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रसूति तब पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामीजी मार्य श्री जम्बु स्वामी भादि मुनि प्रवरों को वाचना दे रहे हों, ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ । ....
आगमवाचनादाता के कंठ में माधुर्य था, आवाज़ में मेघ-ध्वनि थी, भाषा में उदात्त, अनुदात्त, खरित, घोष, महाघोष, लय मात्रा आदि की स्पष्टता थी । नाद गंभीर था । श्रोता. वर्गको भागम की एक एक पंक्ति पुनः पुनः सुनने की इच्छा होती ।
आगम की व्याख्या, सहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालमा और प्रत्यावस्थान सहित शास्त्रीय पद्धति से होती थी।
जैसे चन्द्र की चादनी उच्च नीच का भेद न कर उने को प्रकाश और शीतलता देती है वैसे ये महापुरुष स्वगच्छ और परगच्छ का भेद किये बिना सबको शुद्ध हृदय से वाचना देते हैं। पूज्यश्री “वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना रखते थे। उनकी दृष्टि में निंदक और पूजक समान थे। कनक और पाषाण में उनकी समान बुद्धि थी । इन व्यापक गुणों के कारण उनकी बाचना में भाते हुए किसी को संकोच नहीं होता था।
उस समय जितने मुनि थे उनमें से अधिकांश बाचना लेने आते थे, और जो नहीं आ सके थे उन्हें न आ सकने का खेद था। इस वाचना से दो सौ से अधिक मुनियों और सौ से अधिक महत्तरा भादि साध्वियों ने लाभ उठाया था।
कुल सात वाचनाएँ हुई थी। एक बाचना छ: महिने चलती थी। इनमें से एक वाचना पाटणमें, एक अहमदावादने, दो सूरत में, एक पालीताणामें, एक कपड़वंजमें और एक रतलाम में हुई। इनमें