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आगमधरसूरि
में भी उसी समय प्रतिष्ठा हुई। मानवसमूह द्वारा भगवान् के जयजयकार की ध्वनि में आकाश शब्दाद्वैत हो गया। • बाहर का जनसमह भी जय निनाद करता और उसकी गंभीर प्रतिध्वनि उठती थी। सबके हृदय भक्तिभाव से भर उठे, नेत्र प्रतिष्ठित भगवान के दर्शनार्थ अधीर और उत्कंठित हो उठे।
भीतर के पुण्यशाली महानुभाव देवाधिदेव के दर्शन करके लौट रहे थे, वे अपने आप को धन्य मानते थे, परन्तु उनके हृदय और नेत्र प्रभु दर्शन कर के अघाते नहीं थे। इस भावना के साथ कि पुनः पुनः अपने नाथ को कब निहारूँ, वापस आ रहे थे जिस से दूसरों को भी दर्शन प्राप्त हो सके।
तपोबल से प्राप्त औषधि के बल से गगन विहार करनेवाले शासन-प्रभावक आचार्य भगवंत श्री पादलिप्तसूरीश्वरजी महाराज के नाम से सम्बन्धित पालीताना नगरी आज पालीताना नहीं बल्कि इन्द्र की राजधानी अमरावती नगरी बन गई थी। दिन-ब-दिन उल्लास में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी।
प्रतिष्ठाविधि के उत्सव के दिनों में आगन्तुकों के भोजन के लिए हर रोज साधर्मिक वात्सल्य होता था, परन्तु आखिरी दिन पादलिप्तपुर के सभी नगरवासी नरनारियों को मिष्टान्न भोजन दिया गया। इस भोजन को देशी भाषामें 'धुमाडा बंद (घूआ-चूल्हा बंद), गाँव झापा, फले चूंदडी' आदि नामों से पहचाना जाता है। आज से सौ वर्ष पूर्व सेठ श्री मातीशा सेठ द्वारा बनवाई गई टूक की प्रतिष्ठा के समय पादलिप्तपुर 'धुमाडाबंध' (धूआ बन्द) हुआ था।