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________________ १५७ आगमधर सूि बंबई की ओर वर्षाऋतु समाप्त हुई । आश्विन मास के सूर्य की तेज किरणों के प्रखर ताप से कीचड़ सूख गया था । दुर्गम मार्ग सुगम हो गये थे । नदियों का जल निर्मल हो चुका था । कार्तिकी पूर्णिमा के दिन चातुर्मास - परिवर्तन की प्रथा ने मुनियों को विहार-क्रम की स्मृति पुन: ताज़ी करा दी । पूज्यश्री ने शुभ दिन को विहार किया । नरनारियों का समूह विदा देने उमडा | नगर की सीमा के अन्त में एक विशाल वट वृक्ष के तले खडे रह कर पूज्य श्री आगमेाद्धारकजी ने अन्तिम देशना दी । देशना भाग्यशालियो ! बहता जल निर्मल होता है । मेहमान थोड़े दिन रह कर विदा हो जायँ तो आदर पाते हैं। वर्षा येोग्य परिमाण में बरस कर चली जाए तो स्वागत और सम्मान पाती है । उसो तरह साधु भी तीर्थ पति की आज्ञा के अनुसार विचरते रहें तो चारित्र्य में निमल और आपके जैसे गाँवों के लिए स्वागत एवं बने रहते हैं । सम्मान के पात्र साधु लोग एक स्थान पर अधिक रहें तो स्थल, काल, देश या व्यक्ति का माह बाधा बन सकता है । आपको रोग या द्वेष उत्पन्न हो, उसमें से तिरस्कार का जन्म हो । आप लोगों को भी हमारे प्रति व्यक्ति - राग या द्वेष न हो अतः विचरते रहना चाहिए । आज आप सबकी आँखों से आँसू बह रहे हैं । परन्तु आनेवाले को अवश्य ही जाना है, उसी तरह हमें अवश्य विहार करना होता है । आपने चौमासे में जो जो धर्मोपदेश सुने उन्हें हृदय की गहराई में उतारना, अपनी शक्ति को छिपाये बिना उनको कार्य में परिणत
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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