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________________ आगमधरसूरि १४९ शुभ्र थीं। वनराजि खिल उठी थी। लोगों के हृदय भानन्द से स्फुरित हो रहे थे। परमपूज्य सूरिपुरंदर आगमोद्धारक आचार्य भगवंत श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजा, मूलनायक प्रभु के प्रतिष्ठाकारक श्रावक रत्न उदार पुण्यवन्त संघवी श्री पोपटलाल धारसीभाई तथा संघवी श्री चुनीलाल लक्ष्मीचंदभाई आदि गर्भगृह में उपस्थित थे। अन्य देवकुलिकाओं पर अन्य पृ० मुनिवर, प्रभु-प्रतिष्ठापक, क्रियाकारक तथा शिल्पी थे। कई पुण्यवान महानुभाव तथा साध्वीजी महाराज रंगमंडप, कालीमंडप, चौक और मेघनाद मंडप में दर्शनार्थ खड़े थे। मंदिर के बाहर के मैदान में हजारों लोगों का समूह उमड़ रहा था। भीतर और बाहर सारा हर्ष विह्वल जनसमूह 'ॐ पुण्याहपुण्याहम्' का महाघोष कर रहा था। एक समयविद ने कहा-'प्रतिष्ठा को पाव घडी बाकी है। विधिकार ने कहा-आचार्य महाराज साबधान, प्रतिष्ठाकारक सावधान, क्रियाकारक सावधान, शिल्पी सावधान, नकद थैली सावधान ।' पूज्यपाद आगमोद्धारकश्रीने 'ॐ कूर्म ! निमपृष्ठे जिनबिंब धारय स्वाहा' यह मंत्र सामध्वनि में सात बार पढ़ा। तत्पश्चात् कुंभक प्राणायाम कर ' स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा' मंत्र सात बार मानस जाप पद्धति से गिना । सातवीं बार मंत्र पढ़ते समय स्वर्ण, मुक्ता, रजत मिश्रित वास चूर्ण के निक्षेप-पूर्वक प्रभु स्थापना की। थाली डंके बनने लगे, दाल नगाडे पर चोट हुई। देवकुलिकाओं
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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