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________________ सोलहवा अध्याय मुनि-सम्मेलन सम्मेलन का उद्देश्य आध्यात्मिक दृष्टि से पतनोन्मुख काल में भार्य संस्कृति तथा जैन धर्म पर मिथ्यामतियों के भाक्रमण होते ही आये हैं, इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उसी तरह जब भौतिक वातावरण नदी की बाढ़ की सी तेजी से बढ़ रहा है। तब जैन धर्म प्राप्त किये हुए आत्मा भी उसमें बह आते हैं और पूर्व-परंपरा से चले भाते हुए भगवान द्वारा प्रदर्शित नियमों में स्वच्छन्दता या रियायत चाहने लगते हो तो वह भी आश्चर्यजनक नहीं है। जैन धर्म के अनुयायी गृहस्थ-वर्ग की यह स्थिति हो तब साधुवर्ग उसका इलाज करता है। परन्तु साधुवर्ग में मतमेद, मनस्विता महं, लेोकेषणा आदि बढ़े, और उसमें से शाम के अर्थ और भावार्थ को तोड़ने मरोड़ने की प्रक्रिया शुरू हो जाए तब रक्षक कौन ! भगवान् का शासन इक्कीस हजार वर्ष तक अविच्छिन्न रूप से चलनेवाला है अतः आत्मानुलक्षी तथा जगजीव-हितैषी मुनिप्रवर एवं सुश्रावक अल्प संख्या में ही सही परन्तु सदा विद्यमान होते हैं। प्रस्तुत समय में मुनिवर्ग एवं गृहस्थवर्ग में कुछ विषयों में विषमता मालूम हो रही थी। देवद्रव्य, पालदीक्षा, मालारोपण, बाहर से आते
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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