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________________ आगमधर सूरि १४७ ऐसे समय में पूज्यपाद आचार्य भगवंत आगमेाद्धारकजी जागृत थे। साथ हो उनके पट्टधर शिष्यावतंस आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरिजी तथा आचार्य देवश्री कुमुदसूरिजी भी जाग रहे थे । ये तीनों पूज्य अंजनविधि मंडप में थे । किसी देव, दानव या मानव की कुदृष्टि न पडे इस हेतु से लाल दुकूल के बड़े आच्छादन किये गये थे। मांत्रिक विधिया चल रही थीं । कोई भक्त विह्वल भाबुक इस गुप्त और एकान्त क्रिया के समय न आ टपके इस लिए स्वयं सेवक दल का सुन्दर प्रबन्ध था । उस समय सब का सम्पूर्ण मौन पालना था । पूज्य आगमाद्धारकश्री गंभीर ध्वनि में स्पष्ट मंत्रोच्चार कर रहे थे । विधि गुप्त थी, परन्तु मंत्रोच्चार की ध्वनि जागृत स्वयं सेवकों के कानों में पहुँच जाती थी । उस ध्वनि में उन महानुभाव की अपूर्व दिव्यता प्रतीत होती थी । अंजनविधि के सुमुहुर्त में दर्पण प्रतिबिंबानुसार पूज्य आगमाद्धारकजीने मूलनायक भगवतों की अंजनविधि की । तत्पश्चात तीनों आचार्यषु गवों ने अन्य जिनबिंबों की अंजनविधि की। अभी सूर्योदय का घड़ी भर की देर थी, परन्तु मानव- समूह तन-मन की शुद्धि कर के प्रतिष्ठा विधि पर मंडप में आ पहुँचा था । अंजन - विधि यह जन समूह 'ॐ पुण्याह पुण्याहम्' का घोष कर रहा था. उनके हृदय में उमंग और उल्लास समाता किये हुए प्रतिमाजी के दर्शनार्थ उनके नेत्र मन ही मन ऐसी भावात्मक स्पर्धा कर रहे करूँ, पहले मैं दर्शन करूँ ।" नहीं था । आतुर हो रहे थे । वे थे कि 'पहले मैं दर्शन
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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