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पु० आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी म. ने आगमाद्धारकश्रीको ‘समर्पण' किए हुए नंदीसत्रचूर्णिमें से उद्धत
__गंथसमप्पणं वरसुयसायरबीईतरतमण-वयण-कायजोगाणं । वरजिणआगमपयडणकरणे अपमत्तजोगाणं ॥१॥ जोगाजोगविहन्नूण नूण गंभीरिमाए गरिमाण। 'आगमउद्धारय'वरउवाहिमंताण संताणं ॥२॥ आयरियपुंगवाण सागरआणंदमूरिणामाणं । महणायसद्दसच्चावयाण दुसमम्मि कालम्मि ॥ ३ ॥ करकमलकासमझे ताणं संपइ दिवंगयाण मए । अपिज्जइ गथोऽयं विणएण पुण्णविजएणं ॥ ४ ॥
ग्रन्थसमर्पण जिनका मन-वचन-काययोग श्रेष्ठ श्रुतसागरकी तर गोमें तैरता था, जो श्रेष्ठ जिनागमके प्रकाशनमें अप्रमत्तयोगसे प्रवृत्त थे, योग-अयोग के विवेक में कुशल थे, गाम्भीर्य गुणकी गरिमासे अन्वित थे, 'आगमोद्धारक'की श्रेष्ठ पदवीसे विभूषित सन्त थे, और दुःषमकालमें जिन्होंने अपने आपमें 'महानाद' शब्दको सत्य सिद्ध किया था ऐसे साम्प्रत कालमें दिवंगत आचार्य श्रेष्ठ श्रीसागरानन्दसूरिजीके पवित्र करकमल रूप कोषमें यह ग्रन्थ विनयपूर्वक समर्पित करता हूँ।
पुण्यविजय