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________________ ४८ -आगमघरसूरि से तप्त और वासना से तृषातुर बनी हुई श्रोताओं की मनेोभूमि मुनीश्वर की वाणीरूपी वर्षा की रिमझिम से शान्त और तृप्त हुई । कषाय का उत्ताप गया, वासना ने विदा ली । अहमदाबाद की जैन जनता आपसी वैर भाव भूल गई । कुछ अन्दरूनी झाड़-झंखाड़, कूड़ा कर्कट था सो सब स्वच्छ हो गया, क्योंकि इस दिव्य पुरुष का दिव्य प्रभाव चारों ओर अदृश्य रूप में सतत कार्यरत था। भव्यों की भावना दिन दिन बढ़ती गई । फलतः मुनीश्वर को पदवीप्रदान की बात चली । अहमदाबाद की जैन जनता ऐसी मुग्ध थी कि उसने सोचा-इन मुनीश्वर को आचार्य बना दें, शासन-नायक बना दें, तपागच्छाधिपति बना दें। । परन्तु यशकी लिप्सा से रहित ये मुनीश्वर पदवी प्रहण करें यह असंभव था । तिस पर योगाद्वहन किये बिना आचार्य पद लेनेका महापाप तो ये स्वप्न में भी महीं कर सकते थे । 'तपागच्छाधिपति' पद देना श्रावकों की भक्ति से उत्पन्न बावलापन था। ये मुनीश्वर जानते थे कि तपागच्छ के प्रत्येक समुदाय के मुखिया एकत्र होकर सर्व सम्मति से यह पदवी एक को दे सकते हैं। श्रावकगण अथवा शिष्य अपने गुरुको तपागच्छाधिपति बना दें यह आत्माको डुबानेवाली बात होगी। अजोगी (योगाद्वहन के बिना) आचार्य बनना आत्माको भव-भ्रमण में भुलाएगा। मैं 'तपागच्छाधिपति' विशेषणवाला विरद धारण कर शासन की मूलभूत प्रणालिका भंग करना नहीं चाहता। जिसे लेोकेषणा बहुत सताती हो वह भले अपने आपको तपागच्छाधिपति कहलवाए, परन्तु जब तक सर्वशिष्टमान्य न हो तब तक यह पद केसे लिया जाय !
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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