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________________ ११८ भागमधरसरि देवद्रव्य अर्थात् 'देव का द्रव्य'- यह तो बालिश मस्तिष्क की . उपनायी हुई बात है। शास्त्रों तथा वैयाकरणों ने इसकी व्याख्या "देवाय अर्पितम्" इस प्रकार की है। अर्थात् देवों को भक्ति-पूर्वक अर्पण किया हुआ द्रव्य से देवद्रव्य । अर्पण का तात्पर्य ? हमने किसी का काई वस्तु दे दी, उस के बाद क्या यह कहा जा सकता है कि वह वस्तु हमारे अधिकार की है ? किसी को भोजन करने बिठाकर थाली परोस दी, फिर उसे वापस ले लेना, क्या इसे अपण करना कह सकते हैं ! या इसे अपमान करना कहेंगे ? किसीने कोई वस्तु दूसरे को अपण की । उस के बाद उसके पास 'जा कर वापस माँगे और कहे कि मेरा हक है तो क्या वह वस्तु उसे नियमानुसार मिल सकती है ? . देव अर्थात् पिता; हम उनके पुत्र हैं। पिता की पूंजी का पुत्र उपभोग करे तो इस में पाप नहीं है। यह तो मूखों का तर्क है। देवद्रव्य पवित्र है। हम से उसका उपयोग हो ही नहीं सकता। हमारी माता हमारे पिता की पूंजी है, परन्तु हमारे लिए वह पवित्र है, उपकारक है, भक्ति योग्य है, फिर भी वह भोग्य नहीं है। "यदि काई मूर्ख अपनी मा को भी स्त्री की तरह भाग्य माने तो क्या यह बात आप स्वीकार करेंगे ? नहीं हरगिज़ नहीं। उसी तरह देवद्रव्य पूज्य है, और देव के लिए उस का उचित ढंग से व्यय किया जा सकता है, परन्तु वह हमारे लिए भाग्य नहीं ही है।"
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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