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आगमधरसरि
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कपड़वज के पुण्यशाली धर्मात्माओं की चातुर्मास के लिए लम्बे अरसे से हार्दिक प्रार्थना थी ही, क्षेत्रस्पर्श ना भी यहाँ की थी। अतः पूज्य प्रवरश्रीने कपड़वंज में चातुर्मास किया। यह चातुर्मास धर्म मय बना। श्रावक वृन्द पूज्यश्री का हो सके उतना अधिक लाभ ले रहे थे। उनकी भक्ति भी बेजोड़ थी।
अनासक्त योगी . धर्माराधन के साथ चातुर्मास बीत रहा था। नगर में आनंद छाया हुआ था; इतने में अशाता के उदय से पूज्यश्री को शारीरिक रोगों ने घेर लिया। ज्वर, खासी, पीलिया आदि रोगों के बावजूद पूज्य श्री अद्भुत समता धारण किये हुए थे। आहार में केवल थोड़ा सा प्रवाही द्रव्य ही लेते थे। ____एक दिन दोपहर को एक सेवा भावी शिष्य पूज्य श्री के पीने जितनी थोड़ी सी चाय लाया। पूज्य श्री का एक छोटे से सफेद काष्ठ पात्र में वह चाय दी, महात्मा उसे पी गये। शिष्य अन्य कार्य में व्यस्त हुआ। उतने में चाय बहारानेवाली श्राविका हाफती हुई आई और चाय बहारने भाये हुए मुनि से कहने लगी-साहबजी, गजब का घोटाला हो गया है-मुझ से बडी भयानक भूल हुई है।
मुनिराज-बहन, क्या हुआ, इस तरह हॉफती क्यों हो ? श्राविका-आप चाय ले गये उसका क्या किया ? .. मुनिराज-वह तो भागमोद्धारकत्री ने उपयोग में ले ली।
श्राविका की आँखों से अश्रूधारा बह निकाले। उसने कहा,"महोदय, मैंने चाय में चीनी के पदले भूल से नमक डाल दिया था।