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________________ आप्रमघरसूरि खुशी का पार न का! माता को ऐसा मालूम हुआ मानो मेरे घर आज कल्पवृक्ष फला है, मोतियों की वृष्टि हुई है। बाज मैं कृतकृत्य हो गई! पुत्रवधू का मुख देखकर यमुनाने प्रसन्न हृदयसे आशीर्वाद दिये "बेटा ! सौभाग्यवती हो, मेरे कुलदीपकको सम्हालना । अब तुम मेरे घरका माणिक बनना ! यह घर, यह धन, ये आभूषण, फरनीचर सब तुम्हारा है। हम भी तुम्हारे हैं ! तुम हमारी गृहलक्ष्मी हो, हमारे कुल को आलोकित करमा !" पुत्रवधू माणेकने सास के चरणों में सिर रख दिया और मधुर स्वर में विनयपूर्वक बोली "माताजी ! आज से' मैं आपकी तथा आपके पुत्र की दासी हूँ ! आपके पुत्रकी अर्धागिनी हूँ, तन-मन से सेवा करूंगी, भापके आशीर्वाद हमें सुखी रखेगे ?" हर्षविह्वल माता यमुना पुत्रवधू के गुण गाते गाते कभी थकती नहीं ! गावकी कोई सखी या स्वजन भावे तो मा उसके सामने भी माणेककी प्रशंसा करती। यमुनाको माणेक एक देवी के समान प्रतीत हुई। माणेक भी यमुनासास की सेवा करती, ईज्जत करती, उनकी आज्ञा पालती और पैर दबाती थी। थोड़े दिनों में माणेकने घरका कामकाज भी सम्हाल लिया। ऐसी विनम्र पत्नी मिलने पर भी हेमचन्द्र आकर्षित नहीं हुआ। यह पूर्वभवका वैरागी था ! इस जन्म में जबरदस्ती से नारी के पाश में डाला गया था, अतः उसे और अधिक वैराग्य होने लगा। सिंह-शावक को कैद करने पर जैसो अनुभूति होती है वैसी हेमचन्द्र को होने लगी ! उसे अपनी भावना और स्वतन्त्रताका दम घुटता मालम हुआ।
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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