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आगमधरसुरि
यह भाग्यशाली कह रहे थे. 'हमें पूज्यश्री के द्वारा ही धर्म प्राप्त हुआ है। यदि हमें पूज्यश्री का सत्समागम न मिला होता
और हमें धर्म-दान न दिया गया होता तो हम न जाने कहाँ मिथ्यात्व-भज्ञान में भटक गये होते। औगंकी तरह हमें विरासत में धर्म नहीं मिला है, परन्तु इन महात्माश्री ने ही हमें धर्म दिया है। अतः ये हमारे धर्म पिता हैं, मैं इनका धर्मपुत्र हूँ, यह लाभ क्यों जाने दूँ !'
शुद्ध चंदनकाष्ठ की चिता रची गयी। उस पर उपयुक्त महाशिविका रखी गई। उत्तराषाढा नक्षत्र में पूज्यश्री आगमोद्धारकजी के भौतिक स्थूल देह का श्री जयंतिलालभाई वखारिया ने आसू टपकाते नेत्रों और खिन्न वदन के साथ अग्नि संस्कार किया।
चन्दनचय की महाज्वालाओंने महात्मा के भौतिक स्थूल शरीर की भस्म बमा दी। सब लोग आँखों में उदासी लिए वहाँ से बिखर गये।
उपाश्रय में पू० आगमोद्धारकश्नीजी के पट्टधर आचार्यदेवश्री माणिक्यसागरसूरि महाराज की पुण्यनिश्रा में देववंदन किया गया । तत्पश्चात् गुणानुवाद कर सब चले गये।
जो लोग अग्निदाह के स्थान पर गये थे वे स्नान कर के उपाश्रय में भाये । उन्हें मांगलिक सुनाया गया।
गुरु-मंदिर पूज्य आगमोद्धारकश्री के भौतिक स्थूल शरीर को जिस स्थान पर अग्नि संस्कार किया गया था उस स्थान पर पूज्यश्री की स्थायी स्मृति रहे इस आशय से सुन्दर गुरु-मंदिर निर्माण किया गया। आज यह गुरु-मंदिर पूज्यश्री की पुण्य-स्मृति कराता है और कहता है 'इन के