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________________ आगमधरसूरि आस्मा के अनन्त सुख की मिथ्या भ्रान्ति में न फंस । जा, माताके चरणों में सिर रख कर कह दे-मा, आज से तुम्हारे चरणों में ही जीवन जीऊँगा। मेरी पत्नी से कह दो कि मैं आजसे उसे अपनी सहचरी मानूंगा।' आत्मा और परलोक के झूठे भ्रम को जला दे। ये सब तो धूर्ती की बनाई हुइ श्रमपूर्ण बातें हैं।" . . . हेमचन्द्र सोचने लगा कि "घरको छोड़ना और अन्तिम नमस्कार करना चाहता हूँ उतने में ही यह क्या ? हे मेरे भगवान् ! बचाओ, प्रजाओ।" . . __ अन्तरात्मा की ध्वनि . अन्तरात्मा की मधुर ध्वनि हेमचन्द्र के कानों में पडी-"हेमचन्द्र ! हेमचन्द्र ! तू जिस राह जाना चाहता है वही सही है। माता और पत्नी तुझे रोकती हैं से स्वार्थ-भावना से । तुम्हारे आत्मा का साथी कोई नहीं है । जब घरमें आग लगी हो तब माता या पत्नी काई तेरी राह नहीं देखेगी, सबसे पहले खुद ही घर से बाहर निकल जाएँगी। उस समय तू शयनखंड में साया होगा तो तुझे बचाने काई पास भी नहीं फटकेगा। बाहर मैदान में आकर चिल्लाएगी-'मेरे पुत्रको काई बचाओ बचाओ...' परन्तु स्वयं तो कूद कर नहीं जगाएगी। _ "वत्स हेमू ! तेरा भारमा अनेक भवों के कर्मों के तापसे जल रहा है। तू इसमें से बाहर निकल, गुरु के चरणों में जा, उनकी शरण ले । ऐसा करने से कोई ज्ञानी पुरुष तेरी निंदा नहीं करेगा, बल्कि वाह वाह करेगा, अमुमोदना करेगा । संसार-रसिक जो कुछ कहें उस पर ध्यान नहीं देना चाहिए । इस समय तुम्हारा भात्मा संसार में विस्फोट के साथ जल रहा है। दौड, इस ज्वालामुखी में से बाहर निकल ।
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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