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________________ १५४ आगमघरसरि हमें पीने..मे जहरं-सी कड़वी लगी तो मैं तुरन्त दौड़ती हुई आई है। पूज्य महाराजश्री बीमार हैं, उस पर कडवी चाय पी गये; उन्हें हानि करेगी। क्या उन्होंने आप से कुछ नहीं कहा " "अरे बहन ! कहना तो दूर रहा, उन्होंने तो मुंह तक नहीं बिगाडा। हमें तो आपके कहने से ही मालूम हुआ, वरना हम तो जानते भी नहीं कि चाय कड़वी थी। श्राविका पूज्य आगमाद्धारकजी के पास गई । वंदन कर के कहा "महोदय ! मुझ से भूल हो गई-चाय में चीनी के बदले नमक डल गया। मैंने भयंकर अपराध किया है, मैं महापापभागिनी बनी हूँ। कृपा कर मुझे क्षमा करें । गुरुदेव ! गुरुदेव मुझे प्रायश्चित दीजिए। जिससे मेरी शुद्धि हो।" यह कहते हुए श्राविका की आँखों से बड़े बड़े आंसू गिर रहे थे। • पूज्यश्रीने सस्मित वदन से कहा-“बहन ! तुम राओ नहीं। सब जीभ का स्वाद है । मीठी चाय तो राज ही मिलती है, कडवी ही कमी एकाध बार ही मिलती है। चिंता न करना। मुझे कड़वी चाय पीने का काई दुःख नहीं है। इस चाय ने मेरी कर्म निर्जरा कराई है। तुम जाओ, रोना नहीं। मुझे ज़रा भी दुःख नहीं हुआ। समता की सिद्धि रोगों की गति अविरोध चल रही थी। बीमारी का प्रकोप बढ़ा, फिर भी इस सम्यग्ज्ञानी महात्मा की ज्ञान की लगन जारी रही। वे कभी आगम के आलापक गिनते होते या प्रकरण के पाठ पढते होते। मुख से दर्द का कोई चिह आह, कराह, आह या हाय नहीं निकला।
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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