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________________ आगमधरसूरि १७ उत्तर दिया । तब गुरुदेवने पुनः कहा, "महानुभावो ! संयम बा खेल नहीं है । इसमें अनेक कष्ट, अनेक परीषह, अनेक उपसर्ग सहन करने पडते हैं | यहाँ मन चाहा भोजन नहीं मिलता, मिक्षा-चर्यासे जीवन चलाना होता है । अनेक प्रलोभनों के बीच मन को वश में रखना होगा | गाँव गाँव नंगे पैरों घूमना होगा । जादों की भीषण ठंड, चौमासे की बरसात सहन करनी होगी । खुरदरी शय्या पर सोना और खुरदरे सादे वस्त्र पहनना होगा । बोला, वह सब कर सकोगे !” ग्रीष्म का ताप, "गुरूदेव" इतना कहते ही दीक्षार्थी पुण्यात्माओं की आँखे से झर झर आँसु झरने लगे । “भगवंत ! आप जो बातें कहते हैं उनका हमने कई बार विचार किया है । आपने हमारी परीक्षा और हमारे मन की जाँच करने के लिए पूछ। सो बहुत अच्छा किया । कृपामय ! कृपया हमें शीघ्र ही पवित्र दीक्षा दीजिये ।" हेमचन्द्र को असफलता ज्ञानदृष्टि से दोनों दिव्यज्ञानी मुनि जरा ध्यान-मग्न हुए । उन्हें आत्मा सुयोग्य प्रतीत हुए। एक का भाग्य दीक्षा - पोषक था, दूसरे के भाग्य में अवरोध थे, उसे कसेोटी पर चढ़ना था । अतएब भार्षदृष्टा मुनिने बड़े भाई से दीक्षा लेने को कहा और हेमचन्द्र से कहा, " ठहरो मौर देखते रहो ।” बड़े भाईने छोटे भाई से कहा, "भाई हेमचन्द्र ! यद्यपि तुम्हारा वैराग्य मुझसे अधिक है, दीक्षा की भावना तीव्र है, तुम में दीक्षा की योग्यता भी मुझसे अधिक है, तथापि तुम्हारे कर्म कुछ और मालूम होते हैं । परन्तु तुम पुरुषार्थ : करना और दीक्षा ग्रहण करना ।
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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