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________________ आगमधरसरि १५५ पूज्यश्री की बहुश्रुतता एवं आगमेोद्धारक के रूप में कीर्ति सुन कर एक विद्वान् ब्राह्मण पंडितजी पूज्यश्री के दर्शनार्थ भाये। पंडितजी के मन में पूज्यश्री से कुछ प्रश्न पूछने और विशद समाधान पाने की इच्छा भी थी ही। इसी लिए खर्च कर के दूर से आये थे। परन्तु पूज्यश्री की ऐसी शारीरिक स्थिति देख कर वे उदास हो गये। दर्शन-वन्दन कर सुखशाता पूछ कर बैठ गये। पूज्यश्रीने पूछा-"पडितजी! आप कुछ प्रश्न पूछने आये हैं। जो इच्छा है। सेो खुशीसे पूछिये ।"- - पंडितजी-"महाराजश्रीजी ! मैं तो आप के दर्शने के लिए आया हूँ। और कोई आकांक्षा नहीं है ।" यह उन्होंने केवल विवेक के लिये कहा। पूज्यश्री-"आप केवल दर्शन-वन्दन के इरादे से ही आए हों ऐसा नहीं हो सकता। साथ साथ ज्ञानचर्चा का हेतु भी होगा ही, परन्तु मेरी ऐसी शारीरिक स्थिति देखकर आपका ज्ञान-चर्चा करने को मन नहीं करता। फिर भी आप पूछिये ।" __"महाराजजी ! सचमुच कतिपय प्रश्न पूछना चाहता ही हूँ परन्तु आपके ऐसे अनारोग्य में कैसे पूछू ? मैं विवेकहीन मनुष्य नही हूं। आपके पावन दर्शन से भी मुझे सचमुच आनन्द हुआ है।" पंडितजी ने हार्दिक विवेक प्रकट किया। पुज्यवरने कहा-"आप यह सब चिंता छोड कर खुले दिल से पूछिये । मैं जानता हूँ उतना बताऊँगा परन्तु मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ।" पूज्यश्री के आग्रह के कारण पंडितजीने प्रश्न पूछे। पूज्यश्री ने
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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