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________________ भागमधरसरि "तुम संयभी बनकर चुनौती का सामना करे। । संयम के मार्ग को मुक्त बनाओ। दीक्षा की विजय पताका फहराओ । अपनी माता या पत्नी के माह में न पडना । तुम्हें मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि तुम संयम लो, और साधुओं के सेनानी बनो।" आनन्द का उदधि . पिताजी की बात सुनकर हेमचन्द्र का हृदय आनन्द के उदधि में तैरने लगा। मेरी तो इच्छा थी ही, तिस पर पिताजी ने गुप्त परन्तु दृढ सहयोग दिया । अब मैं दीक्षा लेकर ही रहूँगा । इसके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिए । दीक्षा ही मेरा प्राण है, दीक्षा ही मेरा जीवन हे, दीक्षा ही मेरा सर्वस्व है। माता की ममता माता यमुना को इस बात की खबर लग गई। पुत्र के प्रति ममताने माता के हृदय पर काबू जमा दिया । मेरा पुत्र दीक्षा के यह हो ही कैसे सकता है । महराजा ने यमुना से कहा- "तेरा पति तो पागल हो गया है। वह अपने पुत्र को चित करना चाहता है । उसमें बुद्धि नहीं है । तेरा घर संपत्ति-वैभव, दास-दासी, धनधान्य से परिपूर्ण है । अतः ऐसे रत्न-सम पुत्र को दीक्षा की अनुमति देने की मूर्खता न कर बैठना, किसी भी तरह उसे दीक्षा न लेने देना।" ____ "बेटा हेमू ! क्या तुम दीक्षा लेना चाहते हो !" इतना कह कर माता आगे बढ़ी-“तुम्हारा यह काम नहीं हैं। घर में क्या कमी है ! तुम्हारे बिना मेरा कौन है ? गुलाब की पंखुड़ी जैसी तुम्हारी पत्नी का क्या होगा ? तुम्हारा सुकोमल शरीर गाँव गाँव भटकने के लिए नहीं
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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