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आगमधरसरि
१२५ भौतिक रंग में रंगे हुए: इस राजा को औरों की प्रेरणा से ऐसा विश्वास हो गया कि त्याग धर्म सुखमय... धर्म नहीं है.। खास कर कलियुग में तो इसकी आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी बड़ी उम्र के लोग उसे चाहे तो भले ही ग्रहण करें, परन्तु मेरे राज्य के छोटी उम्र के बालकों को संन्यासी संन्यास दें या जैन साधु जैन-दीक्षा दें यह कैसे चल सकता है ?. उन बेचारों ने स्त्री का, मुख नहीं देखा, विलास नहीं भोगा संसार-सुख का स्वाद नहीं, चखा, ऐसे को त्याग-मार्ग पर उठा ले जाना अन्याय है। मैं अपने राज्य में यह अन्याय नहीं चलने दूंगा। इस हेतु से बाल-संन्यास-दीक्षा प्रति बन्धक कानून बनाना चाहिए।
इन विचारों के फल स्वरूप "बाल संन्यास दीक्षा प्रतिबन्धक कानून" को लागू करने के पहले अपने राज्य के गजेट में ये समाचार प्रकाशित कर सर्व-साधारण के सामने रखे।.
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विरोध का
विरोध का झझावात
को भारत वर्ष की आय प्रजाका अध्यात्म-प्रेम जाग उठा । बडादानरेश के नाम विरोध-दर्शक पत्र, तार और सौंदेशे की झड़ी लग गई। हैं। भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का उन्मूलन करने की वृत्तिवाला भी एक सुधारक वर्ग भारत में विद्यमान था। इन लोगोंने इस कानून के प्रति अपना आदर व्यक्त किया, इतना ही नहीं अपितु बाल दीक्षा को एक अत्याचार के रूप में बदनाम करना शुरू किया। साधु-स्था को बदनाम करना इन सुधारकों के लिए एक प्रकार का मजेदार खेल था। ऐसे विरोध में इन्हें बहुत आनन्द मिलता था।