SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमधर सूरि उनमें से कुछ अशुद्ध थीं, कुछ अत्यंत अशुद्ध । कुछ की लिखावट अच्छी थी तो कुछ के अक्षर मक्खी की टाँग जैसे । कुछ पेथियाँ पूर्ण थी तो कई नष्ट भ्रष्ट, पानी में भीग कर मुड़ी हुई थीं। कुछ ग्रन्थों के पृष्ठ आपस में चिपक गये थे । इन चिपके हुए पन्नों को अलग करने की भी समस्या थी । इस भगीरथ कार्य में कितना श्रम, कितना धैर्य, कितनी कुशलता, कितनी तत्परता चाहिए इसका अनुमान तो पूज्य आगमेोद्धारक महाराज को यह कार्य करते देखने से ही हो सकता था । यह कार्य वास्तव में बहुत ही कठिन और वैज्ञानिक को कोई आविष्कार करने अथवा कोई निकालने में जो श्रम करना पड़ता है बैसा ही श्रम अधिक श्रम इस कार्य में हुआ । पूज्य मुनीश्वर आप को भूल जाते । ऐसे अगाध और अविरत आगम अंधकार से प्रकाश में आए हैं । इस अटपटा था। किसी अज्ञात प्रदेश खोज अथवा उस से भी कार्य में अपने परिश्रम के अन्त में जब आगमे की छपाई शुरू हुई तब कुछ मुनिवर इस प्रवृत्ति को बुरी मानकर तो नहीं परन्तु हमारे चरित्र नायक मुनिराज की 'आगमे । द्वारक' के रूप में बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को देख कर ईष्यावश विरोध करने लगे । परन्तु खास खूबी की बात तो यह है कि विरोध के नेतृत्व का झंडा उठानेवाले ही आगमों की छपी हुई प्रतियाँ सबसे अधिक संख्या में खरीद लेते थे । इस तरह अशोमन विरोध के कारण मुनीश्वर "आगमेाद्धारक” के रूप में जग - प्रसिद्ध हुए, गुणीजनों की वाणीने स्वयं उन्हें आगमेोद्वारक का पद दे दिया | यह आगमोद्धारक का पद उन्हें विधिवत् नाण-स्थापना पूर्वक दिया गया है। ऐसी बात नहीं है, परन्तु आगमों का प्रकाश में लाने और उन्हें शुद्ध करने का भगीरथ कार्य करने के फलस्वरूप उनका “आगमे । द्धारक" नाम गुण पर आधारित स्वयंसिद्ध हुआ ।
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy