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________________ ८२ आगमधरसरि को आचार्य-पद अर्पण करने की विधि हमारे नगर में होने वाली है। इस से उनके हृदय आनन्द-विभोर हो कर नाच उठे। सूरत के संघ में विवेक और बृद्धिमत्ता थी, उस में शासन की शोभा बढाने के कार्य करने की सूझ बूझ भी थो, परन्तु अशुभ के उदय के कारण संघ में फूट की छोटी सी चिनगारी भयानक दावानल उत्पन्न कर सकती है, विनाश का तांडव मचा सकती है। पूज्य आगमाद्वारकश्रीजी को इस का पता था, अतः उन्होंने कहा कि सूरत सूरिपद का उत्सव तो उमंग के साथ मनाए और हृदय में द्वेष की आग धधकती रहे यह कैसे चल सकता है ? महाराजश्रोने सूरत संघ के अप्रगण्य पुण्यात्माओं को बुला कर कूट की आग के विषय में बात की। सूरत सूरिपद-प्रदान के उत्सव का लाभ खाना नहीं चाहता था, अतः चर्चा-विचारणा के बाद सबने अपने अपने मतभेद भुला दिए और सब पूज्यश्री के पदवी-प्रदान महोत्सव में आनन्द-पूर्वक सम्मिलित हुए। पदवी दान के आठ दिन पहले से जिनमदिरों में उत्सव शुरू हुआ। प्रतिदिन प्रातःकाल कुमारिकाएँ धवलमंगल गीत गाती; दोपहर को जिनमंदिरों में राग-रागिनियों के साथ पूजा भणाई जाती, रात को भावनाएँ होती और चौक में नगर की श्रद्धावती सुश्राविकाएँ गरबे गाती थीं। रथ-यात्रा पदवीदान के एक दिन पहले रथयात्रा-जलयात्रा थी। वह सुरत के जिन रजिमार्गों से निकलने वाली थी उन सभी मांगों को वजा
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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