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________________ আলমগনুষি किया जाता तो भव्यात्माओं के उद्धार का रहा-सहा साधन भी लुप्त - होगा । लेखनकारों की संख्या घटती जा रही है, जो हैं से मी प्रभारी और अनभ्यस्त । अतः लेखनकार्य कठिन होता जाता है । मार्थिक दृष्टि से भी मुद्रण के सामने हस्तलेख की पद्धति टिक नहीं सकती । . छपवाने में भी भनेक समस्याएँ हैं, और न छपवाने में भी बहुत है । हे जगद्गुरु । जगत्पते ! मैं क्या करूँ और क्या न करूं ? हे भगवन् । तुम्हारे मुख से प्रसूत अमूल्य वचनों के संग्रह-रूप आग को अनिवार्य परिस्थितियों के कारण मुद्रित करवाने में जो अपराध हो उसे क्षमा करना । मैं अपने लिए कुछ नहीं कर रहा हूँ, परन्तु भविष्य में आनेवाले अन्धकार को रोकने के लिए यह कार्य कर रहा हूँ । इसमें जो भूल हो जाय उसे क्षमा करना । आगम-प्रन्योद्धार की बात अभी अनोखी चैत्य-परिपाटी चल रही थी। इसी अरसे में एक मंगलमय दिन व्याख्यान के बीच मुनीश्वर ने इस का जिक्र किया। 'हे पुण्यशालियो ! हम सब वीतराग परमात्मा के दर्शन को निकले हैं, क्यों कि हम सब संसार-समुद्र को पार करना चाहते हैं। भव-सागर तरने के साधन बहुत ही सुरक्षापूर्ण माने जाते हैं। उनमें से एक तो यह चैत्यपरिपाटी है जिसका अमल हम लोग आजकल रोज कर रहे हैं। परन्तु दसरा एक साधन और है जो प्रथम साधन से सापेक्षतया बढ़ चढ़ कर है। जिन चैत्य से संसार तरा जाता है परन्तु यह बात बताता कौन है ? जिनवाणी। जिनवाणी का संग्रह है जिनागम। श्री जिनचैत्य-परिपाटी के साथ जिनागम को याद करना चाहिए। जिनेश्वर की आज्ञा उन में है। उस भाज्ञा का पालन करना
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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