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आगमघरमरि
.. देवलोक के देव मेरु पर्वत पर प्रभु-जन्मोत्सव को देखने के लिए जैसे जल्दी मचाते हैं और आगे आने का प्रयत्न करते हैं उस तरह से नरलोक के ये नरदेव भी प्रभुजी के दर्शन जल्दी करने के लिए आतुर हो रहे थे और आगे आने का प्रयत्न करते थे।
___ उचित समय पर लाल आच्छादन उठा लिये गये और जनसमुदाय को भगवान के दर्शन हुए। उसके बाद मंदिर में विधि-पूर्वक प्रभु-प्रवेश कराया गया। दोपहर को महाशान्तिस्नात्र पूजा-विधि हुई।
गद्दी-प्रतिष्ठा
वीर संवत् २४६७ का वर्ष था। माघ का पवित्र महीना, पंचमी की पवित्र तिथि और विबुध-गुरु वार था। जगत के जीवों को जागृत करनेवाले सहस्ररश्मि सूर्य देव सात अश्वों के रथ पर आरूढ़ हो कर पूर्वाकाश में आ पहुँचे थे। आज प्रतिष्ठा होनेवाली थी। उसे देखने के लिए सूर्य ने अपनी रजत धवल किरणे आगममंदिर पर फैलाई।
ज्योतिषियों के पंचांग में कुंभ का सूर्य था, तुला का चन्द्र था, गुरु देव केन्द्र में बिराजे थे, बुध देवने सूर्य के पास आसन जमाया था। शनि, मंगल और राहु भी समझदार बन कर कुंडली में अच्छे स्थानों पर शोभित हो रहे थे। शुक्राचार्य सूर्य से एक कदम आगे उच्चासन पर बैठे हुए थे। द्विस्वभाव लग्न था, स्थिर नवमांश था, सर्वार्थसिद्धिकर योग था, मंगलमुहूर्त था, शुभ हारा थी।
अन्नपूर्णा धरती का वातावरण खुशनुमा था। शुद्ध मन्द पवन बह रहा था। आकाश धूलि रहित और धवल था। दिशाएँ प्रफुल्ल एवं