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________________ ७२ ____ आगमधरसूरि न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने विनम्रता पूर्वक पूछा-- "दिगंबर लेाग आपको कसूरवार कहते हैं। आपको यह वैमनस्य और दंगा फैलानेवाला बताते हैं । आप इस सम्बन्ध में क्या कहना चाहते है !" - पूज्यश्रीने उत्तर दिया-"हमने या हमारे प्राबकोंने ऐसा कोई बर्ताव नहीं किया है जिससे वैमनस्य या दंगा हो। हम तीर्थ यात्रियोंके रूप में आये हैं। मन्दिर हमारा है। हम अपने भगवान की पूजाविधि के लिए उन्हें मन्दिर में ले जा रहे थे तब हमें रोका गया। इतना ही नहीं, हम पर घृणित आक्रमण किया गया। हमारे भगवान की आशातना की। ऐसे समय मैंने धर्मगुरु के रूप में जो करना चाहिए वही किया है। केवल अपने भगवान की मूर्ति की सुरक्षा के लिए बात की थी।" दिगंबरा के वकीलने प्रश्न पूछा- "आपको भी विरोधी लोगेांने मारा था-क्या यह सच है ! आप को मारनेवाले कौन कौन थे। .. "मुझे जो मार पड़ी है वह पीठ पर पड़ी है। यह अनुमान किया जा सकता है कि मुझे मारनेवाले दिगांबर बंधु थे, परन्तु यह निर्णय तो नहीं हो सकता कि अमुक निश्चित व्यक्तिने मारा है। फिर साधु के रूप में हमें शास्त्रों की आज्ञा है कि हम किसी के विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकते। हमें क्षमापूर्वक मार या कोई भी परेशानी सहन कर लेनी चाहिए। अतः मैं हृदय से भी नहीं चाहता कि मुझे मारनेवाला दंडित हो या दुःखी हो। " न्यायाधीश सेवक बन गये .. आगमोद्धारकजी के शब्दों का जादूका सा असर हुमा । वस्तुतः यह प्रभाव शब्दों का नहीं परन्तु क्षमागुण का था। पूज्य श्री की
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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