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________________ आगमधरसूरि हेमचन्द्र दिन ब दिन अधिक विरक्त दिखाई देने हृदयमें माणेककी ममता कोई परिवर्तन न कर सकी। वह में पड़ गई । हेमचन्द्र के पिताको इस बातकी खबर हुई, उसके ससुर को भी पता लग गया । ११ लगा । उसके नववधू उलझन इतना ही नहीं, एक दिन ससुरजीने हेमचन्द्रको बुलाकर समझाया, "भाई, बड़े होकर तुम्हें अपने पिताका धन बढ़ाना है। उसकी रक्षा करनी है, मान-प्रतिष्ठा बढ़ानी है । तुम्हें अपनी पत्नी की रक्षा पालन-पोषण-संवर्धन करना है । इस तरह वैरागी बनने से नहीं चल सकता | अब सयाने हो रहे हो, तुम्हें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए ।" "मैं अपनी आत्मा के कल्याण-मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता हूँ । कोई मेरी इस भावनाको नहीं रोक सकता । मैं अपने विचारों से एक कदम भी पीछे हटना नहीं चाहता। आप लोगोंने बाल्यावस्था में मुझे विवाह बंधन में फँसा कर मुझ पर अत्याचार किया है, परन्तु मेरी भावना पर बलात्कार करने की शक्ति आप में किसी में नहीं है। मैं अपनी वैराग्य की भावना में वज्र सा कठोर एवं पहाड़-सा अचल रहूँगा । " हेमचन्द्रका ऐसा उत्तर सुनकर सब शान्त तो हो जाते परन्तु दिल उलझन में पड़ जाता था। फिर भी इस किशोर दम्पतीका जीवन बाह्य दृष्टि से सबको सुखशान्तिपूर्वक चलता दिखाई देता था । भाग्यशाली रात की बात संसार अपनी गति से चल रहा है । यह बालदम्पती मी इस प्रवाह में वह रहे हैं। एकांत में बातें होती हैं। घर के एकांत में हस्तक्षेप करने की किसे हिम्मत ही सकती है । अथवधू माणेक को कई तमन्नाएं उठती हैं, परन्तु आर्य - नारी पति के सिवा किससे कहे ?
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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