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________________ ११६ आगमधर मूरि हुआ धन जैन खाएँ इसमें क्या पाप है ? भगवान् हमारे पिता हैं । हम उनकी सन्तान हैं। पिता की पूंजीका उपभोग करने में सन्तान का क्या पाप लगता है ?" इस आन्दोलनका नेतृत्व आचार्य धर्मसूरिजी (काशीवाले) ने किया था । उन्हें शास्त्रों की अपेक्षा अपनी ख्याति अधिक प्रिय थी । वे गुरुकुलवास से दूर थें । यह आन्दोलन कइयों का प्रिय लगा । इसका प्रतिकार कौन करे ? प्रतिकार पूज्य प्रवर आगमेोद्धारकजीने उक्त आन्दोलनका सामना करने का आह्वान किया। उन्होंने शास्त्रीय पद्धति पूर्वक अच्छी तरह सख्त सामना किया । शास्त्रीय पाठों तथा व्यावहारिक तर्कों से सब समझाया । देवद्रव्य इकट्ठा कर के उसे दुःखी जैनों को बाँट देने से उद्धार हो जाएगा - यह मान्यता अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है । जो सच्चे दु:खी जैन है वे तो इस देवद्रव्य का स्पर्श भी नहीं करेंगे, और उन्हें यह द्रव्य दिया भी नहीं जा सकता । "आज हम जो जिनमंदिर देख रहे हैं वे पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित देवद्रव्य की व्यवस्था के परिणाम हैं। साथ ही प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जिन के पेट में या बाह्य उपयोग में देवद्रव्य लगा है वै दुःखी दिखाई देते हैं । यदि सारा गाँव इस कार्य में सम्मिलित है। तो सारा गाँव दुःखी पाया जाता है। जो जैन लोग देवद्द्रव्य से बनाये गये मकानों में किराये पर रहते हैं और उचित पर्याप्त किराया नहीं देते उनमें से भी अधिकांश दुःखी दिखाई देते हैं । इतना होते हुए
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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