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________________ इक्कीसवाँ अध्याय महाप्रयाण काल की गति अपने कालकी गति बिना रुके आगे बढती है । देखने नहीं रुकती । हाँ, सूर्य और चंद्र भगवान् महावीर का उपदेश सुनने आये थे तब अंधेरा दूर रहा परन्तु काल की गति बेरोक आगे वह किसी की राह विमान में बैठ कर कुछ समय के लिए बढ़ती रही है । काल का प्रभाव पूज्य आगमोद्धारक श्री के शरीर पर भी अब प्रकट होने लगा । ( शरीर कमजोर पड़ता जाता था, उसकी रोगों का प्रतिकार करने की शक्ति खा चुकी थी अतः सामान्य रोग भी भारी है। जाता था, और एक दर्द अपने साथ दूसरा दर्द ले आता था ।) पुज्यश्री ज्ञान के सागर थे, आगम के उद्धारक थे, बहुश्रुत के रूप में सुप्रसिद्ध थे । गुण के भंडार थे, साधु-भगवतों में आदर्श थे, विशाल मुनिसमूह के गणनायक थे। उन्हें अनुमान हो चुका था कि यह काया अब अधिक काम नहीं देगी, अकः इस से जितना लाभ लिया जाय उतना ले लेना चाहिए । कार्य अधूरे नहीं रहे जगत के सभी जीव महाप्रयाण करते हैं, परन्तु उनके कई अधूरे
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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