस्थित थी। बहुत से सज्जन चातुर्मास करने आये हैं, और पयूषण करने भी बहुत से सज्जन आये थे। इस शुभ प्रसंग पर पालीताना में सोने चांदी का रथ माने पर उसके प्रवेश महोत्सव में पालने और सपनों के घो आदि की बहुत अच्छी माय हुई थी। सेठ नगीनचंद कपूरचंद झवेरी की धर्मपत्नी रुक्मिणी बहन की भोर से कल्पधर के राज व्याख्यान में रुपये की प्रभावना हुई थी और गबूसाहब जीवनलालजीने रु १.०१ से कल्पसूत्र वाराया था। इनके अतिरिक्त और भी बहुत सी प्रभावनाएं थीं। एक साध्वीजीने दो मास के उपवास किये थे। इसके अतिरिक्त पैंतीस उपवासवाले १ , एक मास के उपवास बाले २०, पन्द्रह और उससे अधिक उपवासवाले १.५, अट्ठाई और उससे अधिकवाले १७१ व्यतिइतनी तपस्याएँ हुई थीं। सेठ पोपटलाल धारसीमाई आमनमरबाले यहाँ चातुर्मास रहे हुए हैं और बहुत उदारता पूर्वक द्रव्य व्यय हैं। उनकी ओर से पारणे के दिन सब साधर्मिक बन्धुओं को पारणा कराया गया था और तपस्वियों की यथोचित भक्ति की गई थी। धनप्राप्ति का यह सद्व्यय है। समयानुकूल धनव्यय करने की इच्छा प्रकट करनेवाले बन्धुगण पालीताना क्षेत्र में जो उदारता पूर्वक धनव्यय हुआ उसका वृत्तान्त सुनकर भाश्चर्यचकित हो जाएँ यह संभव है। सभी मार्गों में धन व्यय उत्तम है इच्छानुसार उत्तम मार्ग में धन व्यय करनेवाले की सर्वदा प्रशसा होती है। धन व्यय करने का जो उपदेश देता है परन्तु अपने पास का धन खर्च नहीं करता, ममता-मूर्छा का साग नहीं करता उसकी अपेक्षा धन व्यय कर के अपनी प्राप्त सम्पत्ति का आनंद लेनेवाला बहुत श्रेष्ठ और प्रशंसापात्र है। इच्छा की वृद्धि हो उस तरह समयानुसार पन खर्च करने का हम सभी बगाने को सुझाव देते हैं। विक्रम बंद १९७६ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 હત દાહરની અદર કારેથી પૂ. સાં થઈ થઈ મરન જે તા પેટમાં દમામ પૌં: એ તને સરખેજ સંવાદ્ય ચેનલ પચવાલ - ફાઈન છે એમ એ % 4.8 #kavોટ પોટા દડાની જ છે. તદ ર જાબી લwજ કામ કરી જ દીન પ ર ફરજ છે - રોજ શા કે દ૨૯ ની અને જે અરાજાએ gવર , દલિમ કે મારા જીવન માં લીલા શાક હાલત છે. ઈન ઇદ ને જ અડાહ જહાજના રાજ દરમાં દીનદ રેન્દ્રીય બજાર પર રહેશે રે ( પી ગઇ, ૨૨.૨ીધee) અહંશ જ પ ક ત aa છે. જો આ કામકાજ | પરમ પૂજય પ્રાગમહાકુ પ્રાચાર્ય શ્રી અનિઃસાગર સુરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્યરાજ, મુનિરાઇ૮ શ્રી અગાદયગાગળ મહાજન, ઉપદેશથી ઝળંગ હઠીસીંગ ગોપાલજીના ધર્મપત્ની થાકોબ્રેન ત૨ફથી ભટ...