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आगमघरसूरि
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यदि अत्यन्त महापुण्य का सुयोग हों तो वह बाल्यास्था में भी अपनी देह पर व्यावहारिक अधिकार रखनेवाले अपने मातापिता की सहमति मिलने पर त्याग - धर्म का सर्वाशतः स्वीकार कर सकता है, अर्थात् दीक्षा ले सकता है ।
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अपनानेवाला भाग्यशाली
ऐसी बाल्यावस्था में त्याग धर्म का मार्म मात्मा आध्यात्मिक अध्ययन बहुत सुन्दर और विपुल प्रमाण में कर सकता है । उसकी शक्तियोंका विकास आध्यात्मिक दिशा में होता जाता है. और इस प्रकार उसे दुनिया के अन्य आत्माओं पर उपकार करने की शक्ति प्राप्त होती है। यह शक्ति, अध्यात्म शक्ति, परिपक्व आयु के बाद प्राप्त करना असम्भव नहीं तो दुःसाध्य तो अवश्य 1
भारत की प्राणप्रिय आध्यात्म-संस्कृति का बीज बाल - संन्यास और बाल-दीक्षा में निहित है । यही कारण हैं कि जो बस्तु यूरोप के वृद्धों असंभव मालूम होती है वह भारत के बालकों के लिए शक्य एवं सरल मलिम होती है।
लिए
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अतिमुक्तकुमार, जंबुस्वामी, वज्रस्वामी, हेमचन्द्राचार्य शुकदेवजी, सन्त ज्ञानेश्वर, शंकराचार्यजी आदि पुरुष बाल दीक्षित और बाल संन्यासी थे, अंतः वे भारतीय आध्यात्मिक क्षेत्र में भाग्य विधाता बन सके थे ।
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भारत में आध्यात्म-संस्कृति को जीवंत रखने के लिए बाल- दीक्षा और बाल संन्यास अनिवार्य है ।
क्या बोलक में बुद्धि नहीं होती !..
मी शक्ति के लिए कोई विशिष्ट उम्र होनी ही चाहिए ऐसा निर्णय कोई बुद्धिमान् नहीं दे सकता । दीक्षा और संन्यास के विरोधी